कृषि:- लघु उत्तरीय प्रश्न, दीर्घ उत्तरीय प्रश्न Bihar Board Socail Science Class 10th Long Question & Short Question.

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लघु उत्तरीय प्रश्न

1. भारत को कृषि प्रधान देश क्यों कहा जाता है ?

⇒ भारत को कृषि प्रधान देश इसलिए कहा जाता है क्योंकि भारत की अर्थव्यवस्था में कृषि का बहुत महत्वपूर्ण योगदान है। भारत की कुल जीडीपी में कृषि का योगदान लगभग 15% है। भारत की लगभग 60% आबादी कृषि पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से निर्भर है।

भारत में कृषि का महत्व निम्नलिखित कारणों से है:

  • भारत की आबादी का एक बड़ा हिस्सा कृषि पर निर्भर है।
  • कृषि भारत की अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।
  • कृषि भारत के खाद्य सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण है।
  • कृषि भारत के उद्योगों के लिए कच्चे माल का एक महत्वपूर्ण स्रोत है।

भारत में कृषि के प्रमुख उत्पादों में अनाज, दालें, तिलहन, फल, सब्जियां, और डेयरी उत्पाद शामिल हैं। भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा चावल उत्पादक और तीसरा सबसे बड़ा गेहूं उत्पादक है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा गन्ना उत्पादक और दूसरा सबसे बड़ा फल और सब्जी उत्पादक है।

भारतीय कृषि में पिछले कुछ दशकों में काफी प्रगति हुई है। हरित क्रांति के कारण भारत में खाद्यान्न उत्पादन में काफी वृद्धि हुई है। हालांकि, भारतीय कृषि अभी भी कई चुनौतियों का सामना कर रही है। इन चुनौतियों में जलवायु परिवर्तन, प्राकृतिक आपदाएं, कृषि भूमि का अभाव, और किसानों की आय में वृद्धि की कमी शामिल हैं।

भारत को कृषि प्रधान देश से कृषि-उद्योग प्रधान देश में बदलने के लिए सरकार को इन चुनौतियों का समाधान करने के लिए प्रयास करने की आवश्यकता है।

2. भारतीय कृषि की विविधता को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक कौन-से हैं ? समझावें।

⇒ भारतीय कृषि की विविधता को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं:

  • जलवायु: भारत में विभिन्न प्रकार की जलवायु पाई जाती है, जिसमें उष्णकटिबंधीय, उपोष्णकटिबंधीय, और शीतोष्ण जलवायु शामिल हैं। जलवायु फसलों की वृद्धि और विकास के लिए आवश्यक तापमान, आर्द्रता, और वर्षा की मात्रा प्रदान करती है। उदाहरण के लिए, चावल उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय जलवायु में अच्छी तरह से उगता है, जबकि गेहूं शीतोष्ण जलवायु में अच्छी तरह से उगता है।
  • भूमि: भारत में विभिन्न प्रकार की मिट्टी पाई जाती है, जिसमें जलोढ़, काली, लाल, और बलुई मिट्टी शामिल हैं। मिट्टी की गुणवत्ता फसलों की वृद्धि और विकास के लिए आवश्यक पोषक तत्वों और जल धारण क्षमता प्रदान करती है। उदाहरण के लिए, जलोढ़ मिट्टी चावल के लिए सबसे अच्छी है, जबकि काली मिट्टी धान और गेहूं दोनों के लिए अच्छी है।
  • उच्चावच: भारत में विभिन्न प्रकार की भौगोलिक उच्चावच पाई जाती है, जिसमें मैदान, पहाड़, और पठार शामिल हैं। उच्चावच फसलों की वृद्धि और विकास के लिए आवश्यक प्रकाश, तापमान, और वर्षा की मात्रा प्रदान करता है। उदाहरण के लिए, मैदानों में चावल, गेहूं, और गन्ना उगाया जाता है, जबकि पहाड़ों में चाय, कॉफी, और मसालें उगाई जाती हैं।
  • सांस्कृतिक कारक: भारत में विभिन्न प्रकार की संस्कृतियां और परंपराएं पाई जाती हैं। ये सांस्कृतिक कारक फसलों की पसंद और खेती के तरीकों को प्रभावित करते हैं। उदाहरण के लिए, उत्तर भारत में गेहूं और चावल प्रमुख फसलें हैं, जबकि दक्षिण भारत में धान और ज्वार प्रमुख फसलें हैं।
  • आर्थिक कारक: भारत में कृषि एक महत्वपूर्ण आर्थिक गतिविधि है। आर्थिक कारक फसलों की पसंद और खेती के तरीकों को प्रभावित करते हैं। उदाहरण के लिए, सिंचाई की सुविधा वाले क्षेत्रों में अधिक मूल्यवान फसलें उगाई जाती हैं, जबकि सिंचाई की सुविधा के बिना वाले क्षेत्रों में कम मूल्यवान फसलें उगाई जाती हैं।

इन कारकों के प्रभाव में भारतीय कृषि में विविधता पाई जाती है। भारत में विभिन्न प्रकार की फसलें उगाई जाती हैं, जिनमें अनाज, दालें, तिलहन, फल, सब्जियां, और डेयरी उत्पाद शामिल हैं।

3. कृषि को भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ क्यों कहा जाता है ?

⇒ कृषि को भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह भारत की अर्थव्यवस्था में बहुत महत्वपूर्ण योगदान देता है। कृषि क्षेत्र भारतीय अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा क्षेत्र है। भारत की कुल जीडीपी में कृषि का योगदान लगभग 15% है। भारत की लगभग 60% आबादी कृषि पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से निर्भर है।

कृषि का महत्व निम्नलिखित कारणों से है:

  • भारत की आबादी का एक बड़ा हिस्सा कृषि पर निर्भर है। भारत की लगभग 60% आबादी कृषि पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से निर्भर है। कृषि से जुड़े लोगों में किसान, मजदूर, और कृषि से संबंधित उद्योगों में काम करने वाले लोग शामिल हैं।
  • कृषि भारत की अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। भारत की कुल जीडीपी में कृषि का योगदान लगभग 15% है। कृषि भारत के निर्यात में भी महत्वपूर्ण योगदान देती है।
  • कृषि भारत के खाद्य सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण है। भारत की आबादी का एक बड़ा हिस्सा कृषि पर निर्भर है। कृषि भारत को खाद्यान्न, दालें, और अन्य आवश्यक खाद्य पदार्थों की आपूर्ति करती है।
  • कृषि भारत के उद्योगों के लिए कच्चे माल का एक महत्वपूर्ण स्रोत है। कृषि से प्राप्त कच्चे माल का उपयोग उद्योगों में किया जाता है। उदाहरण के लिए, गन्ने से चीनी, चावल से चावल का आटा, और दूध से डेयरी उत्पाद बनाए जाते हैं।

भारतीय कृषि में पिछले कुछ दशकों में काफी प्रगति हुई है। हरित क्रांति के कारण भारत में खाद्यान्न उत्पादन में काफी वृद्धि हुई है। हालांकि, भारतीय कृषि अभी भी कई चुनौतियों का सामना कर रही है। इन चुनौतियों में जलवायु परिवर्तन, प्राकृतिक आपदाएं, कृषि भूमि का अभाव, और किसानों की आय में वृद्धि की कमी शामिल हैं।

भारत को कृषि प्रधान देश से कृषि-उद्योग प्रधान देश में बदलने के लिए सरकार को इन चुनौतियों का समाधान करने के लिए प्रयास करने की आवश्यकता है।

4. भारतीय कृषि की निम्न उत्पादकता के किन्हीं चार कारणों का उल्लेख करें।

⇒ भारतीय कृषि की निम्न उत्पादकता के निम्नलिखित चार प्रमुख कारण हैं:

  1. कृषि पर जनसंख्या का दबाव: भारत की जनसंख्या दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी जनसंख्या है। कृषि भूमि पर जनसंख्या का दबाव बढ़ने से कृषि भूमि के क्षेत्रफल में कमी आ रही है। इससे प्रति हेक्टेयर उत्पादकता पर दबाव बढ़ रहा है।
  2. कृषि भूमि की गुणवत्ता में कमी: भारत में कृषि भूमि की गुणवत्ता में कमी आ रही है। मिट्टी की उर्वरता कम हो रही है। इससे फसलों की उत्पादकता प्रभावित हो रही है।
  3. कृषि तकनीकों का अपर्याप्त उपयोग: भारतीय कृषि में आधुनिक कृषि तकनीकों का अपर्याप्त उपयोग किया जा रहा है। इससे फसलों की उत्पादकता में वृद्धि नहीं हो पा रही है।
  4. कृषि में सरकारी नीतियों की कमी: कृषि में सरकारी नीतियों की कमी भी भारतीय कृषि की निम्न उत्पादकता का एक कारण है। सरकार को कृषि में विकास के लिए उचित नीतियों को अपनाने की आवश्यकता है।

इन कारणों के अलावा, भारतीय कृषि की निम्न उत्पादकता के अन्य कारणों में भी शामिल हैं:

  • जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक आपदाएं: जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक आपदाएं भी भारतीय कृषि की उत्पादकता को प्रभावित करती हैं।
  • कृषि बाजारों की कमी: कृषि बाजारों की कमी से किसानों को उचित मूल्य नहीं मिल पाता है। इससे किसानों का उत्पादन बढ़ाने का उत्साह कम हो जाता है।
  • कृषि वित्त की कमी: कृषि वित्त की कमी से किसानों को खेती के लिए आवश्यक संसाधनों की खरीद में कठिनाई होती है। इससे भी उत्पादकता प्रभावित होती है।

भारतीय कृषि की उत्पादकता बढ़ाने के लिए सरकार को इन कारणों को दूर करने के लिए प्रयास करने की आवश्यकता है।

5. भारतीय कृषि की दो सबसे बड़ी समस्या लिखें ।

⇒ भारतीय कृषि की दो सबसे बड़ी समस्याएं निम्नलिखित हैं:

1. किसानों की आय में वृद्धि की कमी

भारतीय किसानों की आय में वृद्धि की कमी एक प्रमुख समस्या है। हरित क्रांति के बाद भी किसानों की आय में अपेक्षित वृद्धि नहीं हुई है। इसका मुख्य कारण यह है कि कृषि लागत में वृद्धि हुई है, जबकि कृषि उत्पादन मूल्य में वृद्धि नहीं हुई है। इससे किसानों की आय में कमी आ रही है।

2. कृषि भूमि का अभाव

भारत की बढ़ती जनसंख्या के कारण कृषि भूमि पर दबाव बढ़ रहा है। इससे कृषि भूमि का क्षेत्रफल कम हो रहा है। इससे प्रति हेक्टेयर उत्पादकता पर दबाव बढ़ रहा है।

इन समस्याओं को दूर करने के लिए सरकार को निम्नलिखित उपाय करने की आवश्यकता है:

1. कृषि उत्पादों के मूल्य में वृद्धि

सरकार को कृषि उत्पादों के मूल्य में वृद्धि करने के लिए उचित नीतियों को अपनाने की आवश्यकता है। इससे किसानों को उचित मूल्य मिलेगा और उनकी आय में वृद्धि होगी।

2. कृषि लागत में कमी

सरकार को कृषि लागत में कमी करने के लिए उचित नीतियों को अपनाने की आवश्यकता है। इससे किसानों को खेती के लिए आवश्यक संसाधनों की खरीद में आसानी होगी।

3. कृषि भूमि के संरक्षण

सरकार को कृषि भूमि के संरक्षण के लिए उचित नीतियों को अपनाने की आवश्यकता है। इससे कृषि भूमि का क्षेत्रफल कम होने से रोका जा सकता है।

इन उपायों को अपनाकर भारतीय कृषि की समस्याओं को दूर किया जा सकता है और किसानों की आय में वृद्धि की जा सकती है।

6. प्रारंभिक जीविका कृषि किसे कहते हैं ?

⇒ प्रारंभिक जीविका कृषि वह कृषि है जिसमें केवल इतनी उपज होती है कि उससे परिवार का पेट किसी तरह से भर पाए। इस तरह की खेती जमीन के छोटे टुकड़ों पर की जाती है। आदिम कृषि औजारों जैसे लकड़ी के हल, डाओ (dao) और खुदाई करने वाली छड़ी तथा परिवार अथवा समुदाय श्रम की मदद से की जाती है।

प्रारंभिक जीविका कृषि के निम्नलिखित लक्षण हैं:

  • भूमि का छोटा टुकड़ा: प्रारंभिक जीविका कृषि में भूमि का टुकड़ा बहुत छोटा होता है। यह आमतौर पर एक परिवार की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त होता है।
  • आदिम कृषि औजार: प्रारंभिक जीविका कृषि में आदिम कृषि औजारों का उपयोग किया जाता है। इनमें लकड़ी के हल, डाओ (dao), और खुदाई करने वाली छड़ी शामिल हैं।
  • परिवार या समुदाय श्रम: प्रारंभिक जीविका कृषि में परिवार या समुदाय के सदस्यों का श्रम शामिल होता है।
  • कम उत्पादकता: प्रारंभिक जीविका कृषि में उत्पादकता बहुत कम होती है।
  • जीविका का एकमात्र साधन: प्रारंभिक जीविका कृषि परिवार की आय का एकमात्र साधन होती है।

प्रारंभिक जीविका कृषि मुख्य रूप से उन क्षेत्रों में पाई जाती है जहां कृषि भूमि का अभाव होता है या जहां आधुनिक कृषि तकनीकों का उपयोग नहीं किया जा सकता है। भारत में प्रारंभिक जीविका कृषि मुख्य रूप से उत्तर-पूर्वी राज्यों, हिमालयी क्षेत्रों, और आदिवासी क्षेत्रों में पाई जाती है।

प्रारंभिक जीविका कृषि के कई फायदे हैं। इसमें भूमि का कम उपयोग होता है और पर्यावरण पर कम प्रभाव पड़ता है। इसके अलावा, यह परिवार की आय का एकमात्र साधन होती है और इससे लोगों को आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है।

हालांकि, प्रारंभिक जीविका कृषि के कुछ नुकसान भी हैं। इसमें उत्पादकता बहुत कम होती है और इससे लोगों की आय में कमी आ सकती है। इसके अलावा, यह पर्यावरण के लिए नुकसानदायक हो सकता है।

7. जीवन निर्वाह कृषि से आप क्या समझते हैं ?

⇒ जीवन निर्वाह कृषि वह कृषि है जिसमें केवल इतनी उपज होती है कि उससे परिवार की आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके। यह कृषि आमतौर पर छोटे पैमाने पर की जाती है और इसमें आदिम कृषि औजारों का उपयोग किया जाता है। जीवन निर्वाह कृषि मुख्य रूप से उन क्षेत्रों में पाई जाती है जहां कृषि भूमि का अभाव होता है या जहां आधुनिक कृषि तकनीकों का उपयोग नहीं किया जा सकता है।

जीवन निर्वाह कृषि के निम्नलिखित लक्षण हैं:

  • कम उत्पादन: जीवन निर्वाह कृषि में उत्पादन बहुत कम होता है। यह आमतौर पर परिवार की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त होता है।
  • आदिम कृषि औजार: जीवन निर्वाह कृषि में आदिम कृषि औजारों का उपयोग किया जाता है। इनमें लकड़ी के हल, डाओ (dao), और खुदाई करने वाली छड़ी शामिल हैं।
  • परिवार या समुदाय श्रम: जीवन निर्वाह कृषि में परिवार या समुदाय के सदस्यों का श्रम शामिल होता है।
  • पर्यावरण के अनुकूल: जीवन निर्वाह कृषि पर्यावरण के अनुकूल होती है। इसमें भूमि का कम उपयोग होता है और इससे पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचता है।

जीवन निर्वाह कृषि के कई फायदे हैं। यह परिवार की आय का एकमात्र साधन होती है और इससे लोगों को आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है। इसके अलावा, यह पर्यावरण के लिए भी फायदेमंद होती है।

हालांकि, जीवन निर्वाह कृषि के कुछ नुकसान भी हैं। इसमें उत्पादकता बहुत कम होती है और इससे लोगों की आय में कमी आ सकती है। इसके अलावा, यह पर्यावरण के लिए नुकसानदायक भी हो सकता है।

भारत में जीवन निर्वाह कृषि मुख्य रूप से उत्तर-पूर्वी राज्यों, हिमालयी क्षेत्रों, और आदिवासी क्षेत्रों में पाई जाती है।

8. भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि का क्या महत्त्व है ?

⇒ भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि का बहुत महत्त्व है। कृषि क्षेत्र भारतीय अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा क्षेत्र है। भारत की कुल जीडीपी में कृषि का योगदान लगभग 15% है। भारत की लगभग 60% आबादी कृषि पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से निर्भर है।

कृषि का महत्त्व निम्नलिखित कारणों से है:

  • रोज़गार का स्रोत: कृषि क्षेत्र भारतीय अर्थव्यवस्था में सबसे बड़ा रोजगार स्रोत है। भारत में लगभग 60% कार्यशील जनसंख्या कृषि पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से निर्भर है।
  • खाद्य सुरक्षा: कृषि भारत की खाद्य सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण है। भारत की आबादी का एक बड़ा हिस्सा कृषि पर निर्भर है। कृषि भारत को खाद्यान्न, दालें, और अन्य आवश्यक खाद्य पदार्थों की आपूर्ति करती है।
  • उद्योगों के लिए कच्चे माल का स्रोत: कृषि से प्राप्त कच्चे माल का उपयोग उद्योगों में किया जाता है। उदाहरण के लिए, गन्ने से चीनी, चावल से चावल का आटा, और दूध से डेयरी उत्पाद बनाए जाते हैं।
  • विदेशी व्यापार में योगदान: कृषि भारत के विदेशी व्यापार में महत्वपूर्ण योगदान देती है। भारत कृषि उत्पादों का निर्यात करके विदेशी मुद्रा अर्जित करता है।

भारतीय कृषि में पिछले कुछ दशकों में काफी प्रगति हुई है। हरित क्रांति के कारण भारत में खाद्यान्न उत्पादन में काफी वृद्धि हुई है। हालांकि, भारतीय कृषि अभी भी कई चुनौतियों का सामना कर रही है। इन चुनौतियों में जलवायु परिवर्तन, प्राकृतिक आपदाएं, कृषि भूमि का अभाव, और किसानों की आय में वृद्धि की कमी शामिल हैं।

भारत को कृषि प्रधान देश से कृषि-उद्योग प्रधान देश में बदलने के लिए सरकार को इन चुनौतियों का समाधान करने के लिए प्रयास करने की आवश्यकता है।

9. भारत में गहन कृषि के लिए कौन-सी सुविधा पाई जाती है ? समझावें।

⇒ भारत में गहन कृषि के लिए निम्नलिखित सुविधाएं पाई जाती हैं:

  • जल संसाधन: भारत में कृषि के लिए पानी की उपलब्धता एक महत्वपूर्ण कारक है। देश में नदियों, झीलों, बांधों, कुओं और नलकूपों से पानी की पर्याप्त आपूर्ति उपलब्ध है।
  • भूमि संसाधन: भारत में कृषि योग्य भूमि का क्षेत्रफल लगभग 160 मिलियन हेक्टेयर है। यह क्षेत्रफल दुनिया के कृषि योग्य भूमि क्षेत्र का लगभग 7% है।
  • मृदा संसाधन: भारत में विभिन्न प्रकार की मृदा पाई जाती हैं। इनमें से कुछ मृदाएं कृषि के लिए बहुत उपजाऊ हैं।
  • कृषि तकनीक: भारत में कृषि तकनीक में काफी प्रगति हुई है। आधुनिक कृषि तकनीकों के उपयोग से उत्पादन लागत कम हो रही है और फसल उत्पादन में वृद्धि हो रही है।
  • कृषि अनुसंधान: भारत में कृषि अनुसंधान के लिए कई संस्थान हैं। इन संस्थानों के द्वारा नई कृषि तकनीकों और पौध प्रजातियों का विकास किया जा रहा है।

इन सुविधाओं के कारण भारत में गहन कृषि के लिए अनुकूल परिस्थितियां हैं। भारत में गहन कृषि को बढ़ावा देने के लिए सरकार द्वारा कई योजनाएं भी चलाई जा रही हैं।

विशेष रूप से, भारत में गहन कृषि के लिए निम्नलिखित सुविधाएं विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं:

  • सिंचाई सुविधा: सिंचाई सुविधा से फसलों को पर्याप्त मात्रा में पानी मिल पाता है, जिससे उत्पादन में वृद्धि होती है। भारत में सिंचाई सुविधाओं का विस्तार किया जा रहा है।
  • उर्वरक और कीटनाशकों की उपलब्धता: उर्वरक और कीटनाशकों के उपयोग से फसल उत्पादन में वृद्धि होती है। भारत में उर्वरक और कीटनाशकों की उपलब्धता पर्याप्त है।
  • कृषि यंत्रों की उपलब्धता: कृषि यंत्रों के उपयोग से श्रम लागत कम होती है और उत्पादन में वृद्धि होती है। भारत में कृषि यंत्रों की उपलब्धता बढ़ रही है।

इन सुविधाओं के कारण भारत में गहन कृषि को बढ़ावा मिल रहा है और फसल उत्पादन में वृद्धि हो रही है।

10. कृषि कार्य का मुख्य उद्देश्य क्या हैं ? समझावें।

⇒ कृषि कार्य का मुख्य उद्देश्य भोजन और अन्य आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन करना है। कृषि कार्य से प्राप्त खाद्यान्न, दालें, फल, सब्जियां, पशुधन, और अन्य उत्पाद लोगों की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करते हैं। कृषि कार्य से प्राप्त कच्चे माल का उपयोग उद्योगों में भी किया जाता है।

कृषि कार्य के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं:

  • भोजन उत्पादन: कृषि का मुख्य उद्देश्य भोजन का उत्पादन करना है। कृषि से प्राप्त खाद्यान्न, दालें, फल, सब्जियां, और अन्य उत्पाद लोगों की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करते हैं।
  • रोजगार सृजन: कृषि क्षेत्र भारतीय अर्थव्यवस्था में सबसे बड़ा रोजगार स्रोत है। कृषि पर लगभग 60% कार्यशील जनसंख्या प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से निर्भर है।
  • खाद्य सुरक्षा: कृषि भारत की खाद्य सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण है। भारत की आबादी का एक बड़ा हिस्सा कृषि पर निर्भर है। कृषि भारत को खाद्यान्न, दालें, और अन्य आवश्यक खाद्य पदार्थों की आपूर्ति करती है।
  • उद्योगों के लिए कच्चे माल का स्रोत: कृषि से प्राप्त कच्चे माल का उपयोग उद्योगों में किया जाता है। उदाहरण के लिए, गन्ने से चीनी, चावल से चावल का आटा, और दूध से डेयरी उत्पाद बनाए जाते हैं।
  • विदेशी व्यापार में योगदान: कृषि भारत के विदेशी व्यापार में महत्वपूर्ण योगदान देती है। भारत कृषि उत्पादों का निर्यात करके विदेशी मुद्रा अर्जित करता है।

कृषि कार्य के अलावा, कृषि के कई अन्य लाभ भी हैं। कृषि पर्यावरण को भी संरक्षित करती है। कृषि से प्राप्त कार्बन डाइऑक्साइड का उपयोग पौधों द्वारा भोजन बनाने के लिए किया जाता है। इससे वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा कम होती है और जलवायु परिवर्तन को रोकने में मदद मिलती है।

कृषि कार्य एक जटिल प्रक्रिया है जिसमें कई कारक शामिल होते हैं। इन कारकों में भूमि, जल, बीज, उर्वरक, कीटनाशक, और श्रम शामिल हैं। कृषि कार्य को सफल बनाने के लिए इन सभी कारकों का ध्यान रखना आवश्यक है।

11. व्यापारिक कृषि और निर्वाह कृषि में अंतर स्पष्ट करें।

⇒ व्यावसायिक कृषि और निर्वाह कृषि दो प्रमुख प्रकार की कृषि हैं।

व्यावसायिक कृषि वह है जो मुख्य रूप से व्यापारिक उद्देश्यों के लिए की जाती है। इसमें फसलों और पशुओं का उत्पादन किया जाता है जिन्हें बाजार में बेचा जाता है। व्यापारिक कृषि में अक्सर बड़े पैमाने पर उत्पादन, आधुनिक तकनीकों और उपकरणों का उपयोग किया जाता है।

निर्वाह कृषि वह है जो मुख्य रूप से परिवार के भोजन और अन्य जरूरतों को पूरा करने के लिए की जाती है। इसमें फसलों और पशुओं का उत्पादन किया जाता है जिन्हें परिवार द्वारा उपभोग किया जाता है। निर्वाह कृषि में अक्सर छोटे पैमाने पर उत्पादन, पारंपरिक तकनीकों और उपकरणों का उपयोग किया जाता है।

व्यावसायिक कृषि और निर्वाह कृषि के बीच कुछ प्रमुख अंतर निम्नलिखित हैं:

  • उद्देश्य: व्यापारिक कृषि का उद्देश्य लाभ कमाना है, जबकि निर्वाह कृषि का उद्देश्य परिवार की जरूरतों को पूरा करना है।
  • आकार: व्यापारिक कृषि आमतौर पर बड़े पैमाने पर होती है, जबकि निर्वाह कृषि आमतौर पर छोटे पैमाने पर होती है।
  • उपकरण: व्यापारिक कृषि में अक्सर आधुनिक उपकरणों का उपयोग किया जाता है, जबकि निर्वाह कृषि में अक्सर पारंपरिक उपकरणों का उपयोग किया जाता है।
  • फसल: व्यापारिक कृषि में अक्सर उच्च मूल्य वाली फसलें उगाई जाती हैं, जबकि निर्वाह कृषि में अक्सर कम मूल्य वाली फसलें उगाई जाती हैं।
  • उत्पादन: व्यापारिक कृषि में आमतौर पर उच्च उत्पादन होता है, जबकि निर्वाह कृषि में आमतौर पर कम उत्पादन होता है।

भारत में, व्यापारिक कृषि मुख्य रूप से तटीय क्षेत्रों, सिंचित क्षेत्रों और शहरी क्षेत्रों के आसपास के क्षेत्रों में होती है। निर्वाह कृषि मुख्य रूप से पहाड़ी क्षेत्रों, शुष्क क्षेत्रों और ग्रामीण क्षेत्रों में होती है।

12. गहन कृषि की विशेषताओं को लिखें।

⇒ गहन कृषि एक ऐसी कृषि प्रणाली है जिसमें प्रति इकाई भूमि पर अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने के लिए उच्च स्तर की पूंजी, श्रम, और तकनीकी का उपयोग किया जाता है। गहन कृषि में आमतौर पर छोटे खेत शामिल होते हैं, और फसलों को बार-बार उगाया जाता है। गहन कृषि का उपयोग मुख्य रूप से उन क्षेत्रों में किया जाता है जहां भूमि की उपलब्धता कम होती है, या जहां खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि की आवश्यकता होती है।

गहन कृषि की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं:

  • उच्च पूंजी निवेश: गहन कृषि में उच्च स्तर की पूंजी निवेश की आवश्यकता होती है। इस पूंजी का उपयोग मशीनरी, उपकरण, उर्वरक, कीटनाशक, और अन्य कृषि inputs की खरीद के लिए किया जाता है।
  • उच्च श्रम निवेश: गहन कृषि में उच्च स्तर का श्रम निवेश भी आवश्यक होता है। इस श्रम का उपयोग फसलों की बुवाई, निराई, सिंचाई, और कटाई के लिए किया जाता है।
  • उच्च तकनीकी का उपयोग: गहन कृषि में उच्च तकनीकी का उपयोग किया जाता है। इस तकनीक का उपयोग फसलों की पैदावार और गुणवत्ता में सुधार के लिए किया जाता है।
  • छोटे खेत: गहन कृषि में आमतौर पर छोटे खेत शामिल होते हैं। इससे किसानों को अपनी फसलों की देखभाल करने में आसानी होती है।
  • बार-बार फसलों का उत्पादन: गहन कृषि में फसलों को बार-बार उगाया जाता है। इससे प्रति इकाई भूमि पर अधिकतम उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।

गहन कृषि के कई फायदे हैं। यह खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि करने, किसानों की आय बढ़ाने, और पर्यावरण को संरक्षित करने में मदद करती है। हालांकि, गहन कृषि के कुछ नुकसान भी हैं। इसमें भूमि का अधिक उपयोग होता है, और इससे पर्यावरणीय प्रदूषण हो सकता है।

भारत में गहन कृषि का उपयोग मुख्य रूप से हरित क्रांति के बाद से किया जा रहा है। हरित क्रांति के कारण भारत में खाद्यान्न उत्पादन में काफी वृद्धि हुई है। हालांकि, भारत में अभी भी गहन कृषि का विस्तार करने की आवश्यकता है।

13. शुद्ध राष्ट्रीय आय में कृषि उत्पाद के योगदान की चर्चा कीजिए।

⇒ शुद्ध राष्ट्रीय आय (NNI) एक देश की अर्थव्यवस्था की उत्पादन क्षमता का एक संकेतक है। यह एक देश में उत्पादित सभी अंतिम वस्तुओं और सेवाओं के बाजार मूल्य का योग है।

कृषि उत्पाद शुद्ध राष्ट्रीय आय का एक महत्वपूर्ण घटक है। भारत एक कृषि प्रधान देश है, और कृषि क्षेत्र भारतीय अर्थव्यवस्था में सबसे बड़ा क्षेत्र है। भारत की कुल शुद्ध राष्ट्रीय आय में कृषि उत्पाद का योगदान लगभग 15% है।

कृषि उत्पाद शुद्ध राष्ट्रीय आय में योगदान निम्नलिखित तरीकों से करता है:

  • उत्पादन: कृषि उत्पाद देश की अर्थव्यवस्था में उत्पादन का एक महत्वपूर्ण योगदानकर्ता है। कृषि से प्राप्त खाद्यान्न, दालें, फल, सब्जियां, और अन्य उत्पाद लोगों की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करते हैं।
  • रोजगार: कृषि क्षेत्र भारतीय अर्थव्यवस्था में सबसे बड़ा रोजगार स्रोत है। कृषि पर लगभग 60% कार्यशील जनसंख्या प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से निर्भर है।
  • आय: कृषि उत्पाद किसानों की आय का एक महत्वपूर्ण स्रोत है। कृषि से प्राप्त आय किसानों को अपने परिवारों का भरण-पोषण करने और बेहतर जीवन जीने में मदद करती है।

भारत में कृषि उत्पाद शुद्ध राष्ट्रीय आय में योगदान बढ़ाने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:

  • कृषि क्षेत्र में आधुनिकीकरण और प्रौद्योगिकीकरण: कृषि क्षेत्र में आधुनिकीकरण और प्रौद्योगिकीकरण से उत्पादन और उत्पादकता में वृद्धि हो सकती है।
  • कृषि क्षेत्र में अनुसंधान और विकास: कृषि क्षेत्र में अनुसंधान और विकास से नई फसलों और प्रौद्योगिकियों के विकास में मदद मिल सकती है।
  • कृषि क्षेत्र में सिंचाई सुविधाओं का विस्तार: सिंचाई सुविधाओं के विस्तार से कृषि उत्पादन में वृद्धि हो सकती है।
  • कृषि उत्पादों के बाजार मूल्य में वृद्धि: कृषि उत्पादों के बाजार मूल्य में वृद्धि से किसानों की आय बढ़ सकती है।

इन उपायों को अपनाकर भारत कृषि उत्पाद शुद्ध राष्ट्रीय आय में योगदान बढ़ा सकता है और कृषि क्षेत्र को अधिक विकसित और समृद्ध बना सकता है।

14. हरित क्रांति से आप क्या समझते हैं ?

⇒ हरित क्रांति एक ऐसी कृषि क्रांति है जिसने फसल की पैदावार और कृषि उत्पादन में बहुत वृद्धि देखी। कृषि में ये परिवर्तन द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विकसित देशों में शुरू हुए और 1980 के दशक के अंत तक विश्व स्तर पर फैल गए। हरित क्रांति का पारिभाषिक शब्द के रूप में सर्वप्रथम प्रयोग १९६८ ई. में पूर्व संयुक्त राज्य अंतर्राष्ट्रीय विकास एजेंसी (USAID) के निदेशक विलियम गौड द्वारा किया गया जिन्होंने इस नई तकनीक के प्रभाव को चिन्हित किया।

हरित क्रांति के मुख्य घटक निम्नलिखित हैं:

  • उच्च उपज देने वाली किस्में: हरित क्रांति का सबसे महत्वपूर्ण घटक उच्च उपज देने वाली किस्मों का विकास था। इन किस्मों को विशेष रूप से उच्च उत्पादन के लिए अनुकूलित किया गया था।
  • रासायनिक उर्वरक: हरित क्रांति के साथ-साथ रासायनिक उर्वरकों का उपयोग भी व्यापक रूप से बढ़ा। रासायनिक उर्वरकों ने फसलों की उत्पादन क्षमता में महत्वपूर्ण वृद्धि की।
  • कीटनाशक: कीटनाशक का उपयोग भी हरित क्रांति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कीटनाशक ने फसलों को कीटों और रोगों से बचाने में मदद की।
  • सिंचाई: सिंचाई सुविधाओं का विस्तार भी हरित क्रांति में महत्वपूर्ण था। सिंचाई ने फसलों को अधिक पानी उपलब्ध कराया और उत्पादन में वृद्धि की।

हरित क्रांति ने दुनिया भर में खाद्यान्न उत्पादन में भारी वृद्धि की। भारत में भी हरित क्रांति के कारण खाद्यान्न उत्पादन में महत्वपूर्ण वृद्धि हुई। 1965 में भारत में गेहूं का उत्पादन 11 मिलियन टन था, जो 1975 में बढ़कर 35 मिलियन टन हो गया। चावल का उत्पादन भी इसी तरह बढ़कर 35 मिलियन टन से 85 मिलियन टन हो गया।

हरित क्रांति के कई लाभ हैं। इसने खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि की है, जिससे भोजन की सुरक्षा में सुधार हुआ है। इसने किसानों की आय में भी वृद्धि की है। हालांकि, हरित क्रांति के कुछ नुकसान भी हैं। इसने पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव डाला है। इसके अलावा, इसने किसानों के बीच असमानता को भी बढ़ाया है।

हरित क्रांति के बाद से, कृषि में कई अन्य परिवर्तन हुए हैं। इनमें से कुछ परिवर्तनों में जैविक कृषि, टिकाऊ कृषि, और जलवायु परिवर्तन के अनुकूल कृषि शामिल हैं। ये परिवर्तन हरित क्रांति के लाभों को बनाए रखने और इसके नुकसान को कम करने में मदद कर सकते हैं।

15. भारत विश्व का एक अग्रणी चाय निर्यातक देश है क्यों ? कारण बताएँ।

⇒ भारत विश्व का एक अग्रणी चाय निर्यातक देश है क्योंकि भारत में चाय उत्पादन की एक लंबी और समृद्ध परंपरा है। भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा चाय उत्पादक देश है, और इसका चाय उत्पादन दुनिया के कुल चाय उत्पादन का लगभग 12% है। भारत में चाय उत्पादन की शुरुआत 19वीं शताब्दी में हुई थी, और तब से यह एक महत्वपूर्ण कृषि उद्योग बन गया है।

भारत में चाय निर्यात के कुछ प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं:

  • उच्च गुणवत्ता वाली चाय: भारत में उत्पादित चाय अपनी उच्च गुणवत्ता के लिए जानी जाती है। भारतीय चाय की कई किस्में हैं, जिनमें ब्लैक टी, ग्रीन टी, और ओलोंग टी शामिल हैं। ये सभी किस्में अपनी अनूठी स्वाद और सुगंध के लिए प्रसिद्ध हैं।
  • उपयुक्त जलवायु: भारत में चाय उत्पादन के लिए अनुकूल जलवायु है। भारत के पूर्वी और उत्तर-पूर्वी राज्यों में वर्षा अधिक होती है, जो चाय के पौधों के लिए आवश्यक है।
  • विस्तृत खेती क्षेत्र: भारत में चाय की खेती के लिए पर्याप्त भूमि उपलब्ध है। भारत के पूर्वी और उत्तर-पूर्वी राज्यों में चाय की खेती के लिए उपयुक्त भूमि का एक बड़ा क्षेत्र है।

भारत में चाय निर्यात के लिए सरकार भी कई प्रोत्साहन प्रदान करती है। सरकार चाय किसानों को अनुदान प्रदान करती है, और चाय निर्यातकों को वित्तीय सहायता प्रदान करती है। इन प्रोत्साहनों ने भारत को चाय निर्यात में एक प्रमुख खिलाड़ी बनने में मदद की है।

2022-23 में, भारत ने 2.42 बिलियन डॉलर मूल्य की चाय का निर्यात किया। भारत का चाय निर्यात दुनिया के कुल चाय निर्यात का लगभग 14% था। भारत के प्रमुख चाय निर्यातक देश ईरान, रूस, संयुक्त अरब अमीरात, और संयुक्त राज्य अमेरिका हैं।

16. शुष्क क्षेत्र से आपका क्या अभिप्राय है ?

⇒ शुष्क क्षेत्र से मेरा अभिप्राय ऐसे क्षेत्र से है जहाँ वर्षा की मात्रा बहुत कम होती है। शुष्क क्षेत्रों में वार्षिक वर्षा 25 सेमी से कम होती है। शुष्क क्षेत्रों में जलवायु गर्म और शुष्क होती है। इन क्षेत्रों में अक्सर सूखा पड़ता है।

शुष्क क्षेत्रों को दो मुख्य श्रेणियों में बांटा जा सकता है:

  • अल्प वर्षा क्षेत्र: इन क्षेत्रों में वार्षिक वर्षा 25 सेमी से कम होती है।
  • उप-शुष्क क्षेत्र: इन क्षेत्रों में वार्षिक वर्षा 25 सेमी से 50 सेमी तक होती है।

शुष्क क्षेत्रों में कृषि करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। इन क्षेत्रों में फसलों को पानी की आवश्यकता होती है, लेकिन पानी की उपलब्धता कम होती है। शुष्क क्षेत्रों में कृषि के लिए सिंचाई की आवश्यकता होती है।

शुष्क क्षेत्रों में पशुपालन भी एक महत्वपूर्ण आर्थिक गतिविधि है। इन क्षेत्रों में मवेशी, भेड़, बकरी, और ऊंट जैसे पशु पाले जाते हैं।

शुष्क क्षेत्रों में जल संरक्षण और पर्यावरण संरक्षण के उपायों पर ध्यान देने की आवश्यकता है। जल संरक्षण के उपायों से पानी की उपलब्धता बढ़ाई जा सकती है। पर्यावरण संरक्षण के उपायों से शुष्क क्षेत्रों के पारिस्थितिक तंत्र को संरक्षित किया जा सकता है।

भारत में शुष्क क्षेत्रों का क्षेत्रफल लगभग 30% है। भारत के शुष्क क्षेत्रों में राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, और उत्तर प्रदेश के कुछ क्षेत्र शामिल हैं।

17. जल दुर्लभता  (Water scarcity)  क्या है? जल दुर्लभता के लिए उत्तरदायी किन्हीं चार कारकों का उल्लेख करें।

⇒ जल दुर्लभता एक स्थिति है जहाँ जल की मांग जल संसाधनों की उपलब्धता से अधिक होती है। यह एक समस्या है जो जल संसाधनों की कमी, जल के अनुचित उपयोग, और विभिन्न कारणों से हो सकती है। जल दुर्लभता के मुख्य कारक निम्नलिखित हो सकते हैं:

  1. बढ़ती जनसंख्या: जल दुर्लभता का मुख्य कारण है बढ़ती जनसंख्या। अधिक लोगों की आवश्यकता होती है जो जल का उपयोग करते हैं, जिससे जल की मांग बढ़ती है और संसाधनों की कमी होती है।
  2. जल संसाधनों का अनुचित उपयोग: जल का अनुचित उपयोग भी जल दुर्लभता का कारण बनता है। जल के व्यापारिक उपयोग, प्रदूषण, और जल संभरण के बिना खुले बागों का उपयोग जल संसाधनों को कम कर देता है।
  3. जलाशयों की भूमिका का परिवर्तन: जलाशयों की बुरी प्रबंधन और जल संभावनाओं में परिवर्तन भी जल दुर्लभता का कारण बनता है। इसमें नदियों का प्रदूषण, जल बाँधों का निर्माण, और जल संभरण के तंत्र में बदलाव शामिल हैं।
  4. जल संसाधनों की विशेषता: कुछ क्षेत्रों में जल की स्थिति विशेष रूप से कमजोर होती है जैसे की अर्ध-शुष्क क्षेत्र या तटीय क्षेत्र। इससे उन्हें जल दुर्लभता की समस्या से जूझना पड़ता है।

जल दुर्लभता को समाधान करने के लिए अधिकतर संबंधित पक्षों को संयुक्त दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए, जिससे समस्याओं का समाधान संभव हो सके।

18. नगदी और रोपण फसल में अंतर बताएँ।

⇒ नगदी फसल और रोपण फसल दोनों ही कृषि फसलें हैं, लेकिन इनमें कुछ महत्वपूर्ण अंतर हैं।

नगदी फसल वह फसल है जिसका उत्पादन सीधे बाजार में बेचकर नकद पैसा प्राप्त करने के लिए किया जाता है। नगदी फसलों में आमतौर पर फल, सब्जियां, फूल, और मसाले शामिल होते हैं। इन फसलों का उपयोग मुख्य रूप से खाद्य पदार्थों के रूप में किया जाता है, लेकिन इनका उपयोग औषधीय उद्देश्यों के लिए भी किया जा सकता है।

रोपण फसल वह फसल है जिसे एक बार लगाकर कई वर्षों तक उत्पादन प्राप्त किया जाता है। रोपण फसलों में आमतौर पर चाय, कॉफी, रबर, और गन्ना शामिल होते हैं। इन फसलों का उपयोग मुख्य रूप से औद्योगिक उद्देश्यों के लिए किया जाता है।

नगदी फसल और रोपण फसल के बीच कुछ प्रमुख अंतर निम्नलिखित हैं:

विशेषता नगदी फसल रोपण फसल
उत्पादन का उद्देश्य नकद पैसा प्राप्त करना औद्योगिक उद्देश्यों के लिए उपयोग
उपयोग मुख्य रूप से खाद्य पदार्थों के रूप में मुख्य रूप से औद्योगिक उद्देश्यों के लिए
उत्पादन की अवधि एक वर्ष या उससे कम एक वर्ष या उससे अधिक
भूमि का उपयोग कम भूमि का उपयोग अधिक भूमि का उपयोग
श्रम की आवश्यकता कम श्रम की आवश्यकता अधिक श्रम की आवश्यकता
पूंजी निवेश कम पूंजी निवेश अधिक पूंजी निवेश

भारत में, नगदी फसलों का उत्पादन मुख्य रूप से उत्तर भारत, पूर्वी भारत, और दक्षिण भारत के क्षेत्रों में किया जाता है। रोपण फसलों का उत्पादन मुख्य रूप से पूर्वोत्तर भारत, दक्षिण भारत, और पश्चिम भारत के क्षेत्रों में किया जाता है।

19. मनुष्यों की मूलभूत आवश्यकताएँ क्या हैं ?

⇒ मनुष्यों की मूलभूत आवश्यकताएँ वे आवश्यकताएँ हैं जिनके बिना मनुष्य का अस्तित्व संभव नहीं है। इन आवश्यकताओं को दो मुख्य श्रेणियों में बांटा जा सकता है:

  • शारीरिक आवश्यकताएँ: शारीरिक आवश्यकताओं में भोजन, पानी, आश्रय, कपड़े, और सुरक्षा शामिल हैं। ये आवश्यकताएँ मनुष्य के शारीरिक अस्तित्व के लिए आवश्यक हैं।
  • मानसिक आवश्यकताएँ: मानसिक आवश्यकताओं में प्रेम, सम्मान, और आत्म-प्राप्ति शामिल हैं। ये आवश्यकताएँ मनुष्य के मानसिक स्वास्थ्य और कल्याण के लिए आवश्यक हैं।

शारीरिक आवश्यकताएँ

  • भोजन: भोजन मनुष्य के लिए सबसे आवश्यक आवश्यकता है। भोजन से मनुष्य को ऊर्जा मिलती है, और वह स्वस्थ रह सकता है।
  • पानी: पानी मनुष्य के लिए एक और आवश्यक आवश्यकता है। पानी से मनुष्य का शरीर हाइड्रेटेड रहता है, और वह बीमारियों से बच सकता है।
  • आश्रय: आश्रय मनुष्य को मौसम से बचाता है, और उसे सुरक्षित रखता है।
  • कपड़े: कपड़े मनुष्य को मौसम से बचाते हैं, और उसे सम्मानजनक दिखने में मदद करते हैं।
  • सुरक्षा: सुरक्षा मनुष्य को शारीरिक और मानसिक रूप से सुरक्षित रखने के लिए आवश्यक है।

मानसिक आवश्यकताएँ

  • प्रेम: प्रेम मनुष्य के लिए एक आवश्यक आवश्यकता है। प्रेम से मनुष्य को संतुष्टि और खुशी मिलती है।
  • सम्मान: सम्मान मनुष्य के आत्म-सम्मान के लिए आवश्यक है। सम्मान से मनुष्य को यह एहसास होता है कि वह महत्वपूर्ण है।
  • आत्म-प्राप्ति: आत्म-प्राप्ति मनुष्य के जीवन में एक महत्वपूर्ण लक्ष्य है। आत्म-प्राप्ति से मनुष्य को यह एहसास होता है कि उसने अपने जीवन में कुछ हासिल किया है।

इन आवश्यकताओं को पूरा करना मनुष्य के लिए आवश्यक है। जब इन आवश्यकताओं को पूरा किया जाता है, तो मनुष्य एक स्वस्थ और खुशहाल जीवन जी सकता है।

20.भारतीय लोगों के आजीविका का मुख्य आधार क्या है ?

⇒ भारतीय लोगों के आजीविका का मुख्य आधार कृषि है। भारत एक कृषि प्रधान देश है, और कृषि क्षेत्र भारतीय अर्थव्यवस्था में सबसे बड़ा क्षेत्र है। भारत की कुल कार्यशील जनसंख्या का लगभग 60% कृषि क्षेत्र में कार्यरत है।

भारत में कृषि के मुख्य उत्पाद गेहूं, चावल, दलहन, तिलहन, फल, सब्जियां, और कपास हैं। इन उत्पादों का उपयोग मुख्य रूप से खाद्य पदार्थों के रूप में किया जाता है, लेकिन इनका उपयोग औद्योगिक उद्देश्यों के लिए भी किया जाता है।

भारत में कृषि का विकास पिछले कुछ दशकों में हुआ है। हरित क्रांति के कारण कृषि उत्पादन में महत्वपूर्ण वृद्धि हुई है। हालांकि, भारत में कृषि उत्पादन अभी भी कई चुनौतियों का सामना कर रहा है। इन चुनौतियों में जलवायु परिवर्तन, भूमि की कमी, और किसानों की आय में असमानता शामिल हैं।

भारत में कृषि के अलावा अन्य महत्वपूर्ण आजीविका के आधारों में उद्योग, सेवा, और पशुपालन शामिल हैं। उद्योग क्षेत्र में निर्माण, विनिर्माण, और सेवा क्षेत्र शामिल हैं। सेवा क्षेत्र में व्यापार, परिवहन, और वित्तीय सेवाएं शामिल हैं। पशुपालन में मवेशी, भेड़, बकरी, और ऊंट जैसे पशुओं का पालन शामिल है।

भारत में आजीविका के आधार क्षेत्रवार भिन्नताएं हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि आजीविका का सबसे प्रमुख आधार है। शहरी क्षेत्रों में उद्योग, सेवा, और व्यापार आजीविका के प्रमुख आधार हैं।

21. स्वतंत्रता के बाद पंचवर्षीय योजनाओं में कृषि के विकास के लिए कौन-से महत्त्वपूर्ण कदम उठाए गए हैं ?

⇒ स्वतंत्रता के बाद पंचवर्षीय योजनाओं में कृषि के विकास के लिए निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण कदम उठाए गए हैं:

  • कृषि अनुसंधान और विकास: कृषि उत्पादन में वृद्धि के लिए कृषि अनुसंधान और विकास पर विशेष ध्यान दिया गया है। इस उद्देश्य के लिए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) की स्थापना की गई, और इसमें कई अनुसंधान संस्थानों की स्थापना की गई। ICAR ने उच्च उपज देने वाली किस्मों, कीटनाशक, और उर्वरकों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
  • सिंचाई: सिंचाई कृषि उत्पादन में वृद्धि के लिए एक महत्वपूर्ण कारक है। इस उद्देश्य के लिए सिंचाई सुविधाओं के विस्तार पर विशेष ध्यान दिया गया है। पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान, सिंचाई के अंतर्गत क्षेत्र में महत्वपूर्ण वृद्धि हुई है।
  • कृषि वित्त: कृषि उत्पादन में वृद्धि के लिए किसानों को वित्तीय सहायता प्रदान करना आवश्यक है। इस उद्देश्य के लिए कृषि ऋण योजनाओं को शुरू किया गया है। इन योजनाओं के तहत किसानों को कम ब्याज दर पर ऋण उपलब्ध कराया जाता है।
  • कृषि यांत्रिकीकरण: कृषि यांत्रिकीकरण से श्रम की बचत और उत्पादकता में वृद्धि होती है। इस उद्देश्य के लिए कृषि मशीनों और उपकरणों के विकास पर विशेष ध्यान दिया गया है।
  • कृषि बाजार: कृषि उत्पादों के लिए उचित बाजार की व्यवस्था आवश्यक है। इस उद्देश्य के लिए कृषि बाजारों का विकास किया गया है।

इन कदमों के परिणामस्वरूप, भारत में कृषि उत्पादन में महत्वपूर्ण वृद्धि हुई है। 1947 में, भारत का खाद्यान्न उत्पादन 50 मिलियन टन था, जो 2022-23 में बढ़कर 310 मिलियन टन हो गया है।

हालांकि, भारत में कृषि उत्पादन अभी भी कई चुनौतियों का सामना कर रहा है। इन चुनौतियों में जलवायु परिवर्तन, भूमि की कमी, और किसानों की आय में असमानता शामिल हैं। इन चुनौतियों का समाधान करने के लिए, भारत सरकार ने कृषि क्षेत्र में कई नई योजनाओं और कार्यक्रमों की शुरुआत की है।

22. भारत में उपजाए जानेवाले प्रमुख खाद्य और व्यावसायिक फसलों के नाम लिखिए।

⇒ भारत में उपजाए जानेवाले प्रमुख खाद्य फसलें

  • गेहूं: गेहूं भारत की सबसे महत्वपूर्ण खाद्य फसल है। यह भारत में सबसे अधिक उपजाई जाने वाली फसल है। गेहूं का उपयोग मुख्य रूप से रोटी, बिस्कुट, और अन्य खाद्य पदार्थों के निर्माण में किया जाता है।
  • चावल: चावल भारत की दूसरी सबसे महत्वपूर्ण खाद्य फसल है। यह भारत में गेहूं के बाद सबसे अधिक उपजाई जाने वाली फसल है। चावल का उपयोग मुख्य रूप से चावल, बिरयानी, और अन्य खाद्य पदार्थों के निर्माण में किया जाता है।
  • दलहन: दलहन भारत की महत्वपूर्ण खाद्य फसलें हैं। इनमें अरहर, मूंग, उड़द, और चना शामिल हैं। दलहन का उपयोग मुख्य रूप से दाल, सूप, और अन्य खाद्य पदार्थों के निर्माण में किया जाता है।
  • तिलहन: तिलहन भारत की महत्वपूर्ण खाद्य फसलें हैं। इनमें सोयाबीन, मूंगफली, और तिल शामिल हैं। तिलहन का उपयोग मुख्य रूप से तेल, मक्खन, और अन्य खाद्य पदार्थों के निर्माण में किया जाता है।
  • फल: भारत में कई प्रकार के फल उगाए जाते हैं। इनमें आम, केला, पपीता, और संतरा शामिल हैं। फल का उपयोग मुख्य रूप से ताजा, पके हुए, या संरक्षित रूप में किया जाता है।
  • सब्जी: भारत में कई प्रकार की सब्जियां उगाए जाते हैं। इनमें आलू, प्याज, टमाटर, और गोभी शामिल हैं। सब्जियों का उपयोग मुख्य रूप से ताजा, पकाए हुए, या संरक्षित रूप में किया जाता है।

भारत में उपजाए जानेवाले प्रमुख व्यावसायिक फसलें

  • कपास: कपास भारत की सबसे महत्वपूर्ण व्यावसायिक फसल है। यह भारत में सबसे अधिक निर्यात की जाने वाली फसल है। कपास का उपयोग मुख्य रूप से कपड़ा उद्योग में किया जाता है।
  • गन्ना: गन्ना भारत की दूसरी सबसे महत्वपूर्ण व्यावसायिक फसल है। यह भारत में सबसे अधिक उत्पादित होने वाली फसल है। गन्ने का उपयोग मुख्य रूप से चीनी उद्योग में किया जाता है।
  • जूट: जूट भारत की महत्वपूर्ण व्यावसायिक फसलें हैं। इनमें जूट, सन, और नायलॉन शामिल हैं। जूट का उपयोग मुख्य रूप से दरी, बोरी, और अन्य वस्तुओं के निर्माण में किया जाता है।
  • चाय: चाय भारत की महत्वपूर्ण व्यावसायिक फसलें हैं। इनमें चाय, कॉफी, और रबर शामिल हैं। चाय का उपयोग मुख्य रूप से पेय पदार्थों के निर्माण में किया जाता है।
  • कॉफी: कॉफी भारत की महत्वपूर्ण व्यावसायिक फसलें हैं। इनमें चाय, कॉफी, और रबर शामिल हैं। कॉफी का उपयोग मुख्य रूप से पेय पदार्थों के निर्माण में किया जाता है।
  • रबर: रबर भारत की महत्वपूर्ण व्यावसायिक फसलें हैं। इनमें चाय, कॉफी, और रबर शामिल हैं। रबर का उपयोग मुख्य रूप से टायर, दस्ताने, और अन्य वस्तुओं के निर्माण में किया जाता है।

भारत में उपजाए जानेवाले प्रमुख खाद्य और व्यावसायिक फसलों के क्षेत्रवार वितरण में कुछ महत्वपूर्ण अंतर हैं। उदाहरण के लिए, गेहूं और चावल मुख्य रूप से उत्तर भारत में उगाए जाते हैं। दलहन और तिलहन मुख्य रूप से मध्य भारत और दक्षिण भारत में उगाए जाते हैं। फल और सब्जियां पूरे भारत में उगाए जाते हैं। कपास, गन्ना, जूट, चाय, कॉफी, और रबर मुख्य रूप से पूर्वोत्तर भारत, दक्षिण भारत, और पश्चिम भारत में उगाए जाते हैं।

23. रबी फसलें क्या हैं ? चार उदाहरण दें।

⇒ रबी फसलें वे फसलें हैं जो शीत ऋतु में बोई जाती हैं और गर्मियों में काटी जाती हैं। रबी फसलों की बुवाई आमतौर पर अक्टूबर-नवंबर के महीनों में की जाती है, और कटाई अप्रैल-मई के महीनों में की जाती है। रबी फसलों को उगाने के लिए ठंडी और शुष्क जलवायु की आवश्यकता होती है।

रबी फसलों के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं:

  • गेहूं: गेहूं भारत की सबसे महत्वपूर्ण रबी फसल है। यह भारत में सबसे अधिक उगाई जाने वाली फसल है। गेहूं का उपयोग मुख्य रूप से रोटी, बिस्कुट, और अन्य खाद्य पदार्थों के निर्माण में किया जाता है।
  • जौ: जौ भारत की एक अन्य महत्वपूर्ण रबी फसल है। यह मुख्य रूप से उत्तर भारत में उगाया जाता है। जौ का उपयोग मुख्य रूप से दलिया, रोटी, और अन्य खाद्य पदार्थों के निर्माण में किया जाता है।
  • चना: चना भारत की एक महत्वपूर्ण रबी फसल है। यह मुख्य रूप से मध्य भारत और दक्षिण भारत में उगाया जाता है। चना का उपयोग मुख्य रूप से दाल, सूप, और अन्य खाद्य पदार्थों के निर्माण में किया जाता है।
  • सरसों: सरसों भारत की एक महत्वपूर्ण रबी फसल है। यह मुख्य रूप से उत्तर भारत में उगाया जाता है। सरसों का उपयोग मुख्य रूप से तेल, मक्खन, और अन्य खाद्य पदार्थों के निर्माण में किया जाता है।

रबी फसलें भारत की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। ये फसलें भारत के खाद्य सुरक्षा और खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने में मदद करती हैं। इन फसलों से प्राप्त होने वाले उत्पादों का उपयोग विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थों, उद्योगों, और अन्य वस्तुओं के निर्माण में किया जाता है।

24. फसल प्रारूप किसे कहते हैं ?

⇒ फसल प्रारूप से तात्पर्य किसी समय विशेष पर विभिन्न फसलों के अधीन आनुपातिक क्षेत्र से है। किसी भी क्षेत्र का फसल प्रारूप ऐतिहासिक विकास की एक लंबी प्रक्रिया का परिणाम है। भारत में फसली प्रारूप विविधता का प्रदर्शन करता है जैसाकि यहां पर स्थलाकृतिक, जलवायविक एवं मृदा वैविध्य है।

फसल प्रारूप को निर्धारित करने वाले कारक निम्नलिखित हैं:

  • जलवायु: जलवायु फसलों की वृद्धि और विकास के लिए आवश्यक है। विभिन्न प्रकार की फसलें विभिन्न प्रकार की जलवायु परिस्थितियों में अच्छी तरह से विकसित होती हैं।
  • मृदा: मृदा फसलों के पोषण के लिए आवश्यक है। विभिन्न प्रकार की फसलें विभिन्न प्रकार की मिट्टी में अच्छी तरह से विकसित होती हैं।
  • भूगोल: भूगोल फसलों के उत्पादन के लिए उपयुक्त भूमि की उपलब्धता को निर्धारित करता है।
  • सांस्कृतिक कारक: सांस्कृतिक कारक फसलों के चुनाव को प्रभावित करते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ क्षेत्रों में पारंपरिक रूप से कुछ फसलों को उगाया जाता है।

भारत में फसल प्रारूप को निम्नलिखित प्रकारों में बांटा जा सकता है:

  • खाद्यान्न फसल प्रारूप: यह प्रारूप मुख्य रूप से गेहूं, चावल, दलहन, और तिलहन जैसी खाद्य फसलों पर आधारित है। यह प्रारूप उत्तर भारत, पूर्वी भारत, और दक्षिण भारत में प्रचलित है।
  • व्यावसायिक फसल प्रारूप: यह प्रारूप मुख्य रूप से कपास, गन्ना, जूट, चाय, कॉफी, और रबर जैसी व्यावसायिक फसलों पर आधारित है। यह प्रारूप पूर्वोत्तर भारत, दक्षिण भारत, और पश्चिम भारत में प्रचलित है।
  • मिश्रित फसल प्रारूप: यह प्रारूप एक ही क्षेत्र में दो या दो से अधिक फसलों के मिश्रण पर आधारित है। यह प्रारूप भारत के विभिन्न क्षेत्रों में प्रचलित है।

फसल प्रारूप का अध्ययन कृषि अर्थशास्त्रियों और भूगोलविदों के लिए महत्वपूर्ण है। यह अध्ययन कृषि उत्पादन, खाद्य सुरक्षा, और आर्थिक विकास को समझने में मदद करता है।

25. अजैव संसाधन किसे कहते हैं ?

⇒ अजैव संसाधन वे संसाधन होते हैं जो जीवों से नहीं बनते हैं। ये संसाधन प्राकृतिक रूप से पाए जाते हैं और मानवीय क्रियाकलापों से प्रभावित नहीं होते हैं। अजैव संसाधनों के कुछ उदाहरणों में शामिल हैं:

  • खनिज: खनिज पृथ्वी की सतह पर पाए जाने वाले प्राकृतिक पदार्थ हैं। इनका उपयोग विभिन्न प्रकार के उत्पादों के निर्माण में किया जाता है, जैसे कि धातु, ईंधन, और रसायन।
  • जल: जल पृथ्वी पर सबसे महत्वपूर्ण संसाधनों में से एक है। इसका उपयोग पीने, सिंचाई, और उद्योग के लिए किया जाता है।
  • वायु: वायु पृथ्वी पर जीवन के लिए आवश्यक है। इसका उपयोग श्वसन, परिवहन, और ऊर्जा उत्पादन के लिए किया जाता है।
  • भूमि: भूमि कृषि, निर्माण, और उद्योग के लिए आवश्यक है।
  • ऊर्जा: ऊर्जा का उपयोग विभिन्न प्रकार के कार्यों को करने के लिए किया जाता है, जैसे कि प्रकाश, ऊष्मा, और शक्ति उत्पादन।

अजैव संसाधनों का मानवीय क्रियाकलापों पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए, खनन गतिविधियाँ खनिज संसाधनों को कम कर सकती हैं। जल प्रदूषण जल संसाधनों को दूषित कर सकता है। वायु प्रदूषण वायु संसाधनों को दूषित कर सकता है। भूमि उपयोग में परिवर्तन भूमि संसाधनों को कम कर सकता है। और ऊर्जा उत्पादन जलवायु परिवर्तन जैसे पर्यावरणीय मुद्दों का कारण बन सकता है।

अजैव संसाधनों का संरक्षण महत्वपूर्ण है ताकि भविष्य की पीढ़ियों के लिए इन संसाधनों की उपलब्धता सुनिश्चित की जा सके।

26. बफर स्टॉक क्या है ?

⇒ बफर स्टॉक किसी वस्तु या संसाधन का एक भंडार होता है जिसका उपयोग अनिश्चितता या मांग में उतार-चढ़ाव को कम करने के लिए किया जाता है। बफर स्टॉक का उपयोग विभिन्न प्रकार के उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है, जैसे कि:

  • खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना: बफर स्टॉक का उपयोग खाद्य की कमी या अकाल की स्थिति में खाद्य की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए किया जा सकता है।
  • कीमत स्थिरता बनाए रखना: बफर स्टॉक का उपयोग मांग में उतार-चढ़ाव के कारण होने वाली कीमतों में उतार-चढ़ाव को कम करने के लिए किया जा सकता है।
  • आपूर्ति शृंखला में रुकावटों को कम करना: बफर स्टॉक का उपयोग आपूर्ति शृंखला में रुकावटों के कारण होने वाली आपूर्ति की कमी को कम करने के लिए किया जा सकता है।

बफर स्टॉक को विभिन्न प्रकार की वस्तुओं या संसाधनों के लिए बनाए जा सकते हैं, जैसे कि खाद्य, ऊर्जा, पानी, और दवाएं। बफर स्टॉक का आकार और संरचना मांग और आपूर्ति की अनिश्चितता के स्तर पर निर्भर करती है।

भारत में, बफर स्टॉक का उपयोग खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए किया जाता है। सरकार खाद्यान्न, जैसे कि गेहूं, चावल, और दलहन का एक बफर स्टॉक रखती है। यह स्टॉक अकाल या अन्य आपदाओं की स्थिति में खाद्य की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए उपयोग किया जाता है।

भारत में बफर स्टॉक के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं:

  • राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा भंडार: यह भारत का सबसे बड़ा बफर स्टॉक है। इसमें गेहूं, चावल, और दलहन का भंडार होता है।
  • राज्य खाद्य सुरक्षा भंडार: प्रत्येक राज्य सरकार का अपना खाद्य सुरक्षा भंडार होता है।
  • सामुदायिक खाद्य भंडार: कुछ गांवों और समुदायों में सामुदायिक खाद्य भंडार होते हैं।

बफर स्टॉक एक महत्वपूर्ण उपकरण है जो अनिश्चितता या मांग में उतार-चढ़ाव के कारण होने वाली समस्याओं को कम करने में मदद कर सकता है।

27. ऑपरेशन फ्लड क्या है ?

⇒ ऑपरेशन फ्लड, जिसे श्वेत क्रांति के रूप में भी जाना जाता है, भारत में दूध उत्पादन को बढ़ाने के लिए एक कार्यक्रम था। इसे 1970 में चौथी पंचवर्षीय योजना के दौरान राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (NDDB) द्वारा शुरू किया गया था।

ऑपरेशन फ्लड का उद्देश्य भारत को दूध उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाना था। यह कार्यक्रम तीन चरणों में लागू किया गया था:

पहला चरण (1970-75): इस चरण में, दूध उत्पादन बढ़ाने के लिए पशुधन विकास पर ध्यान केंद्रित किया गया था। इस चरण में, दूध उत्पादकों को उन्नत पशु प्रजनन तकनीकों, पशु आहार, और पशु स्वास्थ्य सेवाओं के बारे में प्रशिक्षित किया गया था।

दूसरा चरण (1975-85): इस चरण में, दूध उत्पादन और प्रसंस्करण में बुनियादी ढांचे के विकास पर ध्यान केंद्रित किया गया था। इस चरण में, दूध सहकारी समितियों और डेयरी उद्योगों का विकास किया गया था।

तीसरा चरण (1985-90): इस चरण में, दूध उत्पादन और प्रसंस्करण में अनुसंधान और विकास पर ध्यान केंद्रित किया गया था। इस चरण में, दूध उत्पादन को बढ़ाने के लिए नई तकनीकों और विधियों का विकास किया गया था।

ऑपरेशन फ्लड एक सफल कार्यक्रम था। इस कार्यक्रम के परिणामस्वरूप, भारत ने दूध उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि देखी। 1970 में, भारत का दूध उत्पादन केवल 22 मिलियन टन था। 1990 तक, यह बढ़कर 75 मिलियन टन हो गया।

ऑपरेशन फ्लड के कई लाभ हुए हैं। इसने भारत को दूध उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाया है। इसने ग्रामीण विकास को भी बढ़ावा दिया है। ऑपरेशन फ्लड ने लाखों किसानों को रोजगार और आय के अवसर प्रदान किए हैं।

ऑपरेशन फ्लड को भारत के सबसे सफल विकास कार्यक्रमों में से एक माना जाता है। इस कार्यक्रम ने भारत के खाद्य सुरक्षा और आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

28. श्वेत क्रांति किसे कहते हैं ?

⇒ श्वेत क्रांति, जिसे ऑपरेशन फ्लड के नाम से भी जाना जाता है, भारत में दूध उत्पादन को बढ़ाने के लिए एक कार्यक्रम था। इसे 1970 में चौथी पंचवर्षीय योजना के दौरान राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (NDDB) द्वारा शुरू किया गया था।

ऑपरेशन फ्लड का उद्देश्य भारत को दूध उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाना था। यह कार्यक्रम तीन चरणों में लागू किया गया था:

  • पहला चरण (1970-75): इस चरण में, दूध उत्पादन बढ़ाने के लिए पशुधन विकास पर ध्यान केंद्रित किया गया था। इस चरण में, दूध उत्पादकों को उन्नत पशु प्रजनन तकनीकों, पशु आहार, और पशु स्वास्थ्य सेवाओं के बारे में प्रशिक्षित किया गया था।
  • दूसरा चरण (1975-85): इस चरण में, दूध उत्पादन और प्रसंस्करण में बुनियादी ढांचे के विकास पर ध्यान केंद्रित किया गया था। इस चरण में, दूध सहकारी समितियों और डेयरी उद्योगों का विकास किया गया था।
  • तीसरा चरण (1985-90): इस चरण में, दूध उत्पादन और प्रसंस्करण में अनुसंधान और विकास पर ध्यान केंद्रित किया गया था। इस चरण में, दूध उत्पादन को बढ़ाने के लिए नई तकनीकों और विधियों का विकास किया गया था।

ऑपरेशन फ्लड एक सफल कार्यक्रम था। इस कार्यक्रम के परिणामस्वरूप, भारत ने दूध उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि देखी। 1970 में, भारत का दूध उत्पादन केवल 22 मिलियन टन था। 1990 तक, यह बढ़कर 75 मिलियन टन हो गया।

ऑपरेशन फ्लड के कई लाभ हुए हैं। इसने भारत को दूध उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाया है। इसने ग्रामीण विकास को भी बढ़ावा दिया है। ऑपरेशन फ्लड ने लाखों किसानों को रोजगार और आय के अवसर प्रदान किए हैं।

ऑपरेशन फ्लड को भारत के सबसे सफल विकास कार्यक्रमों में से एक माना जाता है। इस कार्यक्रम ने भारत के खाद्य सुरक्षा और आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

श्वेत क्रांति के प्रमुख परिणाम निम्नलिखित हैं:

  • भारत को दूध उत्पादन में आत्मनिर्भरता प्राप्त हुई।
  • ग्रामीण विकास को बढ़ावा मिला।
  • लाखों किसानों को रोजगार और आय के अवसर प्रदान हुए।
  • भारत के खाद्य सुरक्षा और आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

श्वेत क्रांति ने भारत के दूध उत्पादन को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस कार्यक्रम ने भारत को दूध उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाया है और ग्रामीण विकास को भी बढ़ावा दिया है।

29. भारत में उपजने वाली दो खाद्य, नकदी एवं रेशेवाली फसलों के नाम लिखें।

⇒ खाद्य फसलें

  • गेहूं
  • चावल

नकदी फसलें

  • गन्ना
  • चाय

रेशेवाली फसलें

  • कपास
  • जूट

इन फसलों का भारत की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान है। ये फसलें भारत के खाद्य सुरक्षा, खाद्य सुरक्षा, और आर्थिक विकास को सुनिश्चित करने में मदद करती हैं।

खाद्य फसलें

खाद्य फसलें वे फसलें हैं जो मानव और पशुओं के भोजन के लिए उपयोग की जाती हैं। भारत में उपजने वाली प्रमुख खाद्य फसलों में गेहूं, चावल, दलहन, मोटे अनाज, और तिलहन शामिल हैं।

  • गेहूं भारत की सबसे महत्वपूर्ण खाद्य फसल है। यह भारत में सबसे अधिक उगाई जाने वाली फसल है। गेहूं का उपयोग मुख्य रूप से रोटी, बिस्कुट, और अन्य खाद्य पदार्थों के निर्माण में किया जाता है।
  • चावल भारत की दूसरी सबसे महत्वपूर्ण खाद्य फसल है। यह भारत में दूसरी सबसे अधिक उगाई जाने वाली फसल है। चावल का उपयोग मुख्य रूप से भोजन, पेय पदार्थों, और अन्य खाद्य पदार्थों के निर्माण में किया जाता है।

नकदी फसलें

नकदी फसलें वे फसलें हैं जिन्हें मुख्य रूप से विपणन के लिए उगाई जाती हैं। भारत में उपजने वाली प्रमुख नकदी फसलों में गन्ना, चाय, कपास, जूट, और तंबाकू शामिल हैं।

  • गन्ना भारत की सबसे महत्वपूर्ण नकदी फसल है। यह भारत में सबसे अधिक उगाई जाने वाली नकदी फसल है। गन्ने का उपयोग मुख्य रूप से चीनी, गुड़, और अन्य उत्पादों के निर्माण में किया जाता है।
  • चाय भारत की दूसरी सबसे महत्वपूर्ण नकदी फसल है। यह भारत में दूसरी सबसे अधिक उगाई जाने वाली नकदी फसल है। चाय का उपयोग मुख्य रूप से पेय पदार्थों के निर्माण में किया जाता है।

रेशेवाली फसलें

रेशेवाली फसलें वे फसलें हैं जिनसे रेशे प्राप्त किए जाते हैं। भारत में उपजने वाली प्रमुख रेशेवाली फसलों में कपास, जूट, और सन शामिल हैं।

  • कपास भारत की सबसे महत्वपूर्ण रेशेवाली फसल है। यह भारत में सबसे अधिक उगाई जाने वाली रेशेवाली फसल है। कपास का उपयोग मुख्य रूप से कपड़े, रस्सी, और अन्य उत्पादों के निर्माण में किया जाता है।
  • जूट भारत की दूसरी सबसे महत्वपूर्ण रेशेवाली फसल है। यह भारत में दूसरी सबसे अधिक उगाई जाने वाली रेशेवाली फसल है। जूट का उपयोग मुख्य रूप से रस्सी, बोरी, और अन्य उत्पादों के निर्माण में किया जाता है।

30. जायद फसल किसे कहते हैं ?

⇒ जायद फसल वह फसल है जो रबी और खरीफ फसलों के बीच की अवधि में बोई जाती है। यह अवधि आमतौर पर मार्च से जून तक होती है। जायद फसलों को तेज गर्मी और शुष्क हवाओं को सहन करने की क्षमता होती है।

जायद फसलों के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं:

  • तरबूज
  • खरबूजा
  • खीरा
  • ककड़ी
  • मूंग
  • उड़द
  • सूरजमुखी

जायद फसलों का महत्व निम्नलिखित हैं:

  • ये फसलें किसानों को अतिरिक्त आय प्रदान करती हैं।
  • ये फसलें खाद्य सुरक्षा में भी योगदान देती हैं।
  • ये फसलें जैव विविधता को बढ़ावा देती हैं।

जायद फसलों की खेती के लिए कुछ महत्वपूर्ण बातों का ध्यान रखना चाहिए:

  • उपयुक्त जलवायु और मिट्टी की स्थिति का चयन करना चाहिए।
  • उपयुक्त बीज और उर्वरकों का उपयोग करना चाहिए।
  • सही समय पर सिंचाई और खरपतवार नियंत्रण करना चाहिए।

जायद फसलों की खेती से किसानों को अतिरिक्त आय और खाद्य सुरक्षा में मदद मिलती है। यह जैव विविधता को बढ़ावा देने में भी मदद करती है।

31, धान, गेहूँ, गन्ना, चाय, कपास, जूट फसलों के उत्पादन करने वाले दो प्रमुख राज्यों के नाम लिखें।

⇒ धान

  • पश्चिम बंगाल
  • उत्तर प्रदेश

गेहूँ

  • पंजाब
  • हरियाणा

गन्ना

  • उत्तर प्रदेश
  • पंजाब

चाय

  • असम
  • केरल

कपास

  • महाराष्ट्र
  • गुजरात

जूट

  • पश्चिम बंगाल
  • बिहार

इन राज्यों में उपरोक्त फसलों का उत्पादन अधिक होता है। इन राज्यों में जलवायु, मिट्टी, और अन्य भौगोलिक परिस्थितियां इन फसलों के उत्पादन के लिए अनुकूल होती हैं।

उदाहरण के लिए, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश धान के प्रमुख उत्पादक राज्य हैं। इन राज्यों में मानसून की अच्छी वर्षा होती है, जो धान की खेती के लिए आवश्यक होती है।

पंजाब और हरियाणा गेहूँ के प्रमुख उत्पादक राज्य हैं। इन राज्यों में उपजाऊ मिट्टी और सिंचाई सुविधाएं उपलब्ध हैं, जो गेहूँ की खेती के लिए आवश्यक हैं।

उत्तर प्रदेश और पंजाब गन्ने के प्रमुख उत्पादक राज्य हैं। इन राज्यों में उपजाऊ मिट्टी और पर्याप्त जल उपलब्ध हैं, जो गन्ने की खेती के लिए आवश्यक हैं।

असम और केरल चाय के प्रमुख उत्पादक राज्य हैं। इन राज्यों में पहाड़ी क्षेत्र हैं, जो चाय की खेती के लिए अनुकूल होते हैं।

महाराष्ट्र और गुजरात कपास के प्रमुख उत्पादक राज्य हैं। इन राज्यों में उपजाऊ मिट्टी और पर्याप्त जल उपलब्ध हैं, जो कपास की खेती के लिए आवश्यक हैं।

पश्चिम बंगाल और बिहार जूट के प्रमुख उत्पादक राज्य हैं। इन राज्यों में उपजाऊ मिट्टी और पर्याप्त जल उपलब्ध हैं, जो जूट की खेती के लिए आवश्यक हैं।

32. खाद्य सुरक्षा किसे कहा जाता है ?

⇒ खाद्य सुरक्षा का अर्थ है कि सभी लोगों के पास पर्याप्त, सुरक्षित, और पौष्टिक भोजन तक भौतिक और आर्थिक पहुँच हो। खाद्य सुरक्षा के तीन प्रमुख घटक हैं:

  • उपलब्धता: इसका अर्थ है कि देश के भीतर खाद्य का उत्पादन, खाद्य का आयात, और सरकारी अन्न भंडारों में स्टॉक की उपलब्धता।
  • पहुँच: इसका अर्थ है कि खाद्य तक बिना किसी भेदभाव के प्रत्येक व्यक्ति की पहुँच हो।
  • वहनीयता: इसका तात्पर्य है आहार संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु पर्याप्त, सुरक्षित और पौष्टिक खाद्य खरीदने के लिये व्यक्ति के पास पर्याप्त धन होना।

खाद्य सुरक्षा एक महत्वपूर्ण विकास लक्ष्य है। यह लोगों के स्वास्थ्य और कल्याण के लिए आवश्यक है। खाद्य सुरक्षा के बिना, लोगों को कुपोषण, बीमारी, और मृत्यु का खतरा होता है।

खाद्य सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिए कई उपाय किए जा सकते हैं। इनमें शामिल हैं:

  • उत्पादकता में वृद्धि: कृषि उत्पादकता में वृद्धि से खाद्य की उपलब्धता में वृद्धि होती है।
  • समानता में वृद्धि: खाद्य तक समान पहुंच सुनिश्चित करने से खाद्य सुरक्षा में सुधार होता है।
  • आर्थिक विकास: आर्थिक विकास से लोगों की क्रय शक्ति में वृद्धि होती है, जिससे खाद्य की वहनीयता में सुधार होता है।

भारत में खाद्य सुरक्षा की स्थिति में सुधार हुआ है। भारत ने 2022 तक स्वपोषण प्राप्त कर लिया है। हालांकि, अभी भी कुछ चुनौतियाँ हैं। इनमें शामिल हैं:

  • कुपोषण: भारत में अभी भी कई लोग कुपोषण से पीड़ित हैं।
  • असमानता: खाद्य तक समान पहुंच सुनिश्चित करना एक चुनौती है।
  • पर्यावरणीय परिवर्तन: जलवायु परिवर्तन से खाद्य सुरक्षा पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।

भारत को इन चुनौतियों का सामना करने के लिए उपाय करने की आवश्यकता है।

33. भारत कपास का आयातक एवं निर्यातक दोनों है क्यों ? कारण बताएँ।

⇒ भारत कपास का आयातक एवं निर्यातक दोनों है क्योंकि भारत में कपास की मांग और आपूर्ति दोनों में असंतुलन है। भारत में कपास की मांग अधिक है, लेकिन उत्पादन कम है।

कपास की मांग में वृद्धि के कई कारण हैं। इनमें शामिल हैं:

  • आबादी में वृद्धि: भारत की आबादी में वृद्धि से कपड़े की मांग में वृद्धि हो रही है।
  • आर्थिक विकास: भारत में आर्थिक विकास से लोगों की क्रय शक्ति में वृद्धि हो रही है, जिससे कपड़े की मांग में वृद्धि हो रही है।
  • औद्योगिक विकास: भारत में औद्योगिक विकास से कपास के आधारित उद्योगों की मांग में वृद्धि हो रही है।

कपास की आपूर्ति में कमी के कई कारण हैं। इनमें शामिल हैं:

  • जलवायु परिवर्तन: जलवायु परिवर्तन से कपास की फसलों को नुकसान हो रहा है।
  • मृदा क्षरण: मृदा क्षरण से कपास की फसलों के लिए उपजाऊ मिट्टी का नुकसान हो रहा है।
  • फसलों की बीमारियाँ: कपास की फसलों को कई बीमारियों का खतरा है।

इन कारणों से, भारत में कपास की मांग और आपूर्ति दोनों में असंतुलन है। इस असंतुलन को दूर करने के लिए, भारत को कपास का आयात करना पड़ता है।

हालांकि, भारत में कपास उत्पादन भी बढ़ रहा है। सरकार कपास उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए कई उपाय कर रही है। इन उपायों में शामिल हैं:

  • उत्पादकता में वृद्धि: सरकार किसानों को उन्नत बीज, उर्वरक, और सिंचाई सुविधाएं प्रदान कर रही है।
  • मृदा स्वास्थ्य में सुधार: सरकार मृदा स्वास्थ्य में सुधार के लिए कार्य कर रही है।
  • फसलों की बीमारियों से बचाव: सरकार फसलों की बीमारियों से बचाव के लिए अनुसंधान और विकास में निवेश कर रही है।

इन उपायों से भारत में कपास उत्पादन में वृद्धि होने की संभावना है। इससे भारत में कपास की आपूर्ति में वृद्धि होगी और आयात की आवश्यकता कम होगी।

34. गन्ने की उपज उत्तरी भारत की अपेक्षा दक्षिण भारत में अधिक है क्यों ? कारण बताएँ।

⇒ गन्ने की उपज उत्तरी भारत की अपेक्षा दक्षिण भारत में अधिक है, इसके निम्नलिखित कारण हैं:

  • जलवायु: दक्षिण भारत में उष्णकटिबंधीय जलवायु होती है, जो गन्ने की खेती के लिए अनुकूल होती है। उत्तरी भारत में समशीतोष्ण जलवायु होती है, जो गन्ने की खेती के लिए उतनी अनुकूल नहीं होती है।
  • मृदा: दक्षिण भारत में उपजाऊ मिट्टी होती है, जो गन्ने की खेती के लिए आवश्यक होती है। उत्तरी भारत में मिट्टी की उर्वरता में भिन्नता होती है।
  • सिंचाई सुविधाएं: दक्षिण भारत में सिंचाई सुविधाएं अधिक उपलब्ध हैं, जो गन्ने की खेती के लिए आवश्यक होती है। उत्तरी भारत में सिंचाई सुविधाएं कम उपलब्ध हैं।
  • तकनीकी विकास: दक्षिण भारत में गन्ने की खेती में तकनीकी विकास अधिक हुआ है, जिससे उत्पादन में वृद्धि हुई है। उत्तरी भारत में गन्ने की खेती में तकनीकी विकास अपेक्षाकृत कम हुआ है।

इन कारणों से, गन्ने की उपज उत्तरी भारत की अपेक्षा दक्षिण भारत में अधिक है।

कुछ विशिष्ट कारणों पर ध्यान दें तो, दक्षिण भारत में गन्ने की खेती के लिए अनुकूल जलवायु और मिट्टी की स्थिति है। दक्षिण भारत में मानसून की अच्छी वर्षा होती है, जो गन्ने की खेती के लिए आवश्यक होती है। दक्षिण भारत में उपजाऊ मिट्टी होती है, जिसमें गन्ने की जड़ें अच्छी तरह से विकसित हो सकती हैं।

दक्षिण भारत में सिंचाई सुविधाएं भी अधिक उपलब्ध हैं। दक्षिण भारत में नदियों, नहरों, और जलाशयों की संख्या अधिक है, जो सिंचाई के लिए उपयोग की जाती हैं। उत्तरी भारत में सिंचाई सुविधाएं कम उपलब्ध हैं, जिसके कारण गन्ने की खेती में कमी आती है।

दक्षिण भारत में गन्ने की खेती में तकनीकी विकास भी अधिक हुआ है। दक्षिण भारत में किसानों को उन्नत बीज, उर्वरक, और सिंचाई सुविधाएं उपलब्ध हैं। उत्तरी भारत में गन्ने की खेती में तकनीकी विकास अपेक्षाकृत कम हुआ है, जिसके कारण उत्पादन में कमी आती है।

इन सभी कारणों से, गन्ने की उपज उत्तरी भारत की अपेक्षा दक्षिण भारत में अधिक है।

35. कपास की खेती दक्कन प्रदेश की काली मिट्टी में अधिकांशतः होती है क्यों ? कारण बताएँ।

⇒ कपास की खेती दक्कन प्रदेश की काली मिट्टी में अधिकांशतः होती है क्योंकि यह मिट्टी कपास की खेती के लिए सर्वोत्तम मानी जाती है। काली मिट्टी में निम्नलिखित गुण पाए जाते हैं जो कपास की खेती के लिए आवश्यक होते हैं:

  • उपजाऊपन: काली मिट्टी में उच्च मात्रा में कार्बनिक पदार्थ होते हैं, जो पौधों के लिए पोषक तत्व प्रदान करते हैं।
  • पानी धारण क्षमता: काली मिट्टी पानी को अच्छी तरह से धारण करती है, जो कपास की जड़ों के लिए आवश्यक है।
  • अम्लता: काली मिट्टी थोड़ी अम्लीय होती है, जो कपास के लिए उपयुक्त होती है।

दक्कन प्रदेश में काली मिट्टी का क्षेत्रफल अधिक है, इसलिए इस क्षेत्र में कपास की खेती अधिक होती है। दक्कन प्रदेश के प्रमुख कपास उत्पादक राज्यों में महाराष्ट्र, कर्नाटक, और आंध्र प्रदेश शामिल हैं।

कपास की खेती के लिए अन्य आवश्यक परिस्थितियाँ भी दक्कन प्रदेश में पाई जाती हैं। दक्कन प्रदेश में गर्म और आर्द्र जलवायु होती है, जो कपास की खेती के लिए आवश्यक है। दक्कन प्रदेश में मानसून की अच्छी वर्षा होती है, जो कपास की खेती के लिए आवश्यक है।

इन सभी कारणों से, कपास की खेती दक्कन प्रदेश की काली मिट्टी में अधिकांशतः होती है।

36. वैश्विक प्रतिस्पर्द्धा का सामना करने के लिए भारत को क्या कदम उठाना होगा ?

⇒ वैश्विक प्रतिस्पर्द्धा का सामना करने के लिए भारत को निम्नलिखित कदम उठाने होंगे:

  • उत्पादकता में वृद्धि: भारत को अपनी उत्पादकता में वृद्धि करने के लिए तकनीकी विकास पर ध्यान देना चाहिए। सरकार को किसानों को उन्नत बीज, उर्वरक, और सिंचाई सुविधाएं प्रदान करनी चाहिए।
  • नवाचार को बढ़ावा: भारत को नवाचार को बढ़ावा देने के लिए अनुसंधान और विकास में निवेश करना चाहिए। सरकार को उद्यमियों को प्रोत्साहित करना चाहिए और उन्हें आवश्यक संसाधन प्रदान करने चाहिए।
  • कौशल विकास: भारत को अपने श्रमिकों को कुशल बनाने के लिए कौशल विकास पर ध्यान देना चाहिए। सरकार को प्रशिक्षण कार्यक्रम प्रदान करने चाहिए और युवाओं को तकनीकी शिक्षा प्रदान करनी चाहिए।
  • व्यापार और निवेश को बढ़ावा: भारत को व्यापार और निवेश को बढ़ावा देने के लिए अंतरराष्ट्रीय समझौतों पर हस्ताक्षर करने चाहिए। सरकार को विदेशी निवेशकों को प्रोत्साहित करना चाहिए और उन्हें आवश्यक सुविधाएं प्रदान करनी चाहिए।

इन कदमों से भारत अपनी उत्पादकता, नवाचार, कौशल, और व्यापार क्षमता में सुधार कर सकता है। इससे भारत वैश्विक प्रतिस्पर्द्धा का सामना करने में सक्षम होगा।

विशिष्ट रूप से, भारत को निम्नलिखित क्षेत्रों में ध्यान देने की आवश्यकता है:

  • कृषि: भारत को कृषि उत्पादन में वृद्धि करने के लिए तकनीकी विकास, सिंचाई सुविधाओं में सुधार, और बाजार पहुंच में सुधार पर ध्यान देना चाहिए।
  • उद्योग: भारत को उद्योग में उत्पादकता में वृद्धि करने के लिए अनुसंधान और विकास, नवाचार, और कौशल विकास पर ध्यान देना चाहिए।
  • सेवा क्षेत्र: भारत को सेवा क्षेत्र में उत्पादकता में वृद्धि करने के लिए प्रौद्योगिकी अपनाने, नवाचार, और कौशल विकास पर ध्यान देना चाहिए।

इन क्षेत्रों में सुधार से भारत वैश्विक प्रतिस्पर्द्धा का सामना करने में सक्षम होगा और अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत करेगा।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

1. भारतीय अर्थतंत्र में कषि का क्या महत्त्व है ? कषि की विशेषताओं पर प्रकाश डालें।

⇒ भारतीय अर्थतंत्र में कृषि का विशेष महत्त्व है। कृषि देश की आर्थिक वृद्धि में महत्त्वपूर्ण योगदान करता है और अनेक तरह के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से संबद्ध होता है। कृषि की कुछ महत्त्वपूर्ण विशेषताएं निम्नलिखित हैं:

  1. रोजगार का स्रोत: कृषि देश में बड़ी मात्रा में रोजगार प्रदान करता है, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में। यहां लोग कृषि से जुड़े विभिन्न कामों में रोजगार करते हैं, जैसे की खेती, पशुपालन, वाणिज्यिक कृषि, और अन्य संबंधित कार्य।
  2. खाद्य सुरक्षा: कृषि देश की खाद्य सुरक्षा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। खेती से उत्पादित अनाज, फल, सब्जियां, और अन्य खाद्य पदार्थों की आपूर्ति तथा उपलब्धता को सुनिश्चित करता है।
  3. आर्थिक योगदान: कृषि अन्य उद्योगों को भी प्रेरित करता है और उन्हें समर्थन प्रदान करता है। कृषि से प्राप्त उत्पादों का व्यापार, उद्योगों के लिए जल, ऊर्जा, और अन्य सामग्रियों की आपूर्ति करता है।
  4. जलवायु तथा प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण: सुस्त विकास में कृषि एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है क्योंकि यह प्राकृतिक संसाधनों को संरक्षित रखने और सुनिश्चित करने में मदद करता है।

कृषि भारतीय अर्थतंत्र की बुनियादी ताकतों में से एक है और यह देश के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

2. भारत में कृषि के विभिन्न प्रकारों का वर्णन करें।

⇒ भारत में कृषि के विभिन्न प्रकारों को निम्नलिखित आधारों पर वर्गीकृत किया जा सकता है:

1. जलवायु के आधार पर

  • खरीफ फसलें: खरीफ फसलें मानसून की वर्षा पर निर्भर करती हैं। इन फसलों को जून-जुलाई में बोया जाता है और अक्टूबर-नवंबर में काटा जाता है। खरीफ फसलों में धान, मक्का, ज्वार, बाजरा, और सोयाबीन शामिल हैं।
  • रबी फसलें: रबी फसलें शीतकालीन मौसम में उगाई जाती हैं। इन फसलों को अक्टूबर-नवंबर में बोया जाता है और मार्च-अप्रैल में काटा जाता है। रबी फसलों में गेहूं, जौ, मटर, मसूर, और सरसों शामिल हैं।
  • जायद फसलें: जायद फसलें गर्मियों के मौसम में उगाई जाती हैं। इन फसलों को मार्च-अप्रैल में बोया जाता है और जून-जुलाई में काटा जाता है। जायद फसलों में बाजरा, मक्का, और मूंगफली शामिल हैं।

2. जल आपूर्ति के आधार पर

  • बारानी खेती: बारानी खेती में सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। यह खेती वर्षा पर निर्भर करती है। बारानी खेती मुख्य रूप से भारत के सूखाग्रस्त क्षेत्रों में की जाती है।
  • सिंचित खेती: सिंचित खेती में सिंचाई की आवश्यकता होती है। सिंचाई का उपयोग करके खेतों में पानी की आपूर्ति की जाती है। सिंचित खेती मुख्य रूप से भारत के उपजाऊ क्षेत्रों में की जाती है।

3. फसलों के प्रकार के आधार पर

  • खाद्यान्न फसलें: खाद्यान्न फसलें मानव भोजन के लिए उगाई जाती हैं। इन फसलों में धान, गेहूं, चावल, मक्का, ज्वार, बाजरा, और सोयाबीन शामिल हैं।
  • नकदी फसलें: नकदी फसलें बाजार में बेची जाती हैं। इन फसलों में कपास, जूट, तंबाकू, चाय, कॉफी, और मूंगफली शामिल हैं।
  • औद्योगिक फसलें: औद्योगिक फसलें उद्योगों में उपयोग की जाती हैं। इन फसलों में कपास, पटसन, गन्ना, और तंबाकू शामिल हैं।
  • फूलों की खेती: फूलों की खेती सजावटी उद्देश्यों के लिए की जाती है। इन फसलों में गुलाब, चमेली, रजनीगंधा, और गेंदा शामिल हैं।
  • सब्जी उत्पादन: सब्जियों का उत्पादन मानव भोजन के लिए किया जाता है। सब्जियों में टमाटर, खीरा, बैंगन, आलू, और प्याज शामिल हैं।
  • फल उत्पादन: फलों का उत्पादन मानव भोजन के लिए किया जाता है। फलों में आम, केला, संतरा, सेब, और लीची शामिल हैं।

4. खेती के तरीकों के आधार पर

  • परंपरागत खेती: पारंपरिक खेती में आधुनिक तकनीकों का उपयोग नहीं किया जाता है। इस खेती में प्राचीन तरीकों का उपयोग किया जाता है।
  • आधुनिक खेती: आधुनिक खेती में आधुनिक तकनीकों का उपयोग किया जाता है। इस खेती में उन्नत बीज, उर्वरक, और सिंचाई सुविधाओं का उपयोग किया जाता है।

भारत में कृषि के विभिन्न प्रकारों में से प्रत्येक की अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं। भारत में कृषि की उत्पादकता में सुधार के लिए विभिन्न प्रकार की कृषि को बढ़ावा देने की आवश्यकता है।

3. भारतीय कृषि में उत्पादन को बढ़ाने के उपायों को सुझावें।

⇒ भारत कृषि प्रधान देश है और कृषि देश की अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण आधार है। भारतीय कृषि की उत्पादकता में वृद्धि के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:

  • उन्नत बीजों का उपयोग: उन्नत बीजों का उपयोग करके फसल की उपज में वृद्धि की जा सकती है। उन्नत बीजों में रोग प्रतिरोधक क्षमता अधिक होती है, जिससे फसलों को नुकसान से बचाया जा सकता है।
  • उर्वरकों का उचित उपयोग: उर्वरकों का उचित उपयोग करके भी फसल की उपज में वृद्धि की जा सकती है। उर्वरकों का उपयोग फसल की आवश्यकता के अनुसार किया जाना चाहिए।
  • सिंचाई सुविधाओं का विकास: सिंचाई सुविधाओं के विकास से सिंचित क्षेत्रों में फसल की उपज में वृद्धि की जा सकती है।
  • मशीनीकरण का उपयोग: मशीनीकरण का उपयोग करके खेती के कार्यों को आसानी से और कम समय में किया जा सकता है। इससे श्रम की लागत कम होती है और फसल की उपज में वृद्धि होती है।
  • कृषि अनुसंधान और विकास: कृषि अनुसंधान और विकास के द्वारा नई-नई तकनीकों का विकास किया जा सकता है, जिससे फसल की उपज में वृद्धि की जा सकती है।

इन उपायों के अलावा, कृषि में उत्पादन को बढ़ाने के लिए निम्नलिखित उपायों पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए:

  • भूमि सुधार: भूमि सुधार के द्वारा भूमि का अधिक कुशलता से उपयोग किया जा सकता है।
  • किसानों को प्रशिक्षण: किसानों को आधुनिक कृषि तकनीकों के बारे में प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।
  • फसल बीमा: फसल बीमा के द्वारा किसानों को फसलों के नुकसान से बचाया जा सकता है।
  • फसल विपणन: फसल विपणन के लिए उचित व्यवस्था की जानी चाहिए। इससे किसानों को उचित मूल्य प्राप्त हो सकेगा।

इन उपायों को अपनाकर भारत में कृषि की उत्पादकता में वृद्धि की जा सकती है और देश की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित की जा सकती है।

4. भारतीय कृषि पर भूमंडलीकरण के प्रभाव की व्याख्या करें।

⇒ भारतीय कृषि पर भूमंडलीकरण का प्रभाव व्यापक है और इसने कृषि क्षेत्र में कई प्रकार के परिणाम दिए हैं। भूमंडलीकरण के कुछ मुख्य प्रभाव निम्नलिखित हैं:

  1. भूमि का उपयोग बदलाव: भूमंडलीकरण ने कृषि क्षेत्र में भूमि के उपयोग में बदलाव लाया है। यह जमीन के उपयोग को और विशेषकर, खेती के लिए समर्थ जगहों को नष्ट करता है और नगरीयकरण या औद्योगिकीकरण के लिए इसे उपयोग में लाया जाता है।
  2. प्राकृतिक संसाधनों का नुकसान: भूमंडलीकरण ने प्राकृतिक संसाधनों जैसे की जल, वन्य जीवन, और मृदा को नुकसान पहुंचाया है। इससे वन्य जीवन की संख्या में कमी और जल संकट जैसी समस्याएं बढ़ गई हैं।
  3. कृषि उत्पादन में प्रभाव: भूमंडलीकरण ने कृषि उत्पादन पर भी प्रभाव डाला है। यह खेती के लिए उपयुक्त भूमि की कमी से यहाँ तक कि जलवायु परिवर्तन के कारण फसलों की प्रजातियों और उत्पादन में भी परिवर्तन लाता है।
  4. समाजिक प्रभाव: भूमंडलीकरण से जुड़ी समस्याएं जैसे की जमीन का अनुचित उपयोग, भूमि नापसंदी और अन्य समस्याएं समाजिक रूप से भी प्रभावित करती हैं।

इन प्रभावों के संबंध में समय-समय पर संशोधन और सुधार की आवश्यकता होती है ताकि समस्याओं का समाधान किया जा सके और कृषि क्षेत्र को संतुलित और स्थायी बनाया जा सके।

5. भारतीय कृषि पर वैश्वीकरण के प्रभावों का वर्णन करें।

⇒ वैश्वीकरण ने भारतीय कृषि पर कई तरह के प्रभाव डाले हैं। इन प्रभावों को सकारात्मक और नकारात्मक दोनों रूपों में देखा जा सकता है।

सकारात्मक प्रभाव

वैश्वीकरण के सकारात्मक प्रभावों में निम्नलिखित शामिल हैं:

  • कृषि उत्पादन में वृद्धि: वैश्वीकरण के कारण भारतीय कृषि में आधुनिक तकनीकों का उपयोग बढ़ रहा है। इससे कृषि उत्पादन में वृद्धि हो रही है।
  • कृषि उत्पादों के निर्यात में वृद्धि: वैश्वीकरण के कारण भारतीय कृषि उत्पादों को विदेशों में निर्यात करने के अवसर बढ़ रहे हैं। इससे किसानों की आय बढ़ रही है।
  • कृषि क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा में वृद्धि: वैश्वीकरण के कारण भारतीय कृषि क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है। इससे किसानों को अधिक उत्पादक बनने के लिए प्रेरित किया जा रहा है।

नकारात्मक प्रभाव

वैश्वीकरण के नकारात्मक प्रभावों में निम्नलिखित शामिल हैं:

  • कृषि क्षेत्र में आयात में वृद्धि: वैश्वीकरण के कारण भारतीय कृषि क्षेत्र में आयात में वृद्धि हो रही है। इससे किसानों को प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है।
  • किसानों की आय में असमानता: वैश्वीकरण के कारण किसानों की आय में असमानता बढ़ रही है। इससे छोटे किसानों को नुकसान हो रहा है।
  • कृषि पर्यावरण पर प्रभाव: वैश्वीकरण के कारण कृषि पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। इससे जल प्रदूषण, मृदा प्रदूषण, और जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याएं बढ़ रही हैं।

वैश्वीकरण के प्रभावों को कम करने के लिए सरकार को निम्नलिखित उपाय करने चाहिए:

  • किसानों को आधुनिक कृषि तकनीकों के बारे में प्रशिक्षण प्रदान करना चाहिए।
  • कृषि क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा को कम करने के लिए सरकार को उचित उपाय करने चाहिए।
  • छोटे किसानों की सहायता के लिए सरकार को विशेष योजनाएं बनानी चाहिए।
  • कृषि पर्यावरण पर प्रभाव को कम करने के लिए सरकार को उचित उपाय करने चाहिए।

इन उपायों को अपनाकर भारतीय कृषि को वैश्वीकरण के प्रभावों से बचाया जा सकता है।

6. शुष्क भूमि कृषि की विशेषताओं का वर्णन कर।

⇒ शुष्क भूमि कृषि वह है जो कम नमी वाले क्षेत्रों में की जाती है। इन क्षेत्रों में वर्षा की मात्रा 75 सेंटीमीटर से कम होती है। शुष्क भूमि कृषि की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं:

  • नमी की कमी: शुष्क भूमि कृषि में सबसे बड़ी चुनौती नमी की कमी है। किसान इस चुनौती का सामना करने के लिए विभिन्न तरीकों का उपयोग करते हैं, जैसे कि सिंचाई, फसल चक्रण, और मृदा संरक्षण।
  • एकल फसल पद्धति: शुष्क भूमि कृषि में एकल फसल पद्धति का उपयोग किया जाता है। इससे मिट्टी की उर्वरता को बनाए रखने में मदद मिलती है।
  • मोटे अनाज: शुष्क भूमि कृषि में मोटे अनाज जैसे कि बाजरा, ज्वार, और मक्का की खेती की जाती है। ये फसलें कम पानी में उग सकती हैं।
  • गहरी जुताई: शुष्क भूमि कृषि में गहरी जुताई की जाती है। इससे मिट्टी में नमी संरक्षित होती है।
  • मृदा संरक्षण: शुष्क भूमि कृषि में मृदा संरक्षण के लिए विभिन्न तरीकों का उपयोग किया जाता है, जैसे कि बाँध, चेक डैम, और चरागाह प्रबंधन।

शुष्क भूमि कृषि के लिए निम्नलिखित चुनौतियाँ हैं:

  • सूखा: सूखा शुष्क भूमि कृषि के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। सूखे के कारण फसलों को नुकसान हो सकता है और किसानों की आय प्रभावित हो सकती है।
  • मृदा अपरदन: शुष्क भूमि में मृदा अपरदन की समस्या अधिक होती है। इससे मिट्टी की उर्वरता कम होती है और कृषि उत्पादन प्रभावित होता है।
  • जलवायु परिवर्तन: जलवायु परिवर्तन के कारण शुष्क भूमि कृषि को और अधिक चुनौतीपूर्ण बना रहा है। जलवायु परिवर्तन के कारण सूखे की अवधि और तीव्रता बढ़ रही है।

शुष्क भूमि कृषि को अधिक उत्पादक बनाने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:

  • सिंचाई सुविधाओं का विकास: सिंचाई सुविधाओं के विकास से शुष्क भूमि कृषि में फसल की उपज में वृद्धि की जा सकती है।
  • कृषि अनुसंधान और विकास: कृषि अनुसंधान और विकास के द्वारा शुष्क भूमि के लिए अनुकूल फसलों और तकनीकों का विकास किया जा सकता है।
  • किसानों को प्रशिक्षण: किसानों को शुष्क भूमि कृषि के लिए आवश्यक तकनीकों के बारे में प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।

इन उपायों को अपनाकर शुष्क भूमि कृषि को अधिक उत्पादक और टिकाऊ बनाया जा सकता है।

7. चावल की फसल के लिए उपयुक्त भौगोलिक दशाओं का उल्लेख करें।

⇒ चावल की फसल के लिए निम्नलिखित भौगोलिक दशाएँ उपयुक्त होती हैं:

  • जलवायु: चावल की फसल के लिए गर्म और आर्द्र जलवायु की आवश्यकता होती है। चावल के पौधों को विकास के लिए 20 से 37 डिग्री सेल्सियस के तापमान की आवश्यकता होती है। चावल की फसल के लिए वर्षा की मात्रा 100 से 200 सेंटीमीटर के बीच होनी चाहिए।
  • मृदा: चावल की फसल के लिए दोमट या मटियार मिट्टी उपयुक्त होती है। चावल की फसल की जड़ों को विकास के लिए पानी और ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है। दोमट या मटियार मिट्टी इन दोनों आवश्यकताओं को पूरा करती है।
  • भूमि की उर्वरता: चावल की फसल के लिए उर्वर मिट्टी की आवश्यकता होती है। चावल की फसल को विकास के लिए पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है। उर्वर मिट्टी में इन पोषक तत्वों की पर्याप्त मात्रा होती है।

चावल की फसल के लिए उपयुक्त भौगोलिक दशाएँ निम्नलिखित क्षेत्रों में पाई जाती हैं:

  • दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया: भारत, चीन, इंडोनेशिया, थाईलैंड, वियतनाम, और फिलीपींस आदि।
  • अफ्रीका: नाइजीरिया, घाना, कांगो, और इथियोपिया आदि।
  • दक्षिण अमेरिका: ब्राजील, पेरू, और बोलिविया आदि।

भारत में चावल की फसल के लिए उपयुक्त क्षेत्र निम्नलिखित हैं:

  • उत्तरी भारत: पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, और बिहार।
  • पूर्वी भारत: पश्चिम बंगाल, असम, और ओडिशा।
  • दक्षिण भारत: आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, और केरल।

इन क्षेत्रों में चावल की फसल बड़े पैमाने पर की जाती है।

8. गेहँ उत्पादन हेतु मुख्य भौगोलिक दशाओं का उल्लेख करते हए भारत के गेहूँ उत्पादक क्षेत्रों के नाम लिखें।

⇒ गेहँ उत्पादन हेतु मुख्य भौगोलिक दशाएँ निम्नलिखित हैं:

  • जलवायु: गेहँ की फसल के लिए ठंडी और शुष्क जलवायु की आवश्यकता होती है। गेहँ के पौधों को विकास के लिए 10 से 25 डिग्री सेल्सियस के तापमान की आवश्यकता होती है। गेहँ की फसल के लिए वर्षा की मात्रा 50 से 100 सेंटीमीटर के बीच होनी चाहिए।
  • मृदा: गेहँ की फसल के लिए दोमट या बलुई दोमट मिट्टी उपयुक्त होती है। गेहँ की फसल की जड़ों को विकास के लिए पानी और ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है। दोमट या बलुई दोमट मिट्टी इन दोनों आवश्यकताओं को पूरा करती है।
  • भूमि की उर्वरता: गेहँ की फसल के लिए उर्वर मिट्टी की आवश्यकता होती है। गेहँ की फसल को विकास के लिए पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है। उर्वर मिट्टी में इन पोषक तत्वों की पर्याप्त मात्रा होती है।

भारत में गेहँ उत्पादन हेतु उपयुक्त क्षेत्र निम्नलिखित हैं:

  • उत्तरी भारत: पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, और राजस्थान।
  • पश्चिम भारत: मध्य प्रदेश, गुजरात, और महाराष्ट्र।
  • दक्षिण भारत: आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, और तमिलनाडु।

इन क्षेत्रों में गेहँ की फसल बड़े पैमाने पर की जाती है।

भारत के प्रमुख गेहूँ उत्पादक राज्य:

  • पंजाब
  • हरियाणा
  • उत्तर प्रदेश
  • राजस्थान
  • मध्य प्रदेश
  • गुजरात
  • महाराष्ट्र
  • आंध्र प्रदेश
  • कर्नाटक
  • तमिलनाडु

इन राज्यों में गेहँ का उत्पादन देश के कुल उत्पादन का लगभग 80% है।

9 .चाय उत्पादन के प्रमुख भौगोलिक दशाओं का वर्णन करें। भारत के चाय उत्पादक देशों का उल्लेख करें।

⇒ चाय उत्पादन के प्रमुख भौगोलिक दशाएँ निम्नलिखित हैं:

  • जलवायु: चाय उत्पादन के लिए गर्म और आर्द्र जलवायु की आवश्यकता होती है। चाय के पौधों को विकास के लिए 15 से 30 डिग्री सेल्सियस के तापमान की आवश्यकता होती है। चाय उत्पादन के लिए वर्षा की मात्रा 150 से 200 सेंटीमीटर के बीच होनी चाहिए।
  • मृदा: चाय उत्पादन के लिए लेटेराइट मिट्टी उपयुक्त होती है। लेटेराइट मिट्टी में कार्बनिक पदार्थों की मात्रा अधिक होती है, जो चाय के पौधों के लिए आवश्यक होती है।
  • भूमि की उतार-चढ़ाव: चाय के पौधों को विकास के लिए ढालू भूमि की आवश्यकता होती है। ढालू भूमि से वर्षा का जल तेजी से बह जाता है, जिससे चाय के पौधों को नुकसान नहीं होता है।

चाय उत्पादन के लिए उपयुक्त भौगोलिक दशाएँ निम्नलिखित क्षेत्रों में पाई जाती हैं:

  • दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया: भारत, चीन, श्रीलंका, इंडोनेशिया, थाईलैंड, वियतनाम, और फिलीपींस आदि।
  • अफ्रीका: केन्या, नाइजीरिया, तंजानिया, और दक्षिण अफ्रीका आदि।
  • दक्षिण अमेरिका: ब्राजील, अर्जेंटीना, और कोलंबिया आदि।

भारत में चाय उत्पादन के प्रमुख क्षेत्र निम्नलिखित हैं:

  • असम: भारत में चाय उत्पादन का लगभग 50% हिस्सा असम राज्य से आता है। असम में चाय उत्पादन के लिए उपयुक्त जलवायु, मृदा, और भूमि की उतार-चढ़ाव मिलती है।
  • पश्चिम बंगाल: पश्चिम बंगाल में चाय उत्पादन का लगभग 25% हिस्सा आता है। यहां भी चाय उत्पादन के लिए उपयुक्त भौगोलिक दशाएँ पाई जाती हैं।
  • तमिलनाडु: तमिलनाडु में चाय उत्पादन का लगभग 15% हिस्सा आता है। यहां भी चाय उत्पादन के लिए उपयुक्त भौगोलिक दशाएँ पाई जाती हैं।

इन क्षेत्रों में चाय उत्पादन बड़े पैमाने पर किया जाता है। भारत विश्व में चाय उत्पादन में तीसरा स्थान रखता है।

10. चाय उत्पादन के प्रमुख भौगोलिक दशाओं का वर्णन करें। भारत में चाय उत्पादक तीन राज्यों के नाम लिखें।

⇒ चाय उत्पादन के प्रमुख भौगोलिक दशाओं में मौसम, जलवायु, भूमि की उपयुक्तता, और ऊर्जा स्रोतों का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। चाय की उत्पत्ति के लिए अच्छी बरसात, धूप, तापमान, उच्च और निचले स्तरों की मात्रा, और अच्छी मिट्टी की आवश्यकता होती है।

भारत में चाय उत्पादक तीन राज्यों के नाम हैं: असम, वेस्ट बंगाल, और तमिलनाडु। ये राज्य अपने उपयुक्त भौगोलिक शर्तों, जलवायु, और मौसम के कारण चाय उत्पादन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

असम, उत्तर-पूर्व भारत में स्थित है, जहां की विशेष जलवायु और अच्छी बरसात चाय की उत्पत्ति के लिए उपयुक्त मानी जाती है। यहां की मिट्टी भी चाय के लिए उत्तम मानी जाती है।

वेस्ट बंगाल, भारत के पश्चिमी भाग में स्थित है, और यहां का मौसम और जलवायु भी चाय की खेती के लिए उपयुक्त होता है।

तमिलनाडु, दक्षिण भारत का एक राज्य है और यहां की मिट्टी, जलवायु और धूप चाय की खेती के लिए उपयुक्त होती है।

इन राज्यों में चाय की खेती भारतीय अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है और चाय उत्पादन देश की अर्थव्यवस्था में एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है।

11. मकई (उत्पादन) हेतु मुख्य भौगोलिक दशाओं का वर्णन करें।

⇒ मकई उत्पादन हेतु मुख्य भौगोलिक दशाएँ निम्नलिखित हैं:

  • जलवायु: मकई उत्पादन के लिए गर्म और आर्द्र जलवायु की आवश्यकता होती है। मकई के पौधों को विकास के लिए 20 से 35 डिग्री सेल्सियस के तापमान की आवश्यकता होती है। मकई उत्पादन के लिए वर्षा की मात्रा 50 से 100 सेंटीमीटर के बीच होनी चाहिए।
  • मृदा: मकई उत्पादन के लिए दोमट या बलुई दोमट मिट्टी उपयुक्त होती है। मकई की फसल की जड़ों को विकास के लिए पानी और ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है। दोमट या बलुई दोमट मिट्टी इन दोनों आवश्यकताओं को पूरा करती है।
  • भूमि की उर्वरता: मकई उत्पादन के लिए उर्वर मिट्टी की आवश्यकता होती है। मकई की फसल को विकास के लिए पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है। उर्वर मिट्टी में इन पोषक तत्वों की पर्याप्त मात्रा होती है।

मकई उत्पादन के लिए उपयुक्त भौगोलिक दशाएँ निम्नलिखित क्षेत्रों में पाई जाती हैं:

  • उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्र: भारत, चीन, संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्राजील, और मेक्सिको आदि।
  • शीतोष्ण क्षेत्र: कनाडा, रूस, और यूरोप आदि।

भारत में मकई उत्पादन के प्रमुख क्षेत्र निम्नलिखित हैं:

  • उत्तर भारत: पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, और राजस्थान।
  • दक्षिण भारत: कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, और तमिलनाडु।

इन क्षेत्रों में मकई उत्पादन बड़े पैमाने पर किया जाता है। भारत विश्व में मकई उत्पादन में आठवां स्थान रखता है।

मकई उत्पादन के लिए निम्नलिखित चुनौतियाँ भी हैं:

  • अधिक वर्षा: अधिक वर्षा से मकई की फसल में रोग और कीटों का प्रकोप बढ़ सकता है।
  • कम वर्षा: कम वर्षा से मकई की फसल में सूखे का खतरा बढ़ सकता है।
  • भूमि की उर्वरता में कमी: लगातार मकई की खेती से भूमि की उर्वरता में कमी आ सकती है।

इन चुनौतियों को दूर करने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:

  • सिंचाई सुविधाओं का विकास: सिंचाई सुविधाओं के विकास से कम वर्षा वाले क्षेत्रों में मकई उत्पादन में वृद्धि की जा सकती है।
  • रोग और कीटों से बचाव: रोग और कीटों से बचाव के लिए उचित उपाय किए जाने चाहिए।
  • फसल चक्रण: फसल चक्रण के द्वारा भूमि की उर्वरता को बनाए रखा जा सकता है।

12. कपास की खेती के लिए उपयुक्त दशाओं और उत्पादक क्षेत्रों का वर्णन करें।

⇒ कपास की खेती के लिए निम्नलिखित भौगोलिक दशाएँ उपयुक्त होती हैं:

  • जलवायु: कपास की खेती के लिए गर्म और आर्द्र जलवायु की आवश्यकता होती है। कपास के पौधों को विकास के लिए 20 से 40 डिग्री सेल्सियस के तापमान की आवश्यकता होती है। कपास की खेती के लिए वर्षा की मात्रा 50 से 100 सेंटीमीटर के बीच होनी चाहिए।
  • मृदा: कपास की खेती के लिए दोमट या बलुई दोमट मिट्टी उपयुक्त होती है। कपास की फसल की जड़ों को विकास के लिए पानी और ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है। दोमट या बलुई दोमट मिट्टी इन दोनों आवश्यकताओं को पूरा करती है।
  • भूमि की उर्वरता: कपास की खेती के लिए उर्वर मिट्टी की आवश्यकता होती है। कपास की फसल को विकास के लिए पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है। उर्वर मिट्टी में इन पोषक तत्वों की पर्याप्त मात्रा होती है।

कपास की खेती के लिए उपयुक्त भौगोलिक दशाएँ निम्नलिखित क्षेत्रों में पाई जाती हैं:

  • उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्र: भारत, चीन, संयुक्त राज्य अमेरिका, पाकिस्तान, ब्राजील, और मेक्सिको आदि।

भारत में कपास की खेती के प्रमुख क्षेत्र निम्नलिखित हैं:

  • गुजरात: भारत में कपास उत्पादन का लगभग 30% हिस्सा गुजरात राज्य से आता है। गुजरात में कपास उत्पादन के लिए उपयुक्त जलवायु, मृदा, और भूमि की उतार-चढ़ाव मिलती है।
  • महाराष्ट्र: महाराष्ट्र में कपास उत्पादन का लगभग 25% हिस्सा आता है। यहां भी कपास उत्पादन के लिए उपयुक्त भौगोलिक दशाएँ पाई जाती हैं।
  • आंध्र प्रदेश: आंध्र प्रदेश में कपास उत्पादन का लगभग 20% हिस्सा आता है। यहां भी कपास उत्पादन के लिए उपयुक्त भौगोलिक दशाएँ पाई जाती हैं।
  • पंजाब: पंजाब में कपास उत्पादन का लगभग 10% हिस्सा आता है। यहां भी कपास उत्पादन के लिए उपयुक्त भौगोलिक दशाएँ पाई जाती हैं।

इन क्षेत्रों में कपास उत्पादन बड़े पैमाने पर किया जाता है। भारत विश्व में कपास उत्पादन में चौथा स्थान रखता है।

कपास उत्पादन के लिए निम्नलिखित चुनौतियाँ भी हैं:

  • कीट और रोग: कपास की फसल में कीट और रोगों का प्रकोप एक प्रमुख समस्या है।
  • भूमि की उर्वरता में कमी: लगातार कपास की खेती से भूमि की उर्वरता में कमी आ सकती है।

इन चुनौतियों को दूर करने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:

  • कीट और रोगों से बचाव: कीट और रोगों से बचाव के लिए उचित उपाय किए जाने चाहिए।
  • फसल चक्रण: फसल चक्रण के द्वारा भूमि की उर्वरता को बनाए रखा जा सकता है।

कपास की खेती एक लाभदायक व्यवसाय है। कपास का प्रयोग वस्त्र, धागे, और अन्य उत्पादों के निर्माण में किया जाता है।

14. मत्स्य पालन के आर्थिक महत्त्व को समझा।

⇒ मत्स्य पालन का आर्थिक महत्त्व निम्नलिखित है:

  • खाद्य सुरक्षा: मछली एक महत्वपूर्ण पोषक खाद्य है। यह प्रोटीन, विटामिन, और खनिज का एक अच्छा स्रोत है। मत्स्य पालन से लोगों को पौष्टिक भोजन उपलब्ध हो पाता है।
  • रोजगार सृजन: मत्स्य पालन एक रोजगार सृजन करने वाला उद्योग है। यह लाखों लोगों को आजीविका प्रदान करता है।
  • विदेशी मुद्रा अर्जन: मत्स्य पालन से विदेशी मुद्रा अर्जित होती है। भारत दुनिया के शीर्ष मछली उत्पादकों में से एक है। भारत से मछली का निर्यात किया जाता है, जिससे विदेशी मुद्रा अर्जित होती है।
  • पर्यावरण संरक्षण: मत्स्य पालन से पर्यावरण संरक्षण में मदद मिलती है। मत्स्य पालन से जलीय पारिस्थितिकी तंत्र को संतुलित रखा जा सकता है।

मत्स्य पालन का भारत की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान है। भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा मछली उत्पादक और दूसरा सबसे बड़ा जलीय कृषि उत्पादक देश है। मत्स्य पालन से भारत को प्रतिवर्ष लगभग 1 लाख करोड़ रुपये की आय होती है। मत्स्य पालन से लाखों लोगों को रोजगार मिलता है। मत्स्य पालन से भारत को विदेशी मुद्रा भी अर्जित होती है।

मत्स्य पालन के आर्थिक महत्त्व को बढ़ाने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:

  • मत्स्य पालन के क्षेत्रों में बुनियादी ढांचे का विकास: मत्स्य पालन के क्षेत्रों में सड़कों, बिजली, और सिंचाई जैसी बुनियादी सुविधाओं का विकास किया जाना चाहिए।
  • मत्स्य पालन के लिए अनुसंधान और विकास: मत्स्य पालन के लिए अनुसंधान और विकास को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। इससे मछली उत्पादन में वृद्धि होगी।
  • मछली पालन को प्रोत्साहन: सरकार को मछली पालन को प्रोत्साहन देने के लिए नीतियों और योजनाओं को विकसित करना चाहिए।

इन उपायों से मत्स्य पालन के आर्थिक महत्त्व को और अधिक बढ़ाया जा सकता है।

15. भारत की प्रमुख फसलों का वर्णन करें।

⇒ भारत की प्रमुख फसलों को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है:

  • खाद्यान्न फसलें: इन फसलों का उपयोग भोजन के रूप में किया जाता है। भारत की प्रमुख खाद्यान्न फसलें निम्नलिखित हैं:

    • धान: भारत में धान की खेती सबसे अधिक की जाती है। भारत दुनिया में धान का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है। धान का उपयोग चावल बनाने के लिए किया जाता है।
    • गेहूं: गेहूं की खेती भारत में धान के बाद सबसे अधिक की जाती है। भारत दुनिया में गेहूं का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है। गेहूं का उपयोग रोटी, बिस्कुट, और अन्य खाद्य पदार्थों बनाने के लिए किया जाता है।
    • बाजरा: बाजरा की खेती भारत में विशेष रूप से सूखे क्षेत्रों में की जाती है। भारत दुनिया में बाजरा का सबसे बड़ा उत्पादक देश है। बाजरा का उपयोग रोटी, दलिया, और अन्य खाद्य पदार्थों बनाने के लिए किया जाता है।
    • ज्वार: ज्वार की खेती भारत में विशेष रूप से सूखे क्षेत्रों में की जाती है। भारत दुनिया में ज्वार का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है। ज्वार का उपयोग रोटी, दलिया, और अन्य खाद्य पदार्थों बनाने के लिए किया जाता है।
    • मक्का: मक्का की खेती भारत में विशेष रूप से उत्तरी और पश्चिमी भारत में की जाती है। भारत दुनिया में मक्का का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है। मक्का का उपयोग अनाज, स्टार्च, और अन्य खाद्य पदार्थों बनाने के लिए किया जाता है।
  • दलहन फसलें: इन फसलों से प्रोटीन प्राप्त होता है। भारत की प्रमुख दलहन फसलें निम्नलिखित हैं:

    • चना: चना की खेती भारत में सबसे अधिक की जाती है। भारत दुनिया में चना का सबसे बड़ा उत्पादक देश है। चने का उपयोग दाल, आटा, और अन्य खाद्य पदार्थों बनाने के लिए किया जाता है।
    • मूंग: मूंग की खेती भारत में चना के बाद सबसे अधिक की जाती है। भारत दुनिया में मूंग का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है। मूंग का उपयोग दाल, आटा, और अन्य खाद्य पदार्थों बनाने के लिए किया जाता है।
    • उड़द: उड़द की खेती भारत में विशेष रूप से दक्षिण भारत में की जाती है। भारत दुनिया में उड़द का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है। उड़द का उपयोग दाल, आटा, और अन्य खाद्य पदार्थों बनाने के लिए किया जाता है।
    • सोयाबीन: सोयाबीन की खेती भारत में विशेष रूप से उत्तर भारत में की जाती है। भारत दुनिया में सोयाबीन का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है। सोयाबीन का उपयोग दाल, तेल, और अन्य खाद्य पदार्थों बनाने के लिए किया जाता है।
  • तिलहन फसलें: इन फसलों से तेल प्राप्त होता है। भारत की प्रमुख तिलहन फसलें निम्नलिखित हैं:

    • सरसों: सरसों की खेती भारत में सबसे अधिक की जाती है। भारत दुनिया में सरसों का सबसे बड़ा उत्पादक देश है। सरसों का उपयोग तेल, मसालों, और अन्य खाद्य पदार्थों बनाने के लिए किया जाता है।
    • मूंगफली: मूंगफली की खेती भारत में विशेष रूप से दक्षिण भारत में की जाती है। भारत दुनिया में मूंगफली का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है। मूंगफली का उपयोग तेल, मसालों, और अन्य खाद्य पदार्थों बनाने के लिए किया जाता है।
    • सूरजमुखी: सूरजमुखी की खेती भारत में विशेष रूप से उत्तर भारत में की जाती है। भारत दुनिया में सूरजमुखी का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है। सूरजमुखी का उपयोग तेल, मसालों, और अन्य खाद्य पदार्थों बनाने के लिए किया जाता है।
    • नारियल: नारियल की खेती भारत में विशेष रूप से दक्षिण भारत में की जाती है। भारत दुनिया में नारियल का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है। नारियल का उपयोग तेल, दूध, और अन्य खाद्य पदार्थों बनाने के लिए किया जाता है।

इनके अलावा, भारत में अन्य प्रमुख फसलों में चाय, कॉफी, रबड़, गन्ना, कपास, और अन्य फसलें शामिल हैं।

16. वर्षा जल की मानव जीवन में क्या भूमिका है? इसके संग्रहण एवं पुनः चक्रण की विधियों का उल्लेख करें।

⇒ वर्षा जल की मानव जीवन में निम्नलिखित भूमिकाएँ हैं:

  • पेयजल: वर्षा जल एक स्वच्छ और सुरक्षित पेयजल का स्रोत है। यह विशेष रूप से उन क्षेत्रों में महत्वपूर्ण है जहाँ जल संसाधन सीमित हैं।
  • सिंचाई: वर्षा जल का उपयोग सिंचाई के लिए किया जा सकता है। इससे फसलों की उत्पादकता में वृद्धि होती है।
  • औद्योगिक उपयोग: वर्षा जल का उपयोग औद्योगिक प्रक्रियाओं में किया जा सकता है। इससे पानी की बचत होती है और पर्यावरण को भी लाभ होता है।
  • सार्वजनिक उपयोग: वर्षा जल का उपयोग सार्वजनिक उपयोगों जैसे कि साफ-सफाई, वाहन धोने, और अन्य उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है।
  • पर्यावरण संरक्षण: वर्षा जल का संग्रहण और पुनः उपयोग से जल संसाधनों का संरक्षण होता है। इससे बाढ़ और सूखे जैसी आपदाओं के जोखिम को भी कम किया जा सकता है।

वर्षा जल के संग्रहण एवं पुनः चक्रण की निम्नलिखित विधियाँ हैं:

  • छत पर वर्षा जल संग्रहण: यह वर्षा जल संग्रहण की सबसे आम विधि है। इसमें छत पर एकत्रित होने वाले वर्षा जल को एक टैंक या जलाशय में संग्रहित किया जाता है।
  • भूमिगत जल संग्रहण: इस विधि में वर्षा जल को भूमिगत जलाशयों में संग्रहित किया जाता है। यह विधि उन क्षेत्रों में अधिक उपयुक्त है जहाँ भूमिगत जल का स्तर अपेक्षाकृत कम है।
  • पानी की टंकियों का उपयोग: वर्षा जल को पानी की टंकियों में संग्रहित किया जा सकता है। यह विधि उन क्षेत्रों में अधिक उपयुक्त है जहाँ वर्षा की मात्रा कम होती है।

वर्षा जल के संग्रहण एवं पुनः चक्रण से निम्नलिखित लाभ होते हैं:

  • पानी की बचत: इससे ताजे जल संसाधनों का संरक्षण होता है।
  • पर्यावरण संरक्षण: इससे जल प्रदूषण को कम किया जा सकता है।
  • आर्थिक लाभ: इससे जल पर होने वाले खर्च में कमी आती है।

भारत में वर्षा जल के संग्रहण एवं पुनः चक्रण को बढ़ावा देने के लिए सरकार द्वारा कई योजनाएँ चलाई जा रही हैं।

17. भारतीय अर्थव्यवस्था में पशुपालन के महत्त्व को समझावें।

⇒ भारतीय अर्थव्यवस्था में पशुपालन बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। पहली बात यह है कि यह ग्रामीण जनसंख्या के बहुत बड़े हिस्से के लिए जीविका का महत्त्वपूर्ण स्रोत है। कई किसान और ग्रामीण समुदाय पशुपालन पर अपनी आय, जीवनाधार और रोजगार के रूप में निर्भर करते हैं।

इसके अलावा, पशुपालन खाद्य उत्पादों, मांस और चमड़े जैसे अन्य उपउत्पादों के उत्पादन के माध्यम से कृषि क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान देता है। भारत वैश्विक रूप से सबसे बड़ा दूध उत्पादक देशों में से एक है, और यह क्षेत्र जनसंख्या की पोषण आवश्यकताओं को पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

पशुओं को यहां एक मूल्यवान संपत्ति और धन सृजन का स्रोत भी माना जाता है। वे बीमा की तरह काम करते हैं, जो फसल की विफलता या वित्तीय कठिनाइयों के समय में एक सुरक्षा नेट प्रदान करते हैं। पशु बेचे जा सकते हैं या ऋण प्राप्ति के लिए गिरवी के रूप में इस्तेमाल किए जा सकते हैं, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में वित्तीय स्थिरता में मदद मिलती है।

इसके अलावा, पशुपालन सतत कृषि प्रथाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। पशुओं से आयुर्वैज्ञानिक खाद्य उत्पादन में मदद मिलती है, जो मिट्टी की उर्वरता को बढ़ावा देती है और बेहतर फसलों की उत्पत्ति को प्रोत्साहित करती है। वे कृषि जैव विविधता के संरक्षण में भी मदद करते हैं, क्योंकि कुछ स्थानीय प्रजातियां पशुपालन क्षेत्र में अनुकूल और स्थानीय वातावरणों के लिए अच्छी तरह से अनुकूलित होती हैं और विशेष आनुवंशिक गुण धारण करती हैं।

सारांश में, भारत में पशुपालन सिर्फ पशुओं की पालना नहीं है; यह एक बहुपक्षीय क्षेत्र है जो कृषि, अर्थव्यवस्था, जीविकाओं और पर्यावरणीय दृष्टिकोण से जुड़ा है, जो देश की अर्थव्यवस्था और ग्रामीण विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

18. भारत के सीमेंट उद्योग का वर्णन करें।

⇒ भारत का सीमेंट उद्योग विश्व का दूसरा सबसे बड़ा सीमेंट उत्पादक है। भारत में सीमेंट उद्योग का विकास 19वीं शताब्दी में हुआ। 1855 में भारत में पहला सीमेंट कारखाना स्थापित किया गया था।

भारत में सीमेंट उद्योग का विकास निम्नलिखित कारकों से प्रभावित हुआ है:

  • आर्थिक विकास: भारत में आर्थिक विकास के साथ-साथ निर्माण कार्यों में वृद्धि हुई है। इससे सीमेंट की मांग में वृद्धि हुई है।
  • सरकार की नीतियों: सरकार ने सीमेंट उद्योग के विकास को बढ़ावा देने के लिए कई नीतियों और योजनाओं को लागू किया है।
  • तकनीकी विकास: सीमेंट उद्योग में तकनीकी विकास ने उत्पादन लागत को कम करने और उत्पादकता में वृद्धि करने में मदद की है।

भारत में सीमेंट उद्योग के प्रमुख उत्पादक राज्य निम्नलिखित हैं:

  • मध्य प्रदेश: मध्य प्रदेश भारत का सबसे बड़ा सीमेंट उत्पादक राज्य है। यह देश के कुल सीमेंट उत्पादन का लगभग 30% हिस्सा पैदा करता है।
  • गुजरात: गुजरात भारत का दूसरा सबसे बड़ा सीमेंट उत्पादक राज्य है। यह देश के कुल सीमेंट उत्पादन का लगभग 25% हिस्सा पैदा करता है।
  • आंध्र प्रदेश: आंध्र प्रदेश भारत का तीसरा सबसे बड़ा सीमेंट उत्पादक राज्य है। यह देश के कुल सीमेंट उत्पादन का लगभग 20% हिस्सा पैदा करता है।

भारत में सीमेंट उद्योग के सामने निम्नलिखित चुनौतियाँ हैं:

  • पर्यावरण प्रदूषण: सीमेंट उद्योग पर्यावरण प्रदूषण का एक प्रमुख स्रोत है। इससे वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, और ध्वनि प्रदूषण होता है।
  • ऊर्जा की बढ़ती लागत: सीमेंट उद्योग ऊर्जा की एक बड़ी खपत करता है। ऊर्जा की बढ़ती लागत से सीमेंट उद्योग की लागत में वृद्धि होती है।
  • कच्चे माल की कमी: सीमेंट उद्योग के लिए आवश्यक कच्चे माल, जैसे कि चूना पत्थर, सिलिका, और एल्यूमिना, की कमी एक प्रमुख समस्या है।

भारत सरकार सीमेंट उद्योग के सामने आने वाली इन चुनौतियों को दूर करने के लिए कई उपाय कर रही है। सरकार ने सीमेंट उद्योग में ऊर्जा दक्षता बढ़ाने के लिए कई योजनाएँ शुरू की हैं। सरकार ने सीमेंट उद्योग के लिए कच्चे माल के आयात को प्रोत्साहित करने के लिए भी कई उपाय किए हैं।

भारत का सीमेंट उद्योग भविष्य में भी तेजी से बढ़ने की संभावना है। भारत में आर्थिक विकास और निर्माण कार्यों में वृद्धि से सीमेंट की मांग में वृद्धि होने की उम्मीद है।

19. कृषि उत्पाद में वृद्धि सुनिश्चित करने के लिए सरकार द्वारा किये गये उपायों को लिखें।

⇒ भारत एक कृषि प्रधान देश है और कृषि अर्थव्यवस्था में इसका महत्वपूर्ण योगदान है। कृषि उत्पादन में वृद्धि सुनिश्चित करने के लिए सरकार द्वारा निम्नलिखित उपाय किए गए हैं:

  • प्रौद्योगिकी विकास: सरकार ने कृषि में प्रौद्योगिकी विकास को बढ़ावा देने के लिए कई कार्यक्रम शुरू किए हैं। इन कार्यक्रमों के तहत किसानों को उन्नत बीज, उर्वरक, और कृषि यंत्रों की उपलब्धता कराई जा रही है।
  • भूमि सुधार: सरकार ने भूमि सुधार के लिए कई कानून बनाए हैं। इन कानूनों के तहत भूमि के समान वितरण और भूमि के अधिकतम उपयोग को बढ़ावा दिया जा रहा है।
  • सिंचाई सुविधाओं का विकास: सरकार ने सिंचाई सुविधाओं के विकास के लिए कई योजनाएँ चलाई हैं। इन योजनाओं के तहत नहरों, बांधों, और कुओं का निर्माण किया जा रहा है।
  • फसल बीमा योजना: सरकार ने फसल बीमा योजना शुरू की है। इस योजना के तहत किसानों को प्राकृतिक आपदाओं से हुए नुकसान के लिए बीमा कवर मिलता है।
  • किसानों को आर्थिक सहायता: सरकार किसानों को आर्थिक सहायता प्रदान करती है। इस सहायता में बीज, उर्वरक, और कृषि यंत्रों पर सब्सिडी, कृषि ऋण, और प्राकृतिक आपदाओं से हुए नुकसान की भरपाई शामिल है।

इन उपायों के परिणामस्वरूप भारत में कृषि उत्पादन में महत्वपूर्ण वृद्धि हुई है। भारत अब दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा खाद्यान्न उत्पादक देश है।

इन उपायों के अतिरिक्त, सरकार कृषि उत्पादन में वृद्धि सुनिश्चित करने के लिए निम्नलिखित उपाय भी कर रही है:

  • किसानों को कृषि नवाचारों के बारे में जागरूक करना।
  • किसानों को कृषि बाजारों से जोड़ना।
  • किसानों को कृषि उत्पादों के मूल्य में वृद्धि के लिए प्रोत्साहित करना।

इन उपायों से भारत में कृषि उत्पादन में और अधिक वृद्धि की उम्मीद है।

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