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1. संसाधनों के विकास में ‘सतत् विकास’ की अवधारणा की व्याख्या करें।
संसाधनों के विकास में ‘सतत् विकास’ की अवधारणा का अर्थ है वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं को पूरा करते हुए भावी पीढ़ियों की आवश्यकताओं को भी ध्यान में रखना। सतत विकास के लिए आवश्यक है कि संसाधनों का उपयोग सोच-समझकर और अनुशासित तरीके से किया जाए।
संसाधनों के विकास में सतत् विकास की अवधारणा को निम्नलिखित बिंदुओं के आधार पर लागू किया जा सकता है:
- संसाधनों का उपयोग कुशलता से करना: संसाधनों का उपयोग बिना किसी बर्बादी के करना चाहिए। इसके लिए, संसाधनों का उपयोग करने के लिए नवीन तकनीकों का उपयोग किया जाना चाहिए।
- संसाधनों का पुन: उपयोग और पुनर्चक्रण करना: संसाधनों का पुन: उपयोग और पुनर्चक्रण करके उनके उपयोग को बढ़ाया जा सकता है। इससे संसाधनों की खपत कम होगी और पर्यावरण को भी नुकसान नहीं होगा।
- नवीकरणीय संसाधनों का उपयोग बढ़ाना: अनवीकरणीय संसाधनों की खपत को कम करने के लिए नवीकरणीय संसाधनों का उपयोग बढ़ाना चाहिए। नवीकरणीय संसाधनों का उपयोग करने से पर्यावरण को भी नुकसान नहीं होगा।
- पर्यावरण संरक्षण के लिए कदम उठाना: संसाधनों का विकास करते समय पर्यावरण संरक्षण के लिए भी कदम उठाने चाहिए। इसके लिए, प्रदूषण को रोकने के लिए उपाय किए जाने चाहिए।
संसाधनों के विकास में सतत् विकास की अवधारणा को अपनाने से निम्नलिखित लाभ हो सकते हैं:
- प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण होगा।
- पर्यावरण प्रदूषण कम होगा।
- आर्थिक विकास होगा।
- सामाजिक न्याय सुनिश्चित होगा।
संसाधनों के विकास में सतत् विकास की अवधारणा को अपनाने के लिए सरकार, उद्योग और जनता सभी को मिलकर प्रयास करने चाहिए।
2. स्वामित्व के आधार पर संसाधन के विविध स्वरूपों का वर्णन कीजिए।
स्वामित्व के आधार पर संसाधनों को निम्नलिखित चार वर्गों में बाँटा जा सकता है:
- व्यक्तिगत संसाधन: व्यक्तिगत संसाधन वे संसाधन हैं जिनका स्वामित्व किसी एक व्यक्ति या परिवार के पास होता है। उदाहरण के लिए, भूमि, मकान, वाहन, उपकरण आदि व्यक्तिगत संसाधन हैं।
- सामुदायिक संसाधन: सामुदायिक संसाधन वे संसाधन हैं जिनका स्वामित्व किसी समुदाय के पास होता है। उदाहरण के लिए, सार्वजनिक उद्यान, सार्वजनिक पार्क, सार्वजनिक सड़कें आदि सामुदायिक संसाधन हैं।
- राष्ट्रीय संसाधन: राष्ट्रीय संसाधन वे संसाधन हैं जिनका स्वामित्व किसी देश के पास होता है। उदाहरण के लिए, समुद्री क्षेत्र, खनिज संसाधन, जल संसाधन आदि राष्ट्रीय संसाधन हैं।
- अंतर्राष्ट्रीय संसाधन: अंतर्राष्ट्रीय संसाधन वे संसाधन हैं जिनका स्वामित्व किसी एक देश के पास नहीं होता है, बल्कि कई देशों के पास होता है। उदाहरण के लिए, महासागर, अंतरिक्ष आदि अंतर्राष्ट्रीय संसाधन हैं।
व्यक्तिगत संसाधनों का उपयोग व्यक्तिगत आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए किया जाता है। सामुदायिक संसाधनों का उपयोग समुदाय के सभी सदस्यों के लाभ के लिए किया जाता है। राष्ट्रीय संसाधनों का उपयोग देश की अर्थव्यवस्था और सुरक्षा के लिए किया जाता है। अंतर्राष्ट्रीय संसाधनों का उपयोग सभी देशों के लाभ के लिए किया जाना चाहिए।
स्वामीत्व के आधार पर संसाधनों के वर्गीकरण से निम्नलिखित लाभ हो सकते हैं:
- संसाधनों का उपयोग और प्रबंधन अधिक प्रभावी ढंग से किया जा सकता है।
- संसाधनों के संरक्षण और संवर्धन के लिए अधिक प्रयास किए जा सकते हैं।
- संसाधनों के उपयोग से होने वाले लाभों का अधिक समान वितरण किया जा सकता है।
3. “संसाधन हुआ नहीं करते, बना करते हैं। इस कथन की व्याख्या करें।
“संसाधन हुआ नहीं करते, बना करते हैं।” इस कथन का अर्थ है कि संसाधन प्राकृतिक रूप से उपलब्ध नहीं होते हैं, बल्कि उन्हें मानवीय प्रयासों से विकसित और उपयोग में लाया जाता है। प्राकृतिक संसाधनों के अलावा, मानव संसाधन भी एक महत्वपूर्ण संसाधन है। मानव संसाधनों में ज्ञान, कौशल, और क्षमताएं शामिल हैं। इन संसाधनों को विकसित करने के लिए शिक्षा, प्रशिक्षण, और अन्य अवसरों की आवश्यकता होती है।
इस कथन की व्याख्या निम्नलिखित बिंदुओं के आधार पर की जा सकती है:
- प्राकृतिक संसाधन: प्राकृतिक संसाधनों, जैसे कि खनिज, जल, और वन्य जीवन, का उपयोग मानव आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए किया जाता है। हालांकि, इन संसाधनों को मानवीय प्रयासों से ही विकसित किया जाता है। उदाहरण के लिए, खनिज संसाधनों का उपयोग करके धातुओं का उत्पादन किया जाता है। वन्य जीवन का उपयोग भोजन, कपड़े, और दवाइयों के उत्पादन के लिए किया जाता है।
- मानव संसाधन: मानव संसाधन भी एक महत्वपूर्ण संसाधन है। मानव संसाधनों में ज्ञान, कौशल, और क्षमताएं शामिल हैं। इन संसाधनों को विकसित करने के लिए शिक्षा, प्रशिक्षण, और अन्य अवसरों की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए, शिक्षा और प्रशिक्षण के माध्यम से लोगों को नए कौशल सीखने और अपनी क्षमताओं को विकसित करने में मदद मिल सकती है।
इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि संसाधन हुआ नहीं करते, बना करते हैं। संसाधनों को विकसित करने और उपयोग में लाने के लिए मानवीय प्रयासों की आवश्यकता होती है।
4. संसाधन से क्या समझते हैं? उदाहरण देकर स्पष्ट करें।
संसाधन से तात्पर्य उन वस्तुओं और सेवाओं से है जो किसी उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए आवश्यक होती हैं। संसाधनों को दो मुख्य श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है:
- प्राकृतिक संसाधन: वे संसाधन जो प्रकृति द्वारा प्रदान किए जाते हैं, उन्हें प्राकृतिक संसाधन कहते हैं। जैसे: मिट्टी, पानी, हवा, खनिज, वनस्पति, जीव-जंतु आदि।
- मानव संसाधन: वे संसाधन जो मनुष्यों द्वारा निर्मित या विकसित किए जाते हैं, उन्हें मानव संसाधन कहते हैं। जैसे: ज्ञान, कौशल, तकनीक, श्रम, पूंजी आदि।
उदाहरण के लिए, एक किसान को अनाज उगाने के लिए मिट्टी, पानी, बीज, खाद आदि प्राकृतिक संसाधनों की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त, उसे खेती करने के लिए श्रम, मशीनरी आदि मानव संसाधनों की भी आवश्यकता होती है।
संसाधनों को उनके उपलब्धता के आधार पर भी वर्गीकृत किया जा सकता है:
- अक्षय संसाधन: वे संसाधन जो अनंत काल तक उपलब्ध रहते हैं, उन्हें अक्षय संसाधन कहते हैं। जैसे: सूर्य का प्रकाश, पवन ऊर्जा, भूतापीय ऊर्जा आदि।
- क्षयशील संसाधन: वे संसाधन जो सीमित मात्रा में उपलब्ध होते हैं और उपयोग के साथ-साथ समाप्त हो जाते हैं, उन्हें क्षयशील संसाधन कहते हैं। जैसे: जीवाश्म ईंधन, धातु, खनिज आदि।
संसाधनों का उपयोग विभिन्न क्षेत्रों में किया जाता है, जैसे:
- उत्पादन: उत्पादन के लिए प्राकृतिक संसाधनों और मानव संसाधनों का उपयोग किया जाता है।
- सेवाएं: सेवाओं के लिए भी संसाधनों का उपयोग किया जाता है। जैसे: शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन आदि।
- विकास: संसाधनों का उपयोग सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए किया जाता है।
संसाधनों का संरक्षण और प्रबंधन करना आवश्यक है ताकि ये भविष्य के लिए भी उपलब्ध रहें।
5. संसाधनों के संरक्षण से क्या तात्पर्य है? यह संरक्षण किस प्रकार किया जा सकता है ?
संसाधनों के संरक्षण से तात्पर्य उन संसाधनों का उपयोग विवेकपूर्ण तरीके से करना है ताकि वे भविष्य के लिए भी उपलब्ध रहें। संसाधनों के संरक्षण के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:
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उपयोग को कम करना: संसाधनों के उपयोग को कम करना संरक्षण का सबसे महत्वपूर्ण तरीका है। इसके लिए, हमें अपने दैनिक जीवन में छोटे-छोटे बदलाव करने की आवश्यकता है, जैसे:
- बिजली और पानी की बचत करना।
- पुन: उपयोग और पुनर्चक्रण करना।
- कम उपभोग वाली वस्तुओं का उपयोग करना।
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उपयोग को कुशल बनाना: संसाधनों के उपयोग को कुशल बनाना भी संरक्षण का एक महत्वपूर्ण तरीका है। इसके लिए, हमें नवीन तकनीकों और विधियों का उपयोग करना चाहिए। उदाहरण के लिए, ऊर्जा के कुशल उपयोग के लिए हम सोलर पैनल, वाटर हीटर, आदि का उपयोग कर सकते हैं।
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नवीकरणीय संसाधनों का उपयोग करना: नवीकरणीय संसाधनों का उपयोग करना संरक्षण का एक अच्छा तरीका है। नवीकरणीय संसाधन वे संसाधन हैं जो प्राकृतिक रूप से पुनर्जीवित होते हैं, जैसे: सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, जल ऊर्जा, आदि।
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क्षयशील संसाधनों का प्रबंधन करना: क्षयशील संसाधनों का प्रबंधन करना भी संरक्षण का एक महत्वपूर्ण तरीका है। इसके लिए, हमें इन संसाधनों का उपयोग कम करने और इनके उपयोग के बाद इनका सुरक्षित निपटान करने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए, जीवाश्म ईंधन का उपयोग कम करने के लिए हम ऊर्जा दक्षता में सुधार कर सकते हैं और नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों का उपयोग कर सकते हैं।
संसाधनों का संरक्षण हमारे लिए और आने वाली पीढ़ियों के लिए आवश्यक है। संसाधनों के संरक्षण से हम पर्यावरण को भी बचा सकते हैं और सामाजिक और आर्थिक विकास को भी बढ़ावा दे सकते हैं।
6. शक्ति संसाधनों के संरक्षण हेतु कौन-कौन से उपाय किये जा सकते हैं ? आप इसमें कैसे मदद पहुँचा सकते हैं ?
शक्ति संसाधनों के संरक्षण के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:
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उपयोग को कम करना: शक्ति संसाधनों के उपयोग को कम करना सबसे महत्वपूर्ण उपाय है। इसके लिए, हमें अपने दैनिक जीवन में छोटे-छोटे बदलाव करने की आवश्यकता है, जैसे:
- बिजली के उपकरणों को बंद करना जब वे उपयोग में नहीं हों।
- कम ऊर्जा-कुशल उपकरणों को नवीनतम ऊर्जा-कुशल उपकरणों से बदलना।
- कम ऊर्जा-समृद्ध प्रकाश व्यवस्था का उपयोग करना।
- ऊर्जा-कुशल उपकरणों का उपयोग करना।
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उपयोग को कुशल बनाना: शक्ति संसाधनों के उपयोग को कुशल बनाना भी महत्वपूर्ण है। इसके लिए, हमें नवीन तकनीकों और विधियों का उपयोग करना चाहिए। उदाहरण के लिए, ऊर्जा के कुशल उपयोग के लिए हम सोलर पैनल, वाटर हीटर, आदि का उपयोग कर सकते हैं।
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नवीकरणीय संसाधनों का उपयोग करना: नवीकरणीय संसाधनों का उपयोग करना शक्ति संसाधनों के संरक्षण का एक अच्छा तरीका है। नवीकरणीय संसाधन वे संसाधन हैं जो प्राकृतिक रूप से पुनर्जीवित होते हैं, जैसे: सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, जल ऊर्जा, आदि।
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क्षयशील संसाधनों का प्रबंधन करना: क्षयशील संसाधनों का प्रबंधन करना भी महत्वपूर्ण है। इसके लिए, हमें इन संसाधनों का उपयोग कम करने और इनके उपयोग के बाद इनका सुरक्षित निपटान करने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए, जीवाश्म ईंधन का उपयोग कम करने के लिए हम ऊर्जा दक्षता में सुधार कर सकते हैं और नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों का उपयोग कर सकते हैं।
मैं शक्ति संसाधनों के संरक्षण में निम्नलिखित तरीकों से मदद कर सकता हूं:
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लोगों को जागरूक करना: मैं लोगों को शक्ति संसाधनों के संरक्षण के महत्व के बारे में जागरूक कर सकता हूं। मैं इसके लिए विभिन्न माध्यमों का उपयोग कर सकता हूं, जैसे: सोशल मीडिया, वेबसाइट, प्रेस विज्ञप्ति, आदि।
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नवीन तकनीकों को बढ़ावा देना: मैं नवीन तकनीकों को बढ़ावा दे सकता हूं जो शक्ति संसाधनों के उपयोग को कम करने में मदद करती हैं। मैं इसके लिए सरकारों, उद्योगों और लोगों के साथ काम कर सकता हूं।
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नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों को बढ़ावा देना: मैं नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों को बढ़ावा दे सकता हूं। मैं इसके लिए सरकारों, उद्योगों और लोगों के साथ काम कर सकता हूं।
मैं व्यक्तिगत रूप से भी शक्ति संसाधनों के संरक्षण में योगदान दे सकता हूं। मैं अपने दैनिक जीवन में छोटे-छोटे बदलाव करके ऐसा कर सकता हूं, जैसे:
- बिजली के उपकरणों को बंद करना जब वे उपयोग में नहीं हों।
- कम ऊर्जा-कुशल उपकरणों को नवीनतम ऊर्जा-कुशल उपकरणों से बदलना।
- कम ऊर्जा-समृद्ध प्रकाश व्यवस्था का उपयोग करना।
- ऊर्जा-कुशल उपकरणों का उपयोग करना।
मैं आशा करता हूं कि मैं शक्ति संसाधनों के संरक्षण में अपनी भूमिका निभा सकूंगा और आने वाली पीढ़ियों के लिए एक बेहतर भविष्य बना सकूंगा।
7. संसाधन के नियोजन से आप क्या समझते हैं? इसकी आवश्यकता पर प्रकाश डालें।
संसाधन नियोजन से तात्पर्य उन संसाधनों का उपयोग करने की योजना बनाना है जो किसी उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए आवश्यक होते हैं। संसाधन नियोजन में निम्नलिखित शामिल होते हैं:
- संसाधनों की पहचान: सबसे पहले, यह निर्धारित करना आवश्यक है कि किन संसाधनों की आवश्यकता है। इसमें प्राकृतिक संसाधन, मानव संसाधन, वित्तीय संसाधन, और तकनीकी संसाधन आदि शामिल हो सकते हैं।
- संसाधनों की उपलब्धता: फिर, यह निर्धारित करना आवश्यक है कि इन संसाधनों की उपलब्धता कितनी है। इसमें संसाधनों की मात्रा, गुणवत्ता, और स्थिति आदि शामिल हो सकते हैं।
- संसाधनों का उपयोग: अंत में, यह निर्धारित करना आवश्यक है कि इन संसाधनों का उपयोग कैसे किया जाएगा। इसमें संसाधनों का आवंटन, उपयोग की योजना, और उपयोग की निगरानी आदि शामिल हो सकते हैं।
संसाधन नियोजन की आवश्यकता निम्नलिखित कारणों से है:
- उद्देश्यों को प्राप्त करना: संसाधन नियोजन से यह सुनिश्चित होता है कि संसाधनों का उपयोग उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए किया जाए।
- अधिक कुशलता: संसाधन नियोजन से यह सुनिश्चित होता है कि संसाधनों का उपयोग अधिक कुशलता से किया जाए।
- लाभप्रदता: संसाधन नियोजन से यह सुनिश्चित होता है कि संसाधनों का उपयोग लाभप्रदता के साथ किया जाए।
- पर्यावरण संरक्षण: संसाधन नियोजन से यह सुनिश्चित होता है कि संसाधनों का उपयोग पर्यावरण संरक्षण के साथ किया जाए।
संसाधन नियोजन विभिन्न स्तरों पर किया जा सकता है, जैसे:
- राष्ट्रीय स्तर: राष्ट्रीय स्तर पर संसाधन नियोजन का उद्देश्य देश के आर्थिक विकास और सामाजिक कल्याण को बढ़ावा देना है।
- सरकारी स्तर: सरकारी स्तर पर संसाधन नियोजन का उद्देश्य विभिन्न क्षेत्रों में विकास को बढ़ावा देना है।
- उद्योग स्तर: उद्योग स्तर पर संसाधन नियोजन का उद्देश्य उत्पादन को बढ़ावा देना और लागत को कम करना है।
- व्यक्तिगत स्तर: व्यक्तिगत स्तर पर संसाधन नियोजन का उद्देश्य व्यक्तिगत लक्ष्यों को प्राप्त करना है।
संसाधन नियोजन एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है जो विभिन्न स्तरों पर की जाती है। संसाधन नियोजन से यह सुनिश्चित होता है कि संसाधनों का उपयोग कुशलतापूर्वक, लाभप्रदता के साथ, और पर्यावरण संरक्षण के साथ किया जाए।
8. ऊर्जा संसाधन के महत्त्व पर प्रकाश डालें।
ऊर्जा संसाधन हमारे जीवन के लिए आवश्यक हैं। वे हमें कई प्रकार के कार्यों को करने में सक्षम बनाते हैं, जैसे:
- विद्युत उत्पादन: ऊर्जा संसाधनों का उपयोग विद्युत उत्पादन के लिए किया जाता है, जो प्रकाश, गर्मी, और शक्ति प्रदान करता है।
- उद्योग: ऊर्जा संसाधनों का उपयोग उद्योगों में मशीनों को चलाने और उत्पादन करने के लिए किया जाता है।
- परिवहन: ऊर्जा संसाधनों का उपयोग परिवहन में वाहनों को चलाने के लिए किया जाता है।
- गृहेलू उपयोग: ऊर्जा संसाधनों का उपयोग घरों में प्रकाश, गर्मी, और खाना पकाने के लिए किया जाता है।
ऊर्जा संसाधनों के महत्व को निम्नलिखित बिंदुओं से समझा जा सकता है:
- आर्थिक विकास: ऊर्जा संसाधन आर्थिक विकास के लिए आवश्यक हैं। वे उद्योगों को स्थापित करने और उत्पादन बढ़ाने में मदद करते हैं।
- सामाजिक विकास: ऊर्जा संसाधन सामाजिक विकास के लिए भी आवश्यक हैं। वे शिक्षा, स्वास्थ्य, और परिवहन जैसी बुनियादी सुविधाओं को प्रदान करने में मदद करते हैं।
- पर्यावरण संरक्षण: ऊर्जा संसाधनों का उपयोग पर्यावरण संरक्षण के लिए भी किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, नवीकरणीय ऊर्जा संसाधनों का उपयोग प्रदूषण को कम करने में मदद कर सकता है।
ऊर्जा संसाधनों के संरक्षण के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:
- ऊर्जा दक्षता में सुधार: ऊर्जा दक्षता में सुधार करके हम ऊर्जा के उपयोग को कम कर सकते हैं।
- नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों का उपयोग बढ़ावा: नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों का उपयोग करके हम जीवाश्म ईंधन के उपयोग को कम कर सकते हैं।
- ऊर्जा संसाधनों का कुशल प्रबंधन: ऊर्जा संसाधनों का कुशल प्रबंधन करके हम उनके उपयोग को अधिक प्रभावी बना सकते हैं।
ऊर्जा संसाधनों का संरक्षण हमारे लिए और आने वाली पीढ़ियों के लिए आवश्यक है। संसाधनों के संरक्षण से हम पर्यावरण को बचा सकते हैं और आर्थिक और सामाजिक विकास को बढ़ावा दे सकते हैं।
9. वन को ‘अनुपम संसाधन’ क्यों कहा गया है?
वन को ‘अनुपम संसाधन’ इसलिए कहा गया है क्योंकि यह हमारे लिए अनेक प्रकार से उपयोगी है। वन हमें निम्नलिखित लाभ प्रदान करते हैं:
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आर्थिक लाभ: वन हमें लकड़ी, गोंद, रबर, शहद, और अन्य वन्य उत्पाद प्रदान करते हैं, जिनका उपयोग हम विभिन्न उद्योगों में करते हैं। वन से प्राप्त लकड़ी का उपयोग निर्माण, मशीनरी, फर्नीचर, और अन्य उत्पादों के निर्माण में किया जाता है। गोंद का उपयोग कागज, कपड़ा, और अन्य उत्पादों के निर्माण में किया जाता है। रबर का उपयोग टायर, वस्त्र, और अन्य उत्पादों के निर्माण में किया जाता है। शहद का उपयोग खाद्य पदार्थ, औषधि, और अन्य उत्पादों के निर्माण में किया जाता है।
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सामाजिक लाभ: वन हमें जल, वायु, और मिट्टी की गुणवत्ता को बनाए रखने में मदद करते हैं। वन वर्षा को नियंत्रित करते हैं और बाढ़ और सूखे को रोकने में मदद करते हैं। वन वायु को शुद्ध करते हैं और प्रदूषण को कम करते हैं। वन मिट्टी को कटाव से बचाते हैं और मृदा की उर्वरता को बनाए रखने में मदद करते हैं।
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पर्यावरणीय लाभ: वन जैव विविधता का घर हैं। वन में विभिन्न प्रकार के पेड़, पौधे, और जीव-जंतु पाए जाते हैं। वन पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखने में मदद करते हैं।
वन एक ऐसा संसाधन है जो हमारे लिए अत्यंत मूल्यवान है। वन के बिना हमारा जीवन असंभव है। इसलिए, हमें वन का संरक्षण करना चाहिए और इनका सदुपयोग करना चाहिए।
वन को ‘अनुपम संसाधन’ कहे जाने के कुछ अन्य कारण इस प्रकार हैं:
- वन हमारे जीवन का आधार हैं। वे हमें भोजन, आश्रय, और औषधि प्रदान करते हैं।
- वन पर्यावरण को स्वच्छ और स्वस्थ रखते हैं। वे वायु और जल को शुद्ध करते हैं और कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करते हैं।
- वन जैव विविधता का घर हैं। वे विभिन्न प्रकार के पेड़, पौधे, और जीव-जंतुओं का निवास स्थान हैं।
वन हमारे लिए एक अनमोल संपत्ति हैं। हमें इनका संरक्षण करना चाहिए और इनके महत्व को समझना चाहिए।
10. भारत के आर्थिक विकास में जल संसाधन का योगदान बताएँ।
जल संसाधन भारत के आर्थिक विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जल का उपयोग निम्नलिखित क्षेत्रों में किया जाता है:
- सिंचाई: भारत की कृषि जल पर निर्भर है। लगभग 60% भारतीय कृषि भूमि सिंचाई के अधीन है। जल का उपयोग फसलों की सिंचाई के लिए किया जाता है, जिससे कृषि उत्पादन में वृद्धि होती है।
- विद्युत उत्पादन: जल का उपयोग जलविद्युत उत्पादन के लिए किया जाता है। भारत में जलविद्युत उत्पादन का एक महत्वपूर्ण स्रोत है। जल विद्युत भारत के कुल बिजली उत्पादन का लगभग 25% प्रदान करती है।
- औद्योगिक उपयोग: जल का उपयोग उद्योगों में विभिन्न उद्देश्यों के लिए किया जाता है, जैसे:
- उत्पादन प्रक्रिया में
- तापमान नियंत्रण के लिए
- प्रदूषण नियंत्रण के लिए
- घरेलू उपयोग: जल का उपयोग घरेलू कार्यों के लिए किया जाता है, जैसे:
- पीने के लिए
- भोजन पकाने के लिए
- सफाई के लिए
जल संसाधनों के भारत के आर्थिक विकास में योगदान निम्नलिखित हैं:
- कृषि उत्पादन में वृद्धि: जल का उपयोग सिंचाई के लिए किया जाता है, जिससे कृषि उत्पादन में वृद्धि होती है। इससे भारत के आर्थिक विकास में वृद्धि होती है।
- विद्युत उत्पादन में वृद्धि: जल का उपयोग जलविद्युत उत्पादन के लिए किया जाता है, जिससे भारत के विद्युत उत्पादन में वृद्धि होती है। इससे भारत के आर्थिक विकास में वृद्धि होती है।
- औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि: जल का उपयोग उद्योगों में विभिन्न उद्देश्यों के लिए किया जाता है, जिससे औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि होती है। इससे भारत के आर्थिक विकास में वृद्धि होती है।
- जीवन स्तर में सुधार: जल का उपयोग घरेलू कार्यों के लिए किया जाता है, जिससे लोगों के जीवन स्तर में सुधार होता है। इससे भारत के आर्थिक विकास में वृद्धि होती है।
वर्तमान में, भारत में जल संसाधनों की उपलब्धता और मांग के बीच एक संतुलन बनाए रखना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। जल संसाधनों के संरक्षण और प्रबंधन के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:
- जल संसाधनों का कुशल उपयोग: जल संसाधनों का कुशल उपयोग करके हम जल की उपलब्धता बढ़ा सकते हैं।
- जल संरक्षण: जल संरक्षण के उपायों को अपनाकर हम जल की बर्बादी को कम कर सकते हैं।
- जल संवर्धन: जल संवर्धन के उपायों को अपनाकर हम जल की उपलब्धता बढ़ा सकते हैं।
जल संसाधन भारत के आर्थिक विकास के लिए एक महत्वपूर्ण संसाधन हैं। इन संसाधनों के संरक्षण और प्रबंधन के लिए सभी को मिलकर प्रयास करने की आवश्यकता है।
11. मानव किन गुणों के कारण सारे प्राकृतिक संसाधनों के मूल्य में परिवर्तन लाता है ?
मानव के निम्नलिखित गुणों के कारण सारे प्राकृतिक संसाधनों के मूल्य में परिवर्तन आता है:
- बुद्धिमत्ता: मानव अपनी बुद्धिमत्ता का उपयोग करके प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करने के नए तरीकों का पता लगाता है। इससे प्राकृतिक संसाधनों की मांग बढ़ती है और उनका मूल्य बढ़ता है। उदाहरण के लिए, तेल का उपयोग पहले केवल ईंधन के रूप में किया जाता था, लेकिन अब इसका उपयोग विभिन्न प्रकार के उत्पादों के निर्माण में भी किया जाता है। इससे तेल की मांग बढ़ी है और इसका मूल्य बढ़ गया है।
- तकनीक: मानव अपनी तकनीक का उपयोग करके प्राकृतिक संसाधनों का दोहन अधिक कुशलता से करने में सक्षम होता है। इससे प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता बढ़ती है और उनका मूल्य कम होता है। उदाहरण के लिए, तेल की खोज और उत्पादन के लिए नई तकनीकों का विकास किया गया है। इससे तेल की उपलब्धता बढ़ी है और इसका मूल्य कम हो गया है।
- अर्थव्यवस्था: मानव की अर्थव्यवस्था के विकास के साथ-साथ प्राकृतिक संसाधनों की मांग भी बढ़ती है। इससे प्राकृतिक संसाधनों का मूल्य बढ़ता है। उदाहरण के लिए, भारत की अर्थव्यवस्था के विकास के साथ-साथ लोहा और इस्पात की मांग भी बढ़ी है। इससे लोहा और इस्पात का मूल्य बढ़ गया है।
- जनसंख्या: मानव जनसंख्या के बढ़ने के साथ-साथ प्राकृतिक संसाधनों की मांग भी बढ़ती है। इससे प्राकृतिक संसाधनों का मूल्य बढ़ता है। उदाहरण के लिए, भारत की जनसंख्या के बढ़ने के साथ-साथ भोजन, पानी, और ऊर्जा की मांग भी बढ़ी है। इससे इन संसाधनों का मूल्य बढ़ गया है।
इन गुणों के कारण, मानव प्राकृतिक संसाधनों के मूल्य को प्रभावित करता है। मानव की बुद्धिमत्ता, तकनीक, अर्थव्यवस्था, और जनसंख्या जैसे कारक प्राकृतिक संसाधनों के मूल्य को बढ़ा या घटा सकते हैं।
12. मानव के लिए संसाधन क्यों आवश्यक है ?
मानव के लिए संसाधन आवश्यक हैं क्योंकि वे हमारे जीवन के लिए आवश्यक हैं। संसाधनों का उपयोग हम निम्नलिखित कार्यों के लिए करते हैं:
- जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन: संसाधनों का उपयोग हम भोजन, पानी, कपड़े, आश्रय, और अन्य आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन करने के लिए करते हैं।
- आर्थिक विकास को बढ़ावा देना: संसाधनों का उपयोग हम आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के लिए करते हैं। उदाहरण के लिए, हम संसाधनों का उपयोग उद्योगों, कृषि, और परिवहन के विकास के लिए करते हैं।
- सामाजिक विकास को बढ़ावा देना: संसाधनों का उपयोग हम सामाजिक विकास को बढ़ावा देने के लिए करते हैं। उदाहरण के लिए, हम संसाधनों का उपयोग शिक्षा, स्वास्थ्य, और बुनियादी सुविधाओं के विकास के लिए करते हैं।
- पर्यावरण को बनाए रखना: संसाधनों का उपयोग हम पर्यावरण को बनाए रखने के लिए भी करते हैं। उदाहरण के लिए, हम संसाधनों का उपयोग वनरोपण, जल संरक्षण, और प्रदूषण नियंत्रण के लिए करते हैं।
संक्षेप में, मानव के लिए संसाधन आवश्यक हैं क्योंकि वे हमारे जीवन के लिए आवश्यक हैं और आर्थिक, सामाजिक, और पर्यावरणीय विकास को बढ़ावा देते हैं।
मानव के लिए आवश्यक कुछ महत्वपूर्ण संसाधनों में शामिल हैं:
- भोजन: भोजन हमारे जीवन के लिए आवश्यक है। हम भोजन का उपयोग ऊर्जा प्राप्त करने, वृद्धि करने, और मरम्मत करने के लिए करते हैं।
- पानी: पानी हमारे जीवन के लिए आवश्यक है। हम पानी का उपयोग पीने, भोजन पकाने, और सफाई के लिए करते हैं।
- ऊर्जा: ऊर्जा हमारे जीवन के लिए आवश्यक है। हम ऊर्जा का उपयोग प्रकाश, गर्मी, और शक्ति प्राप्त करने के लिए करते हैं।
- आवास: आवास हमारे जीवन के लिए आवश्यक है। हम आवास का उपयोग सुरक्षा और आराम प्राप्त करने के लिए करते हैं।
- कपड़े: कपड़े हमारे जीवन के लिए आवश्यक हैं। हम कपड़े का उपयोग गर्मी और सुरक्षा प्राप्त करने के लिए करते हैं।
- चिकित्सा: चिकित्सा हमारे जीवन के लिए आवश्यक है। हम चिकित्सा का उपयोग बीमारियों का इलाज करने और चोटों को ठीक करने के लिए करते हैं।
इन संसाधनों के बिना, मानव जीवन असंभव होगा।
13. ऊर्जा के गैर-परंपरागत स्रोतों का उल्लेख करें और यह बताएँ कि भारत इस दिशा में किस तरह आगे बढ़ रहा है ?
ऊर्जा के गैर-परंपरागत स्रोतों में वे सभी स्रोत शामिल हैं जो नवीकरणीय हैं, अर्थात् जिनकी आपूर्ति समाप्त नहीं होती है। इनमें निम्नलिखित शामिल हैं:
- सौर ऊर्जा: सौर ऊर्जा सूर्य की किरणों से प्राप्त ऊर्जा है। यह एक स्वच्छ और नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत है। भारत में सौर ऊर्जा का उपयोग विद्युत उत्पादन, घरेलू उपयोग, और उद्योगों में किया जा रहा है।
- पवन ऊर्जा: पवन ऊर्जा हवा की गति से प्राप्त ऊर्जा है। यह एक स्वच्छ और नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत है। भारत में पवन ऊर्जा का उपयोग विद्युत उत्पादन के लिए किया जा रहा है।
- ज्वारीय ऊर्जा: ज्वारीय ऊर्जा समुद्र के ज्वार और भाटा से प्राप्त ऊर्जा है। यह एक स्वच्छ और नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत है। भारत में ज्वारीय ऊर्जा का उपयोग विद्युत उत्पादन के लिए किया जा रहा है।
- भूतापीय ऊर्जा: भूतापीय ऊर्जा पृथ्वी के आंतरिक भाग से प्राप्त ऊर्जा है। यह एक स्वच्छ और नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत है। भारत में भूतापीय ऊर्जा का उपयोग विद्युत उत्पादन के लिए किया जा रहा है।
- जैव ऊर्जा: जैव ऊर्जा जीवों से प्राप्त ऊर्जा है। इसमें जैवमास, बायोफ्यूल, और बायो गैस शामिल हैं। जैव ऊर्जा एक स्वच्छ और नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत है। भारत में जैव ऊर्जा का उपयोग विद्युत उत्पादन, घरेलू उपयोग, और उद्योगों में किया जा रहा है।
भारत ऊर्जा के गैर-परंपरागत स्रोतों के विकास में तेजी से आगे बढ़ रहा है। भारत सरकार ने ऊर्जा के गैर-परंपरागत स्रोतों के विकास के लिए कई योजनाएं और कार्यक्रम शुरू किए हैं। इन योजनाओं और कार्यक्रमों के तहत, भारत में सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, और अन्य गैर-परंपरागत ऊर्जा स्रोतों के विकास में निवेश किया जा रहा है।
भारत सरकार का लक्ष्य है कि वर्ष 2030 तक भारत की कुल ऊर्जा उत्पादन में गैर-परंपरागत ऊर्जा का हिस्सा 40% तक पहुंच जाए। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, भारत सरकार निम्नलिखित उपाय कर रही है:
- सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, और अन्य गैर-परंपरागत ऊर्जा स्रोतों के विकास के लिए अनुसंधान और विकास को बढ़ावा देना।
- गैर-परंपरागत ऊर्जा स्रोतों के विकास के लिए निवेश को प्रोत्साहित करना।
- गैर-परंपरागत ऊर्जा स्रोतों के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए नीतियां और कानून बनाना।
इन उपायों के परिणामस्वरूप, भारत में ऊर्जा के गैर-परंपरागत स्रोतों का विकास तेजी से हो रहा है। भारत ने वर्ष 2022 में 100 गीगावाट सौर ऊर्जा क्षमता स्थापित करने का लक्ष्य रखा था, जिसे उसने वर्ष 2022 में ही प्राप्त कर लिया। भारत वर्ष 2030 तक 450 गीगावाट सौर ऊर्जा क्षमता स्थापित करने का लक्ष्य रखा है। भारत ने वर्ष 2022 में 50 गीगावाट पवन ऊर्जा क्षमता स्थापित करने का लक्ष्य रखा था, जिसे उसने वर्ष 2022 में ही प्राप्त कर लिया। भारत वर्ष 2030 तक 140 गीगावाट पवन ऊर्जा क्षमता स्थापित करने का लक्ष्य रखा है।
भारत के इन प्रयासों से भारत की ऊर्जा सुरक्षा में सुधार होगा और पर्यावरण संरक्षण में भी मदद मिलेगी।
14. भारत में सौर ऊर्जा का भविष्य उज्ज्वल है। इस कथन की पुष्टि करें।
भारत में सौर ऊर्जा का भविष्य उज्ज्वल है। इस कथन की पुष्टि निम्नलिखित तथ्यों से होती है:
- भारत में सौर ऊर्जा की अपार संभावनाएँ हैं। भारत में प्रति व्यक्ति औसतन 300 दिन धूप रहती है। देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 20% भाग सौर ऊर्जा के लिए उपयुक्त है।
- भारत सरकार सौर ऊर्जा के विकास को बढ़ावा देने के लिए कई कदम उठा रही है। सरकार ने 2022 तक 100 गीगावाट सौर ऊर्जा उत्पादन का लक्ष्य रखा है। सरकार ने सौर ऊर्जा संयंत्रों के लिए सब्सिडी और कर छूट जैसी कई प्रोत्साहन योजनाएँ भी शुरू की हैं।
- भारत में सौर ऊर्जा उद्योग तेजी से विकसित हो रहा है। देश में सौर ऊर्जा संयंत्र बनाने की क्षमता बढ़ रही है। भारत अब सौर ऊर्जा के क्षेत्र में एक प्रमुख वैश्विक खिलाड़ी बन गया है।
भारत में सौर ऊर्जा के विकास के निम्नलिखित लाभ हैं:
- सौर ऊर्जा एक नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत है। यह प्रदूषण नहीं करता है और पर्यावरण के अनुकूल है।
- सौर ऊर्जा एक सस्ता ऊर्जा स्रोत है। इससे भारत की ऊर्जा सुरक्षा में भी सुधार होगा।
- सौर ऊर्जा का उपयोग रोजगार सृजन में भी सहायक होगा।
इन सभी तथ्यों और लाभों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भारत में सौर ऊर्जा का भविष्य उज्ज्वल है।
15. ऊर्जा संकट दूर करने के लिए ऊर्जा के किन स्रोतों को विकास करने की आवश्यकता है ? इसके लिए कौन से प्रयास किया रहे हैं ?
ऊर्जा संकट दूर करने के लिए ऊर्जा के निम्नलिखित स्रोतों को विकास करने की आवश्यकता है:
- नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत: नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत, जैसे सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, और जलविद्युत, प्रदूषण नहीं करते हैं और पर्यावरण के अनुकूल हैं। इन स्रोतों के विकास से ऊर्जा संकट को दूर करने में मदद मिलेगी।
- ऊर्जा दक्षता: ऊर्जा दक्षता का अर्थ है ऊर्जा का अधिक कुशलता से उपयोग करना। ऊर्जा दक्षता में सुधार से ऊर्जा की खपत कम होगी और ऊर्जा संकट को दूर करने में मदद मिलेगी।
- ऊर्जा का संरक्षण: ऊर्जा का संरक्षण का अर्थ है ऊर्जा का उपयोग कम करना। ऊर्जा का संरक्षण करने के लिए हम अपनी ऊर्जा खपत को कम करने के लिए उपाय कर सकते हैं, जैसे कि बिजली का उपयोग कम करना, ऊर्जा दक्ष उपकरणों का उपयोग करना, और ऊर्जा की बर्बादी को रोकना।
इन स्रोतों के विकास के लिए निम्नलिखित प्रयास किए जा रहे हैं:
- सरकारें: सरकारें ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोतों के विकास के लिए सब्सिडी, कर छूट, और अन्य प्रोत्साहन योजनाओं के माध्यम से सहायता प्रदान कर रही हैं।
- उद्योग: उद्योग भी ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोतों के विकास में निवेश कर रहे हैं।
- व्यक्तिगत स्तर पर: व्यक्तिगत स्तर पर भी हम ऊर्जा दक्षता और ऊर्जा संरक्षण के उपाय कर सकते हैं।
इन प्रयासों से ऊर्जा संकट को दूर करने में मदद मिलेगी और एक स्वच्छ और टिकाऊ भविष्य का निर्माण किया जा सकेगा।
विशेष रूप से, भारत सरकार ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोतों के विकास को बढ़ावा देने के लिए कई कदम उठा रही है। सरकार ने 2030 तक भारत की कुल ऊर्जा उत्पादन में नवीकरणीय ऊर्जा का हिस्सा 40% तक पहुंचने का लक्ष्य रखा है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, भारत सरकार निम्नलिखित उपाय कर रही है:
- सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, और अन्य नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों के विकास के लिए अनुसंधान और विकास को बढ़ावा देना।
- नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों के विकास के लिए निवेश को प्रोत्साहित करना।
- नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए नीतियां और कानून बनाना।
इन उपायों के परिणामस्वरूप, भारत में ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोतों का विकास तेजी से हो रहा है। भारत ने वर्ष 2022 में 100 गीगावाट सौर ऊर्जा क्षमता स्थापित करने का लक्ष्य रखा था, जिसे उसने वर्ष 2022 में ही प्राप्त कर लिया। भारत वर्ष 2030 तक 450 गीगावाट सौर ऊर्जा क्षमता स्थापित करने का लक्ष्य रखा है। भारत ने वर्ष 2022 में 50 गीगावाट पवन ऊर्जा क्षमता स्थापित करने का लक्ष्य रखा था, जिसे उसने वर्ष 2022 में ही प्राप्त कर लिया। भारत वर्ष 2030 तक 140 गीगावाट पवन ऊर्जा क्षमता स्थापित करने का लक्ष्य रखा है।
भारत के इन प्रयासों से भारत की ऊर्जा सुरक्षा में सुधार होगा और पर्यावरण संरक्षण में भी मदद मिलेगी।
16. खनिज कितने प्रकार के होते हैं? प्रत्येक का सोदाहरण परिचय दीजिए।
खनिज प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले ठोस पदार्थ होते हैं जो एक निश्चित रासायनिक संरचना और भौतिक गुणों से युक्त होते हैं। खनिज अपनी प्रकृति और संरचना के आधार पर कई प्रकार के होते हैं।
धात्विक खनिज
धात्विक खनिज उन खनिजों को कहते हैं जिनमें धातुएँ होती हैं। धात्विक खनिजों का उपयोग धातुओं के उत्पादन के लिए किया जाता है। कुछ प्रमुख धात्विक खनिज हैं:
- लोहा: लोहे का सबसे महत्वपूर्ण अयस्क हेमेटाइट है।
- एल्युमिनियम: एल्युमिनियम का सबसे महत्वपूर्ण अयस्क बॉक्साइट है।
- तांबा: तांबे का सबसे महत्वपूर्ण अयस्क कॉपर पाइराइट है।
- ज़िंक: जस्ता का सबसे महत्वपूर्ण अयस्क स्फेलेराइट है।
- सोना: सोने का सबसे महत्वपूर्ण अयस्क क्वार्ट्ज है।
अधात्विक खनिज
अधात्विक खनिज उन खनिजों को कहते हैं जिनमें धातुएँ नहीं होती हैं। अधात्विक खनिजों का उपयोग विभिन्न प्रकार के उत्पादों के निर्माण में किया जाता है। कुछ प्रमुख अधात्विक खनिज हैं:
- कैल्साइट: चूना पत्थर, संगमरमर, और प्लास्टर ऑफ पेरिस का निर्माण के लिए उपयोग किया जाता है।
- सिलिकॉन डाइऑक्साइड: कांच, सिरेमिक, और सीमेंट के निर्माण के लिए उपयोग किया जाता है।
- ग्रेफाइट: बिजली के उपकरणों और स्नेहक के निर्माण के लिए उपयोग किया जाता है।
- सल्फ्यूर: सल्फर डाइऑक्साइड, गंधक, और सल्फ्यूरिक एसिड के निर्माण के लिए उपयोग किया जाता है।
- फॉस्फेट: फॉस्फोरस उर्वरक के निर्माण के लिए उपयोग किया जाता है।
ऊर्जा खनिज
ऊर्जा खनिज उन खनिजों को कहते हैं जिनका उपयोग ऊर्जा उत्पादन के लिए किया जाता है। कुछ प्रमुख ऊर्जा खनिज हैं:
- कोयला: कोयले का उपयोग बिजली उत्पादन, उद्योग, और परिवहन के लिए किया जाता है।
- तेल: तेल का उपयोग बिजली उत्पादन, उद्योग, और परिवहन के लिए किया जाता है।
- गैस: गैस का उपयोग बिजली उत्पादन, उद्योग, और परिवहन के लिए किया जाता है।
अन्य प्रकार के खनिज
इसके अलावा, कुछ अन्य प्रकार के खनिज भी होते हैं, जैसे:
- रेडियोधर्मी खनिज: रेडियोधर्मी खनिजों का उपयोग चिकित्सा, ऊर्जा उत्पादन, और अनुसंधान के लिए किया जाता है।
- ज्वलनशील खनिज: ज्वलनशील खनिजों का उपयोग ईंधन के रूप में किया जाता है।
- गैर-ज्वलनशील खनिज: गैर-ज्वलनशील खनिजों का उपयोग विभिन्न प्रकार के उत्पादों के निर्माण में किया जाता है।
खनिज हमारे जीवन में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे हमें धातुएं, ईंधन, और अन्य महत्वपूर्ण उत्पाद प्रदान करते हैं।
17. भारत के प्रमुख तीन धात्विक खनिजों का विवरण बताएँ।
भारत के प्रमुख तीन धात्विक खनिजों का विवरण निम्नलिखित है:
1. लोहा
लोहा एक अत्यंत महत्वपूर्ण धातु है जिसका उपयोग विभिन्न प्रकार के उत्पादों के निर्माण में किया जाता है, जैसे कि इस्पात, मशीनरी, वाहन, निर्माण सामग्री, और घरेलू उपकरण। भारत लोहे के उत्पादन में दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा देश है। भारत के प्रमुख लोहे के उत्पादक राज्य हैं झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा, और मध्य प्रदेश। भारत में लोहे के सबसे महत्वपूर्ण अयस्क हेमेटाइट और मैग्नेटाइट हैं।
2. एल्युमिनियम
एल्युमिनियम एक हल्की और मजबूत धातु है जिसका उपयोग विभिन्न प्रकार के उत्पादों के निर्माण में किया जाता है, जैसे कि विमान, वाहन, खाद्य पैकेजिंग, और निर्माण सामग्री। भारत एल्युमिनियम के उत्पादन में दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा देश है। भारत के प्रमुख एल्युमिनियम उत्पादक राज्य हैं कर्नाटक, ओडिशा, तमिलनाडु, और छत्तीसगढ़। भारत में एल्युमिनियम के सबसे महत्वपूर्ण अयस्क बॉक्साइट हैं।
3. तांबा
तांबा एक विद्युत चालक और गर्मी चालक है जिसका उपयोग विभिन्न प्रकार के उत्पादों के निर्माण में किया जाता है, जैसे कि बिजली के उपकरण, वास्तुकला, और निर्माण सामग्री। भारत तांबे के उत्पादन में दुनिया का चौथा सबसे बड़ा देश है। भारत के प्रमुख तांबे के उत्पादक राज्य हैं झारखंड, छत्तीसगढ़, राजस्थान, और ओडिशा। भारत में तांबे के सबसे महत्वपूर्ण अयस्क कॉपर पाइराइट हैं।
इन तीन धात्विक खनिजों के अलावा, भारत में अन्य महत्वपूर्ण धात्विक खनिज भी पाए जाते हैं, जैसे कि जस्ता, सीसा, सोना, चांदी, और निकल।
18. कोयले का वर्गीकरण कर उनकी विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए।
कोयला एक जीवाश्म ईंधन है जो प्राचीन पौधों से मिलकर बना होता है। कोयले का वर्गीकरण उसके रासायनिक संघटन और भौतिक गुणों के आधार पर किया जाता है। कोयले के चार मुख्य प्रकार हैं:
1. पीट
पीट कोयले का सबसे कम परिपक्व प्रकार है। यह प्राचीन दलदलों में उगने वाले पौधों से बना होता है। पीट का रंग भूरा या काला होता है। इसमें कार्बन की मात्रा कम होती है, लगभग 50%। पीट का उपयोग घरेलू ईंधन के रूप में किया जाता है।
2. लिग्नाइट
लिग्नाइट कोयले का दूसरा सबसे कम परिपक्व प्रकार है। यह प्राचीन पेड़ों से बना होता है। लिग्नाइट का रंग भूरा या काला होता है। इसमें कार्बन की मात्रा लगभग 60% होती है। लिग्नाइट का उपयोग बिजली उत्पादन और घरेलू ईंधन के रूप में किया जाता है।
3. बिटुमिनस कोयला
बिटुमिनस कोयला कोयले का सबसे आम प्रकार है। यह प्राचीन पेड़ों से बना होता है। बिटुमिनस कोयला का रंग काला होता है। इसमें कार्बन की मात्रा लगभग 75% होती है। बिटुमिनस कोयला का उपयोग बिजली उत्पादन, उद्योग, और परिवहन के लिए किया जाता है।
4. एन्थ्रेसाइट
एन्थ्रेसाइट कोयले का सबसे परिपक्व प्रकार है। यह प्राचीन पेड़ों से बना होता है। एन्थ्रेसाइट कोयला का रंग काला होता है। इसमें कार्बन की मात्रा लगभग 95% होती है। एन्थ्रेसाइट कोयला का उपयोग बिजली उत्पादन के लिए किया जाता है।
कोयले की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
- कोयला एक गैर-नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत है।
- कोयला जलने पर कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य प्रदूषक गैसें छोड़ता है।
- कोयले का उपयोग बिजली उत्पादन, उद्योग, और परिवहन के लिए किया जाता है।
कोयले का उपयोग करते समय पर्यावरण को होने वाले नुकसान को कम करने के लिए स्वच्छ कोयला प्रौद्योगिकियों का उपयोग किया जा रहा है।
19. अभ्रक की उपयोगिता एवं वितरण पर प्रकाश डालें ।
अभ्रक एक बहुपयोगी खनिज है जिसका उपयोग विभिन्न प्रकार के उत्पादों के निर्माण में किया जाता है। अभ्रक की उपयोगिता निम्नलिखित है:
- विद्युतरोधी: अभ्रक विद्युत का कुचालक है। इसका उपयोग बिजली के उपकरणों, जैसे कि ट्रांसफार्मर, मोटर, और स्विच में विद्युतरोधी के रूप में किया जाता है।
- तापरोधी: अभ्रक ऊष्मा का कुचालक है। इसका उपयोग उच्च तापमान पर काम करने वाले उपकरणों, जैसे कि ओवन, भट्टियां, और इंजनों में तापरोधी के रूप में किया जाता है।
- अग्निरोधी: अभ्रक आग का सामना करने में सक्षम है। इसका उपयोग आग से बचाव के लिए, जैसे कि अग्निरोधी कपड़ों और आग बुझाने के उपकरणों में किया जाता है।
- अतिसूक्ष्म छिद्रों वाला: अभ्रक में अतिसूक्ष्म छिद्र होते हैं। इसका उपयोग फिल्टरों, जैसे कि वायु फिल्टर और जल फिल्टर में किया जाता है।
- अतिशय मजबूत: अभ्रक एक बहुत ही मजबूत खनिज है। इसका उपयोग रबर, प्लास्टिक, और अन्य सामग्रियों को मजबूत करने के लिए किया जाता है।
अभ्रक का वितरण निम्नलिखित है:
- भारत: भारत अभ्रक का सबसे बड़ा उत्पादक और निर्यातक देश है। भारत में अभ्रक के प्रमुख उत्पादक राज्य हैं झारखंड, छत्तीसगढ़, और ओडिशा।
- चीन: चीन अभ्रक का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक और निर्यातक देश है।
- ब्राज़ील: ब्राज़ील अभ्रक का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक और निर्यातक देश है।
- रूस: रूस अभ्रक का चौथा सबसे बड़ा उत्पादक और निर्यातक देश है।
- अमेरिका: अमेरिका अभ्रक का पांचवां सबसे बड़ा उत्पादक और निर्यातक देश है।
अभ्रक एक मूल्यवान खनिज है जो विभिन्न प्रकार के उत्पादों के निर्माण में उपयोग किया जाता है। अभ्रक के वितरण में भारत का महत्वपूर्ण स्थान है।
20. लौह-अयस्क का वर्गीकरण एवं उनकी विशेषताओं को लिखिए।
लौह-अयस्क का वर्गीकरण उसकी शुद्ध लोहे की मात्रा के आधार पर किया जाता है। शुद्ध लोहे की मात्रा के आधार पर लौह-अयस्क तीन प्रकार के होते हैं:
1. हेमेटाइट
हेमेटाइट सबसे महत्वपूर्ण लौह-अयस्क है। इसमें शुद्ध लोहे की मात्रा लगभग 70% होती है। हेमेटाइट का रंग लाल होता है। यह एक घना और कठोर खनिज है।
2. मैग्नेटाइट
मैग्नेटाइट में शुद्ध लोहे की मात्रा लगभग 72% होती है। मैग्नेटाइट का रंग काला होता है। यह एक चुंबकीय खनिज है।
3. लीमोनाइट
लीमोनाइट में शुद्ध लोहे की मात्रा लगभग 50% होती है। लीमोनाइट का रंग पीला होता है। यह एक नरम और भुरभुरा खनिज है।
लौह-अयस्क की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
- लौह-अयस्क एक धात्विक खनिज है।
- लौह-अयस्क का उपयोग लोहे के उत्पादन के लिए किया जाता है।
- लौह-अयस्क का रंग लाल, काला, या पीला हो सकता है।
- लौह-अयस्क एक कठोर या नरम खनिज हो सकता है।
भारत में लौह-अयस्क के प्रमुख उत्पादक राज्य हैं झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा, और मध्य प्रदेश। भारत में लौह-अयस्क की उपलब्धता पर्याप्त है।
21. ताँबा भारत के किन-किन क्षेत्रों में मिलता है? इसके वितरण और उपयोग पर प्रकाश डालें।
भारत में तांबे के प्रमुख उत्पादक राज्य हैं:
- झारखंड: झारखंड भारत में तांबे का सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है। यहां तांबे के प्रमुख उत्पादक क्षेत्र हैं सिंहभूम, सरायकेला, और पूर्वी सिंहभूम।
- छत्तीसगढ़: छत्तीसगढ़ भारत में तांबे का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है। यहां तांबे के प्रमुख उत्पादक क्षेत्र हैं कोरबा, बिलासपुर, और रायगढ़।
- राजस्थान: राजस्थान भारत में तांबे का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है। यहां तांबे के प्रमुख उत्पादक क्षेत्र हैं झुंझुनू, अलवर, और सीकर।
- ओडिशा: ओडिशा भारत में तांबे का चौथा सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है। यहां तांबे के प्रमुख उत्पादक क्षेत्र हैं मयूरभंज, नयागढ़, और कोरापुट।
भारत में तांबे के वितरण को निम्नलिखित क्षेत्रों में विभाजित किया जा सकता है:
- पूर्वी क्षेत्र: यह क्षेत्र भारत के पूर्वी भाग में स्थित है और इसमें झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा, और बिहार के कुछ हिस्से शामिल हैं। इस क्षेत्र में तांबे के प्रमुख अयस्क कॉपर पाइराइट और चाल्कोसाइनिट हैं।
- पश्चिमी क्षेत्र: यह क्षेत्र भारत के पश्चिमी भाग में स्थित है और इसमें राजस्थान, गुजरात, और महाराष्ट्र के कुछ हिस्से शामिल हैं। इस क्षेत्र में तांबे के प्रमुख अयस्क कॉपर पाइराइट और बोरेनाइट हैं।
तांबे का उपयोग विभिन्न प्रकार के उत्पादों के निर्माण में किया जाता है, जिनमें शामिल हैं:
- बिजली के उपकरण: तांबा एक अच्छा विद्युत चालक है, इसलिए इसका उपयोग बिजली के उपकरणों, जैसे कि स्विच, मोटर, और केबल्स में किया जाता है।
- निर्माण सामग्री: तांबा एक मजबूत और टिकाऊ धातु है, इसलिए इसका उपयोग निर्माण सामग्री, जैसे कि नालियां, छत, और खिड़कियां बनाने में किया जाता है।
- उद्योग: तांबा का उपयोग विभिन्न प्रकार के उद्योगों में किया जाता है, जैसे कि ऑटोमोटिव, इंजीनियरिंग, और रसायन।
तांबा एक महत्वपूर्ण धातु है जिसका उपयोग विभिन्न प्रकार के उत्पादों के निर्माण में किया जाता है। भारत में तांबे के खनन और उत्पादन में काफी संभावनाएं हैं।
22. भारत में खनिज तेल के वितरण का वर्णन कीजिए।
भारत में खनिज तेल का वितरण निम्नलिखित क्षेत्रों में देखा जा सकता है:
-
पूर्वी क्षेत्र: यह क्षेत्र भारत के पूर्वी भाग में स्थित है और इसमें असम, ओडिशा, और पश्चिम बंगाल के कुछ हिस्से शामिल हैं। इस क्षेत्र में खनिज तेल के प्रमुख क्षेत्र हैं:
- असम: असम भारत में खनिज तेल का सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है। यहां खनिज तेल के प्रमुख क्षेत्र हैं डिगबोई, नॉर्थ गैसफील्ड, और तूतीसागर।
- ओडिशा: ओडिशा भारत में खनिज तेल का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है। यहां खनिज तेल के प्रमुख क्षेत्र हैं बंगाल की खाड़ी, और समुंद्री तटीय क्षेत्र।
- पश्चिम बंगाल: पश्चिम बंगाल भारत में खनिज तेल का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है। यहां खनिज तेल के प्रमुख क्षेत्र हैं बंगाल की खाड़ी, और समुंद्री तटीय क्षेत्र।
-
पश्चिमी क्षेत्र: यह क्षेत्र भारत के पश्चिमी भाग में स्थित है और इसमें गुजरात, महाराष्ट्र, और राजस्थान के कुछ हिस्से शामिल हैं। इस क्षेत्र में खनिज तेल के प्रमुख क्षेत्र हैं:
- गुजरात: गुजरात भारत में खनिज तेल का चौथा सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है। यहां खनिज तेल के प्रमुख क्षेत्र हैं खम्बात की खाड़ी, और सौराष्ट्र क्षेत्र।
- महाराष्ट्र: महाराष्ट्र भारत में खनिज तेल का पांचवां सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है। यहां खनिज तेल के प्रमुख क्षेत्र हैं अरब सागर, और कोंकण क्षेत्र।
- राजस्थान: राजस्थान भारत में खनिज तेल का छठा सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है। यहां खनिज तेल के प्रमुख क्षेत्र हैं राजस्थान के पश्चिमी भाग, और जैसलमेर क्षेत्र।
भारत में खनिज तेल का वितरण असमान है। पूर्वी क्षेत्र में खनिज तेल का भंडार अधिक है, जबकि पश्चिमी क्षेत्र में खनिज तेल का उत्पादन अधिक है। भारत में खनिज तेल का उत्पादन लगभग 20 मिलियन टन प्रति वर्ष है। भारत की खनिज तेल की आवश्यकताओं का लगभग 80% आयात से पूरा किया जाता है।
भारत में खनिज तेल के उत्पादन और वितरण में निम्नलिखित चुनौतियां हैं:
- असमान वितरण: खनिज तेल का भंडार असमान रूप से वितरित है। इससे उत्पादन और वितरण में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
- आयात पर निर्भरता: भारत की खनिज तेल की आवश्यकताओं का लगभग 80% आयात से पूरा किया जाता है। इससे आर्थिक सुरक्षा पर खतरा होता है।
- पर्यावरणीय प्रभाव: खनिज तेल के उत्पादन और वितरण से पर्यावरण को नुकसान होता है। इससे प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याएं पैदा होती हैं।
भारत में खनिज तेल के उत्पादन और वितरण में सुधार के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:
- खोज और अन्वेषण: खनिज तेल के नए भंडारों की खोज और अन्वेषण करना।
- उत्पादन क्षमता में वृद्धि: उत्पादन क्षमता में वृद्धि करना ताकि आयात पर निर्भरता कम की जा सके।
- पर्यावरण अनुकूल प्रौद्योगिकियों का उपयोग: पर्यावरण अनुकूल प्रौद्योगिकियों का उपयोग करके खनिज तेल के उत्पादन और वितरण से होने वाले पर्यावरणीय प्रभाव को कम करना।
23. भारत में कोयला का कुल भंडार कितना है? कोयला का वार्षिक उत्पादन क्या है ? इसके दो महत्त्वपूर्ण उत्पादक क्षेत्रों का विवरण दें तथा दो उपयोग बताएँ।
भारत में कोयले का कुल भंडार लगभग 290 बिलियन टन है। यह विश्व के कोयले के कुल भंडार का लगभग 9% है। भारत में कोयले का वार्षिक उत्पादन लगभग 729 मिलियन टन है। यह विश्व के कुल कोयले के उत्पादन का लगभग 4% है।
भारत में कोयले के दो महत्त्वपूर्ण उत्पादक क्षेत्र निम्नलिखित हैं:
- दामोदर घाटी क्षेत्र: यह क्षेत्र भारत के पूर्वी भाग में स्थित है और इसमें झारखंड, पश्चिम बंगाल, और उड़ीसा के कुछ हिस्से शामिल हैं। इस क्षेत्र में कोयले के प्रमुख भंडार हैं।
- गोंडवाना क्षेत्र: यह क्षेत्र भारत के मध्य और दक्षिणी भाग में स्थित है और इसमें छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, और ओडिशा के कुछ हिस्से शामिल हैं। इस क्षेत्र में कोयले के प्रमुख भंडार हैं।
कोयले के दो महत्त्वपूर्ण उपयोग निम्नलिखित हैं:
- बिजली उत्पादन: कोयले का सबसे महत्वपूर्ण उपयोग बिजली उत्पादन में है। भारत में लगभग 70% बिजली का उत्पादन कोयले से होता है।
- इस्पात उद्योग: कोयले का उपयोग इस्पात उद्योग में कोक बनाने के लिए किया जाता है। कोक इस्पात बनाने में एक महत्वपूर्ण सामग्री है।
कोयला एक महत्वपूर्ण जीवाश्म ईंधन है जिसका उपयोग विभिन्न प्रकार के उद्योगों में किया जाता है। भारत में कोयले के भंडार पर्याप्त हैं, लेकिन कोयले के उत्पादन और वितरण में कुछ चुनौतियाँ भी हैं। इन चुनौतियों को दूर करने के लिए भारत सरकार द्वारा विभिन्न उपाय किए जा रहे हैं।
24. प्रदूषण को नियंत्रित करने के उपायों का वर्णन कीजिए।
प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:
- प्रदूषण के स्रोतों को कम करना: प्रदूषण के स्रोतों को कम करना प्रदूषण को नियंत्रित करने का सबसे प्रभावी तरीका है। इसके लिए, जीवाश्म ईंधन के उपयोग को कम करना, ऊर्जा दक्षता में सुधार करना, और पुनर्नवीनीकरण और अपशिष्ट प्रबंधन को बढ़ावा देना आवश्यक है।
- प्रदूषण के नियंत्रण के लिए तकनीकों का विकास: प्रदूषण के नियंत्रण के लिए तकनीकों का विकास भी प्रदूषण को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। इन तकनीकों में उत्सर्जन नियंत्रण उपकरण, अपशिष्ट उपचार प्रौद्योगिकियां, और स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकियां शामिल हैं।
- प्रदूषण नियंत्रण के लिए कानूनों और विनियमों को लागू करना: प्रदूषण नियंत्रण के लिए कानूनों और विनियमों को लागू करना भी महत्वपूर्ण है। इन कानूनों और विनियमों में प्रदूषण के स्रोतों को नियंत्रित करने, प्रदूषण के स्तर को सीमित करने, और प्रदूषण के लिए जिम्मेदार लोगों को दंडित करने के प्रावधान शामिल हैं।
इन उपायों के अलावा, व्यक्तिगत स्तर पर भी प्रदूषण को नियंत्रित करने में योगदान दिया जा सकता है। इसके लिए, निम्नलिखित बातों का ध्यान रखा जा सकता है:
- वाहन का उपयोग कम करना: वाहनों से होने वाला प्रदूषण एक प्रमुख समस्या है। इसलिए, वाहन का उपयोग कम करके प्रदूषण को कम करने में मदद की जा सकती है।
- सार्वजनिक परिवहन का उपयोग करना: सार्वजनिक परिवहन का उपयोग करके भी प्रदूषण को कम किया जा सकता है।
- सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान न करना: सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान से वायु प्रदूषण होता है। इसलिए, सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान न करना चाहिए।
- अपशिष्ट को कम करना और पुनर्नवीनीकरण करना: अपशिष्ट को कम करके और पुनर्नवीनीकरण करके भी प्रदूषण को कम किया जा सकता है।
प्रदूषण एक गंभीर समस्या है जिसका हमारे स्वास्थ्य और पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए उपरोक्त उपायों को अपनाने से प्रदूषण को कम करने और हमारे पर्यावरण को स्वच्छ रखने में मदद मिल सकती है।
25. भूमि किस प्रकार महत्त्वपूर्ण संसाधन है ?
भूमि एक महत्वपूर्ण संसाधन है क्योंकि यह निम्नलिखित कार्यों के लिए आवश्यक है:
- कृषि: भूमि का उपयोग कृषि के लिए किया जाता है। कृषि से प्राप्त खाद्यान्न और अन्य कृषि उत्पादों से मानव जीवन का पोषण होता है।
- औद्योगिक उत्पादन: भूमि का उपयोग औद्योगिक उत्पादन के लिए भी किया जाता है। उद्योगों में भूमि का उपयोग भवन निर्माण, उत्पादन इकाइयों के लिए, और कच्चे माल के भंडारण के लिए किया जाता है।
- निवास: भूमि का उपयोग निवास के लिए भी किया जाता है। घर, इमारतें, और अन्य संरचनाएं भूमि पर बनाई जाती हैं।
- पर्यावरणीय सेवाएं: भूमि पर्यावरणीय सेवाएं भी प्रदान करती है। भूमि से हमें शुद्ध हवा, स्वच्छ पानी, और जैव विविधता प्राप्त होती है।
भूमि एक सीमित संसाधन है और इसका सदुपयोग करना आवश्यक है। भूमि का संरक्षण और संवर्धन करना भी महत्वपूर्ण है।
भूमि के महत्व को निम्नलिखित बिंदुओं से समझा जा सकता है:
- भूमि पर मानव जीवन निर्भर है। भोजन, आश्रय, और अन्य आवश्यक वस्तुओं के लिए भूमि की आवश्यकता होती है।
- भूमि आर्थिक विकास के लिए आवश्यक है। कृषि, उद्योग, और अन्य आर्थिक गतिविधियों के लिए भूमि की आवश्यकता होती है।
- भूमि पर्यावरण के लिए आवश्यक है। भूमि पर्यावरणीय सेवाएं प्रदान करती है जो हमारे स्वास्थ्य और कल्याण के लिए आवश्यक हैं।
भूमि के संरक्षण और संवर्धन के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:
- भूमि का अतिक्रमण रोकना।
- भूमि का सदुपयोग करना।
- भूमि को प्रदूषण से बचाना।
- भूमि की उर्वरता बनाए रखना।
भूमि एक मूल्यवान संसाधन है जिसका संरक्षण और संवर्धन करना आवश्यक है।
26. आर्थिक विकास के साधन के रूप में मानव के महत्त्व पर प्रकाश डालें।
आर्थिक विकास के साधन के रूप में मानव का महत्त्व निम्नलिखित बिंदुओं से समझा जा सकता है:
- मानव श्रम: मानव श्रम आर्थिक विकास का एक महत्वपूर्ण साधन है। मानव श्रम का उपयोग उत्पादन, निर्माण, और सेवाओं के प्रावधान में किया जाता है।
- मानव कौशल: मानव कौशल आर्थिक विकास के लिए भी महत्वपूर्ण हैं। मानव कौशल का उपयोग नवाचार, उत्पादकता में वृद्धि, और प्रतिस्पर्धात्मकता में सुधार के लिए किया जाता है।
- मानव उद्यमशीलता: मानव उद्यमशीलता आर्थिक विकास के लिए भी एक महत्वपूर्ण कारक है। मानव उद्यमशीलता का उपयोग नए व्यवसायों की स्थापना, नवाचार, और आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के लिए किया जाता है।
मानव के आर्थिक विकास के साधन के रूप में महत्त्व को निम्नलिखित उदाहरणों से समझा जा सकता है:
- कृषि क्षेत्र में, मानव श्रम का उपयोग फसलों की बुआई, सिंचाई, और कटाई के लिए किया जाता है।
- औद्योगिक क्षेत्र में, मानव श्रम का उपयोग मशीनों और उपकरणों को चलाने, उत्पादों को बनाने, और सेवाओं को प्रदान करने के लिए किया जाता है।
- सेवा क्षेत्र में, मानव श्रम का उपयोग ग्राहकों की सेवा, उत्पादों और सेवाओं का विपणन, और जानकारी प्रदान करने के लिए किया जाता है।
आर्थिक विकास के लिए मानव की आवश्यकता को देखते हुए, यह आवश्यक है कि मानव संसाधनों का विकास किया जाए। मानव संसाधनों के विकास के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:
- शिक्षा और प्रशिक्षण: शिक्षा और प्रशिक्षण का उपयोग मानव कौशल और क्षमताओं को विकसित करने के लिए किया जा सकता है।
- रोजगार और उद्यमिता के अवसर: रोजगार और उद्यमिता के अवसरों का उपयोग मानव उद्यमशीलता को बढ़ावा देने के लिए किया जा सकता है।
- सामाजिक सुरक्षा और कल्याण: सामाजिक सुरक्षा और कल्याण का उपयोग मानव जीवन की गुणवत्ता में सुधार करने के लिए किया जा सकता है।
मानव संसाधनों के विकास से आर्थिक विकास को बढ़ावा मिल सकता है और लोगों के जीवन स्तर में सुधार हो सकता है।
27. नदी घाटी परियोजनाओं को बहुउद्देशीय परियोजना क्यों कहा जाता है ?
नदी घाटी परियोजनाओं को बहुउद्देशीय परियोजना इसलिए कहा जाता है क्योंकि इन परियोजनाओं का उद्देश्य केवल एक नहीं बल्कि कई उद्देश्यों की पूर्ति करना होता है। इन परियोजनाओं के मुख्य उद्देश्यों में निम्नलिखित शामिल हैं:
- सिंचाई: नदी घाटी परियोजनाओं का सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्य सिंचाई के लिए जल उपलब्ध कराना है। इन परियोजनाओं से सिंचित क्षेत्रों में कृषि उत्पादन में वृद्धि होती है, जिससे खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि होती है और लोगों के जीवन स्तर में सुधार होता है।
- विद्युत उत्पादन: नदी घाटी परियोजनाओं का एक अन्य महत्वपूर्ण उद्देश्य जलविद्युत उत्पादन के लिए जल उपलब्ध कराना है। इन परियोजनाओं से उत्पन्न बिजली का उपयोग घरेलू, औद्योगिक, और अन्य उपयोगों के लिए किया जाता है।
- बाढ़ नियंत्रण: नदी घाटी परियोजनाओं का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य बाढ़ नियंत्रण करना है। इन परियोजनाओं से बांधों का निर्माण किया जाता है, जो बाढ़ के पानी को रोकते हैं और बाढ़ से होने वाले नुकसान को कम करते हैं।
- पर्यटन: नदी घाटी परियोजनाओं से जलाशयों, बांधों, और अन्य जलीय संरचनाओं का निर्माण होता है, जो पर्यटन के लिए आकर्षण का केंद्र बन जाते हैं। इन परियोजनाओं से स्थानीय लोगों के लिए रोजगार के अवसर भी पैदा होते हैं।
इस प्रकार, नदी घाटी परियोजनाएं केवल एक उद्देश्य की पूर्ति नहीं करती हैं, बल्कि वे कई उद्देश्यों की पूर्ति करती हैं। इसीलिए इन्हें बहुउद्देशीय परियोजना कहा जाता है।
28. मृदा संरक्षण पर एक निबंध लिखिए।
मृदा संरक्षण
मृदा पृथ्वी की सतह पर पाया जाने वाला एक प्राकृतिक संसाधन है। यह पौधों की वृद्धि के लिए आवश्यक है। मृदा संरक्षण का अर्थ है मृदा की उर्वरता और उत्पादकता को बनाए रखना।
मृदा अपरदन एक प्रमुख समस्या है जो मृदा संरक्षण के लिए चुनौती पैदा करती है। मृदा अपरदन का अर्थ है मृदा का कटाव और बहाव। मृदा अपरदन के कारण मृदा की उर्वरता और उत्पादकता कम होती है।
मृदा संरक्षण के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:
- वनों का संरक्षण: वन मृदा अपरदन को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसलिए, वनों का संरक्षण करना आवश्यक है।
- वृक्षारोपण: वृक्षारोपण मृदा अपरदन को रोकने का एक प्रभावी उपाय है।
- कृषि में उचित तकनीकों का उपयोग: कृषि में उचित तकनीकों का उपयोग करके मृदा अपरदन को कम किया जा सकता है। इन तकनीकों में यांत्रिक उपाय, जैविक उपाय, और रासायनिक उपाय शामिल हैं।
मृदा संरक्षण के लिए जन जागरूकता भी आवश्यक है। लोगों को मृदा संरक्षण के महत्व के बारे में जागरूक करना चाहिए।
मृदा संरक्षण के लाभ निम्नलिखित हैं:
- मृदा की उर्वरता और उत्पादकता को बनाए रखना।
- बाढ़ और सूखे को रोकने में मदद करना।
- पर्यावरण को स्वच्छ और स्वस्थ रखना।
- मानव जीवन की गुणवत्ता में सुधार करना।
मृदा एक सीमित संसाधन है। इसलिए, इसका संरक्षण करना आवश्यक है। मृदा संरक्षण के लिए सभी को मिलकर प्रयास करने चाहिए।
29. विस्तारपूर्वक बताएँ कि मानव क्रियाएँ किस प्रकार प्राकृतिक वनस्पति और वन्यजीवों के ह्रास के कारक हैं ?
मानव क्रियाएँ प्राकृतिक वनस्पति और वन्यजीवों के ह्रास के प्रमुख कारक हैं। इन क्रियाओं के कारण वनों का कटाव, वन्यजीवों का शिकार, और प्रदूषण जैसे समस्याएँ उत्पन्न होती हैं, जो प्राकृतिक वनस्पति और वन्यजीवों के अस्तित्व के लिए खतरा पैदा करती हैं।
वनों का कटाव
वनों का कटाव प्राकृतिक वनस्पति के ह्रास का सबसे प्रमुख कारण है। वनों का कटाव विभिन्न कारणों से होता है, जिनमें कृषि, पशुचारण, उद्योग, और शहरीकरण शामिल हैं। कृषि के लिए भूमि की आवश्यकता के कारण वनों का कटाव किया जाता है। पशुचारण के कारण भी वनों का कटाव होता है, क्योंकि पशु वनों के पेड़ों को खाते हैं और उनकी शाखाओं को तोड़ते हैं। उद्योगों के विकास के लिए भी वनों का कटाव किया जाता है। शहरीकरण के कारण भी वनों का कटाव होता है, क्योंकि शहरों के विस्तार के लिए वनों की भूमि का उपयोग किया जाता है।
वनों का कटाव प्राकृतिक वनस्पति के ह्रास का कारण बनता है, क्योंकि वृक्ष पौधों के लिए भोजन और आवास प्रदान करते हैं। वनों का कटाव के कारण पौधों की प्रजातियाँ विलुप्त हो जाती हैं और पारिस्थितिक तंत्र को नुकसान पहुँचता है।
वन्यजीवों का शिकार
वन्यजीवों का शिकार भी प्राकृतिक वनस्पति और वन्यजीवों के ह्रास का एक प्रमुख कारण है। वन्यजीवों का शिकार भोजन, व्यापार, और मनोरंजन के लिए किया जाता है। भोजन के लिए वन्यजीवों का शिकार मुख्य रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में किया जाता है। व्यापार के लिए वन्यजीवों का शिकार मुख्य रूप से शहरी क्षेत्रों में किया जाता है। मनोरंजन के लिए वन्यजीवों का शिकार मुख्य रूप से पर्यटन स्थलों पर किया जाता है।
वन्यजीवों का शिकार प्राकृतिक वनस्पति के ह्रास का कारण बनता है, क्योंकि वन्यजीव पौधों के बीजों का प्रसार करते हैं और कीटों को नियंत्रित करते हैं। वन्यजीवों का शिकार के कारण पौधों की प्रजातियों को नुकसान पहुँचता है और पर्यावरणीय संतुलन बिगड़ जाता है।
प्रदूषण
प्रदूषण भी प्राकृतिक वनस्पति और वन्यजीवों के ह्रास का एक प्रमुख कारण है। प्रदूषण के कारण वृक्षों की वृद्धि रुक जाती है और उनकी मृत्यु हो जाती है। प्रदूषण के कारण वन्यजीवों के आवास नष्ट हो जाते हैं और उनके स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचता है।
प्रदूषण के कारण प्राकृतिक वनस्पति और वन्यजीवों के ह्रास को रोकने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:
- वनों का संरक्षण: वनों का संरक्षण प्राकृतिक वनस्पति और वन्यजीवों के ह्रास को रोकने का सबसे प्रभावी उपाय है। वनों का संरक्षण करने के लिए वृक्षारोपण, वनों की कटाई पर प्रतिबंध, और वनों के प्रबंधन में सुधार जैसे उपाय किए जा सकते हैं।
- वन्यजीवों की सुरक्षा: वन्यजीवों की सुरक्षा प्राकृतिक वनस्पति और वन्यजीवों के ह्रास को रोकने के लिए आवश्यक है। वन्यजीवों की सुरक्षा के लिए वन्यजीवों का शिकार पर प्रतिबंध, वन्यजीव अभयारण्यों की स्थापना, और वन्यजीवों के संरक्षण के लिए जन जागरूकता जैसे उपाय किए जा सकते हैं।
- प्रदूषण नियंत्रण: प्रदूषण नियंत्रण प्राकृतिक वनस्पति और वन्यजीवों के ह्रास को रोकने के लिए आवश्यक है। प्रदूषण नियंत्रण के लिए औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाले प्रदूषण को नियंत्रित करना, वाहनों से निकलने वाले प्रदूषण को नियंत्रित करना, और घरेलू प्रदूषण को नियंत्रित करना जैसे उपाय किए जा सकते हैं।
मानव क्रियाओं के कारण प्राकृतिक वनस्पति और वन्यजीवों का ह्रास एक गंभीर समस्या है। इस समस्या को रोकने के लिए सभी को मिलकर प्रयास करने चाहिए।
30. विभिन्न प्रकार के भारतीय वनों का तलनात्मक विवरण परस्तुत करें। इनमें किसे सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है ? और क्यों ?
भारतीय वनों का तलनात्मक विवरण
भारत में विभिन्न प्रकार के वन पाए जाते हैं, जिनका वर्गीकरण उनकी जलवायु, मिट्टी, और वनस्पति के आधार पर किया जाता है। इनमें से प्रमुख प्रकार के वन निम्नलिखित हैं:
- उष्णकटिबंधीय वर्षा वन
उष्णकटिबंधीय वर्षा वन भारत के पूर्वी तट पर पाए जाते हैं। ये वन वर्ष भर वर्षा प्राप्त करते हैं और इनमें सदाबहार वृक्ष पाए जाते हैं। इन वनों में विभिन्न प्रकार के पौधे और वन्यजीव पाए जाते हैं। इन वनों को भारत के सबसे महत्वपूर्ण वनों में से एक माना जाता है।
- उष्णकटिबंधीय नम पर्णपाती वन
उष्णकटिबंधीय नम पर्णपाती वन भारत के पश्चिमी तट, मध्य भारत, और उत्तरी भारत में पाए जाते हैं। ये वन वर्ष भर वर्षा प्राप्त करते हैं, लेकिन इनमें शुष्क मौसम भी होता है। इन वनों में सदाबहार और पर्णपाती दोनों प्रकार के वृक्ष पाए जाते हैं। इन वनों में विभिन्न प्रकार के पौधे और वन्यजीव पाए जाते हैं।
- उष्णकटिबंधीय शुष्क पर्णपाती वन
उष्णकटिबंधीय शुष्क पर्णपाती वन भारत के उत्तरी और पश्चिमी भागों में पाए जाते हैं। ये वन वर्ष भर वर्षा प्राप्त नहीं करते हैं और इनमें शुष्क मौसम लंबा होता है। इन वनों में केवल पर्णपाती वृक्ष पाए जाते हैं। इन वनों में विभिन्न प्रकार के पौधे और वन्यजीव पाए जाते हैं।
- मानसूनी वन
मानसूनी वन भारत के उत्तरी और मध्य भागों में पाए जाते हैं। ये वन वर्ष में केवल एक बार वर्षा प्राप्त करते हैं। इन वनों में पर्णपाती और सदाबहार दोनों प्रकार के वृक्ष पाए जाते हैं। इन वनों में विभिन्न प्रकार के पौधे और वन्यजीव पाए जाते हैं।
- शीतोष्ण पर्णपाती वन
शीतोष्ण पर्णपाती वन भारत के उत्तरी भागों में पाए जाते हैं। ये वन वर्ष में चार मौसमों का अनुभव करते हैं। इन वनों में केवल पर्णपाती वृक्ष पाए जाते हैं। इन वनों में विभिन्न प्रकार के पौधे और वन्यजीव पाए जाते हैं।
- शीतोष्ण सदाबहार वन
शीतोष्ण सदाबहार वन भारत के उत्तरी भागों में पाए जाते हैं। ये वन वर्ष में चार मौसमों का अनुभव करते हैं। इन वनों में सदाबहार वृक्ष पाए जाते हैं। इन वनों में विभिन्न प्रकार के पौधे और वन्यजीव पाए जाते हैं।
इनमें से सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण वन उष्णकटिबंधीय वर्षा वन हैं। इन वनों को भारत के सबसे महत्वपूर्ण वनों में से एक माना जाता है, क्योंकि ये निम्नलिखित कारणों से महत्त्वपूर्ण हैं:
- ये वन भारत की जैव विविधता के लिए महत्वपूर्ण हैं। इन वनों में विभिन्न प्रकार के पौधे और वन्यजीव पाए जाते हैं, जिनमें से कई विलुप्त होने के कगार पर हैं।
- ये वन भारत की जलवायु और पर्यावरण को संतुलित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये वन वर्षा प्रदान करते हैं और मिट्टी को अपरदन से बचाते हैं।
- ये वन भारत की आर्थिक गतिविधियों के लिए भी महत्वपूर्ण हैं। इन वनों से लकड़ी, फल, और औषधीय पौधे प्राप्त होते हैं।
इन वनों के संरक्षण के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:
- वनों की कटाई पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए।
- वनों के प्रबंधन में सुधार किया जाना चाहिए।
- वृक्षारोपण किया जाना चाहिए।
- जन जागरूकता फैलाई जानी चाहिए।
31. भारत में पायी जाने वाली मिट्टी को कितने वर्गों में बाँटा गया है ?किन्हीं तीन प्रकार की मिट्टी की विशेषताओं और उनके क्षेत्र को लिखें।
भारत में पायी जाने वाली मिट्टी को मुख्य रूप से 8 वर्गों में बाँटा गया है, जिनके नाम और विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
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जलोढ़ मिट्टी (Alluvial Soil): यह भारत में सबसे अधिक पाई जाने वाली मिट्टी है। यह नदियों द्वारा लायी गयी मिट्टी से बनी होती है। यह मिट्टी उपजाऊ होती है और विभिन्न प्रकार की फसलों के लिए उपयुक्त होती है। यह मिट्टी भारत के उत्तरी और पूर्वी भागों में पायी जाती है।
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काली मिट्टी (Black Soil): यह मिट्टी भारत में दूसरी सबसे अधिक पाई जाने वाली मिट्टी है। यह मिट्टी लौह ऑक्साइड और कार्बन डाइऑक्साइड से बनी होती है। यह मिट्टी उपजाऊ होती है और कपास, मूंगफली, और दलहन फसलों के लिए उपयुक्त होती है। यह मिट्टी भारत के मध्य और पश्चिमी भागों में पायी जाती है।
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लाल और पीली मिट्टी (Red and Yellow Soil): यह मिट्टी भारत में तीसरी सबसे अधिक पाई जाने वाली मिट्टी है। यह मिट्टी सिलिका और ऑक्साइड से बनी होती है। यह मिट्टी उपजाऊ होती है, लेकिन कम पानी धारण करने की क्षमता रखती है। यह मिट्टी भारत के दक्षिणी और पश्चिमी भागों में पायी जाती है।
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जंगली मिट्टी (Forest Soil): यह मिट्टी भारत में चौथी सबसे अधिक पाई जाने वाली मिट्टी है। यह मिट्टी जंगलों में पायी जाती है। यह मिट्टी उपजाऊ नहीं होती है, क्योंकि इसमें पोषक तत्वों की कमी होती है। यह मिट्टी भारत के पूर्वी और उत्तरी भागों में पायी जाती है।
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मरु मिट्टी (Desert Soil): यह मिट्टी भारत में पाँचवी सबसे अधिक पाई जाने वाली मिट्टी है। यह मिट्टी मरुस्थलों में पायी जाती है। यह मिट्टी उपजाऊ नहीं होती है, क्योंकि इसमें पानी और पोषक तत्वों की कमी होती है। यह मिट्टी भारत के पश्चिमी भागों में पायी जाती है।
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लैटेराइट मिट्टी (Laterite Soil): यह मिट्टी भारत में छठी सबसे अधिक पाई जाने वाली मिट्टी है। यह मिट्टी गर्म और आर्द्र जलवायु में पायी जाती है। यह मिट्टी उपजाऊ नहीं होती है, क्योंकि इसमें पोषक तत्वों की कमी होती है। यह मिट्टी भारत के दक्षिणी भागों में पायी जाती है।
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नमकीन मिट्टी (Saline Soil): यह मिट्टी भारत में सातवीं सबसे अधिक पाई जाने वाली मिट्टी है। यह मिट्टी समुद्र के किनारे या नदियों के मुहाने पर पायी जाती है। यह मिट्टी उपजाऊ नहीं होती है, क्योंकि इसमें नमक की मात्रा अधिक होती है। यह मिट्टी भारत के पश्चिमी और दक्षिणी भागों में पायी जाती है।
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पीट मिट्टी (Peat Soil): यह मिट्टी भारत में आठवीं सबसे अधिक पाई जाने वाली मिट्टी है। यह मिट्टी दलदलों में पायी जाती है। यह मिट्टी उपजाऊ नहीं होती है, क्योंकि इसमें हवा की कमी होती है। यह मिट्टी भारत के पूर्वी भागों में पायी जाती है।
इनमें से जलोढ़ मिट्टी और काली मिट्टी भारत की दो सबसे उपजाऊ मिट्टियाँ हैं। इन मिट्टियों में विभिन्न प्रकार की फसलों के लिए आवश्यक पोषक तत्व पाए जाते हैं।
32. वृक्षों के घनत्व के आधार पर वनों का वर्गीकरण कीजिए और सभी वनों का वर्णन विस्तार से कीजिए।
वृक्षों के घनत्व के आधार पर वनों का वर्गीकरण
वृक्षों के घनत्व के आधार पर वनों को निम्नलिखित चार वर्गों में बांटा जा सकता है:
- अत्यधिक सघन वन: इन वनों में वृक्षों का घनत्व 75% से अधिक होता है। इन वनों में प्रकाश की कमी होती है और केवल सदाबहार वृक्ष पाए जाते हैं।
- सघन वन: इन वनों में वृक्षों का घनत्व 50% से 75% होता है। इन वनों में प्रकाश की मात्रा मध्यम होती है और सदाबहार और पर्णपाती दोनों प्रकार के वृक्ष पाए जाते हैं।
- खुले वन: इन वनों में वृक्षों का घनत्व 25% से 50% होता है। इन वनों में प्रकाश की मात्रा अधिक होती है और पर्णपाती वृक्षों की संख्या अधिक होती है।
- झाड़ियाँ और अन्य वन: इन वनों में वृक्षों का घनत्व 25% से कम होता है। इन वनों में झाड़ियाँ और अन्य छोटे पौधे अधिक पाए जाते हैं।
अत्यधिक सघन वन
अत्यधिक सघन वन भारत के पूर्वी तट पर पाए जाते हैं। ये वन वर्ष भर वर्षा प्राप्त करते हैं और इनमें सदाबहार वृक्ष पाए जाते हैं। इन वनों में विभिन्न प्रकार के पौधे और वन्यजीव पाए जाते हैं। इन वनों को भारत के सबसे महत्वपूर्ण वनों में से एक माना जाता है।
सघन वन
सघन वन भारत के पश्चिमी तट, मध्य भारत, और उत्तरी भारत में पाए जाते हैं। ये वन वर्ष भर वर्षा प्राप्त करते हैं, लेकिन इनमें शुष्क मौसम भी होता है। इन वनों में सदाबहार और पर्णपाती दोनों प्रकार के वृक्ष पाए जाते हैं। इन वनों में विभिन्न प्रकार के पौधे और वन्यजीव पाए जाते हैं।
खुले वन
खुले वन भारत के उत्तरी और पश्चिमी भागों में पाए जाते हैं। ये वन वर्ष भर वर्षा प्राप्त नहीं करते हैं और इनमें शुष्क मौसम लंबा होता है। इन वनों में केवल पर्णपाती वृक्ष पाए जाते हैं। इन वनों में विभिन्न प्रकार के पौधे और वन्यजीव पाए जाते हैं।
झाड़ियाँ और अन्य वन
झाड़ियाँ और अन्य वन भारत के मरुस्थलीय क्षेत्रों और अर्धशुष्क क्षेत्रों में पाए जाते हैं। ये वन वर्ष भर वर्षा प्राप्त नहीं करते हैं और इनमें शुष्क मौसम लंबा होता है। इन वनों में झाड़ियाँ और अन्य छोटे पौधे अधिक पाए जाते हैं। इन वनों में विभिन्न प्रकार के पौधे और वन्यजीव पाए जाते हैं।
वनों के महत्व
वन हमारे लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। वनों के निम्नलिखित महत्व हैं:
- वन पर्यावरण को संतुलित करने में मदद करते हैं। ये वन वर्षा प्रदान करते हैं, मिट्टी को अपरदन से बचाते हैं, और वायु को शुद्ध करते हैं।
- वन जैव विविधता के लिए महत्वपूर्ण हैं। इन वनों में विभिन्न प्रकार के पौधे और वन्यजीव पाए जाते हैं।
- वन आर्थिक गतिविधियों के लिए भी महत्वपूर्ण हैं। इन वनों से लकड़ी, फल, और औषधीय पौधे प्राप्त होते हैं।
वन संरक्षण
वनों के महत्व को देखते हुए इनके संरक्षण के लिए आवश्यक है। वनों के संरक्षण के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:
- वनों की कटाई पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए।
- वनों के प्रबंधन में सुधार किया जाना चाहिए।
- वृक्षारोपण किया जाना चाहिए।
- जन जागरूकता फैलाई जानी चाहिए।
33. जल विद्युत उत्पादन हेतु अनुकूल भौगोलिक एवं आर्थिक कारकों का विवेचना करें।
जल विद्युत उत्पादन हेतु अनुकूल भौगोलिक कारक
जल विद्युत उत्पादन हेतु निम्नलिखित भौगोलिक कारक अनुकूल होते हैं:
- जल प्रवाह की उपलब्धता: जल विद्युत उत्पादन के लिए पर्याप्त मात्रा में जल प्रवाह की आवश्यकता होती है। जल प्रवाह की उपलब्धता नदियों, झीलों, और जलाशयों से प्राप्त की जा सकती है।
- जल प्रवाह की तीव्रता: जल विद्युत उत्पादन के लिए जल प्रवाह की तीव्रता भी महत्वपूर्ण होती है। जल प्रवाह की तीव्रता अधिक होने पर अधिक विद्युत उत्पादन किया जा सकता है।
- जल प्रवाह की स्थिरता: जल विद्युत उत्पादन के लिए जल प्रवाह की स्थिरता भी आवश्यक होती है। जल प्रवाह की स्थिरता अधिक होने पर विद्युत उत्पादन को नियंत्रित करना आसान होता है।
- जल प्रवाह की दिशा: जल विद्युत उत्पादन के लिए जल प्रवाह की दिशा भी महत्वपूर्ण होती है। जल प्रवाह की दिशा सही होने पर अधिक विद्युत उत्पादन किया जा सकता है।
जल विद्युत उत्पादन हेतु अनुकूल आर्थिक कारक
जल विद्युत उत्पादन हेतु निम्नलिखित आर्थिक कारक अनुकूल होते हैं:
- जल विद्युत उत्पादन की लागत: जल विद्युत उत्पादन की लागत अन्य ऊर्जा स्रोतों की तुलना में कम होती है।
- जल विद्युत उत्पादन की दक्षता: जल विद्युत उत्पादन की दक्षता अन्य ऊर्जा स्रोतों की तुलना में अधिक होती है।
- जल विद्युत उत्पादन का पर्यावरणीय प्रभाव: जल विद्युत उत्पादन का पर्यावरणीय प्रभाव अन्य ऊर्जा स्रोतों की तुलना में कम होता है।
निष्कर्ष
जल विद्युत उत्पादन एक महत्वपूर्ण ऊर्जा स्रोत है। यह अन्य ऊर्जा स्रोतों की तुलना में अधिक किफायती, कुशल, और पर्यावरण अनुकूल है। जल विद्युत उत्पादन के लिए अनुकूल भौगोलिक और आर्थिक कारक मौजूद होने पर यह एक लाभदायक व्यवसाय हो सकता है।
34. .भारत की किन्ही चार परमाणु विद्युत गृह का उल्लेख कीजिए एवं उनकी विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए।
भारत की चार प्रमुख परमाणु विद्युत गृह निम्नलिखित हैं:
तारापुर परमाणु ऊर्जा संयंत्र
- स्थान: तारापुर, महाराष्ट्र
- स्थापना: 1969
- प्रकार: दबावयुक्त भारी जल रिएक्टर (PHWR)
- क्षमता: 440 मेगावाट (प्रत्येक इकाई)
- कुल क्षमता: 1760 मेगावाट
राजस्थान परमाणु ऊर्जा संयंत्र
- स्थान: कोटा, राजस्थान
- स्थापना: 1973
- प्रकार: दबावयुक्त भारी जल रिएक्टर (PHWR)
- क्षमता: 220 मेगावाट (प्रत्येक इकाई)
- कुल क्षमता: 440 मेगावाट
केंद्रीय परमाणु ऊर्जा अनुसंधान संस्थान (BARC)
- स्थान: ट्रॉम्बे, मुंबई
- स्थापना: 1954
- प्रकार: प्रौद्योगिकी विकास और अनुसंधान
तमिलनाडु परमाणु ऊर्जा निगम (TANGS)
- स्थान: कुडनकुलम, तमिलनाडु
- स्थापना: 1987
- प्रकार: भारी जल रिएक्टर (PHWR) और जल-भारी जल रिएक्टर (BWR)
- क्षमता: 500 मेगावाट (प्रत्येक इकाई)
- कुल क्षमता: 4500 मेगावाट
विशेषताएँ
- तारापुर और राजस्थान परमाणु ऊर्जा संयंत्र दबावयुक्त भारी जल रिएक्टर (PHWR) प्रकार के हैं। इन रिएक्टरों में भारी जल (D2O) को न्यूट्रॉन मॉडरेटर के रूप में उपयोग किया जाता है।
- केंद्रीय परमाणु ऊर्जा अनुसंधान संस्थान (BARC) भारत की प्रमुख परमाणु अनुसंधान संस्थान है। यह संस्थान परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में प्रौद्योगिकी विकास और अनुसंधान कार्य करती है।
- तमिलनाडु परमाणु ऊर्जा निगम (TANGS) भारत की प्रमुख परमाणु ऊर्जा कंपनी है। यह कंपनी तमिलनाडु राज्य में परमाणु ऊर्जा संयंत्र स्थापित और संचालित करती है।
परमाणु ऊर्जा के लाभ और चुनौतियाँ
परमाणु ऊर्जा एक महत्वपूर्ण ऊर्जा स्रोत है। यह अन्य ऊर्जा स्रोतों की तुलना में अधिक कुशल और पर्यावरण अनुकूल है। परमाणु ऊर्जा के कुछ लाभ निम्नलिखित हैं:
- यह एक स्वच्छ ऊर्जा स्रोत है। परमाणु ऊर्जा संयंत्र से कोई वायु प्रदूषण या ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन नहीं होता है।
- यह एक विश्वसनीय ऊर्जा स्रोत है। परमाणु ऊर्जा संयंत्र लगातार विद्युत उत्पादन कर सकते हैं, चाहे मौसम की स्थिति कैसी भी हो।
- यह एक अपेक्षाकृत किफायती ऊर्जा स्रोत है। परमाणु ऊर्जा संयंत्र अन्य ऊर्जा स्रोतों की तुलना में कम लागत पर विद्युत उत्पादन कर सकते हैं।
हालाँकि, परमाणु ऊर्जा के कुछ चुनौतियाँ भी हैं। इनमें शामिल हैं:
- परमाणु सुरक्षा: परमाणु ऊर्जा संयंत्रों में दुर्घटनाओं की संभावना होती है। इन दुर्घटनाओं से पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य को गंभीर नुकसान हो सकता है।
- परमाणु कचरा: परमाणु ऊर्जा संयंत्रों से निकलने वाला कचरा रेडियोधर्मी होता है। इस कचरे का सुरक्षित निपटान करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है।
भारत में परमाणु ऊर्जा का महत्व
भारत में परमाणु ऊर्जा का महत्व बढ़ता जा रहा है। भारत की बढ़ती ऊर्जा मांग को पूरा करने के लिए परमाणु ऊर्जा एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। भारत सरकार परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में निवेश बढ़ा रही है। भारत का लक्ष्य है कि 2030 तक देश की कुल बिजली उत्पादन क्षमता में परमाणु ऊर्जा की हिस्सेदारी 25% तक
35. संक्षिप्त भौगोलिक टिप्पणी लिखें। भाखड़ा नांगल परियोजना, दामोदर घाटी परियोजना, कोसी परियोजना और तुंगभद्रा परियोजना।
भाखड़ा नांगल परियोजना
भाखड़ा नांगल परियोजना पंजाब और हिमाचल प्रदेश की एक बहुउद्देशीय परियोजना है। यह सतलज नदी पर स्थित है। इस परियोजना का निर्माण 1950 के दशक में हुआ था। इस परियोजना का उद्देश्य जलविद्युत उत्पादन, सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण है।
भाखड़ा नांगल परियोजना के भौगोलिक महत्व निम्नलिखित हैं:
- यह परियोजना पंजाब और हिमाचल प्रदेश के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
- यह परियोजना पंजाब और हिमाचल प्रदेश के जल संसाधनों का कुशलतापूर्वक उपयोग करती है।
- यह परियोजना पंजाब और हिमाचल प्रदेश के बाढ़ नियंत्रण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
दामोदर घाटी परियोजना
दामोदर घाटी परियोजना पश्चिम बंगाल, झारखंड और बिहार की एक बहुउद्देशीय परियोजना है। यह दामोदर नदी पर स्थित है। इस परियोजना का निर्माण 1950 के दशक में हुआ था। इस परियोजना का उद्देश्य जलविद्युत उत्पादन, सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण है।
दामोदर घाटी परियोजना के भौगोलिक महत्व निम्नलिखित हैं:
- यह परियोजना पश्चिम बंगाल, झारखंड और बिहार के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
- यह परियोजना पश्चिम बंगाल, झारखंड और बिहार के जल संसाधनों का कुशलतापूर्वक उपयोग करती है।
- यह परियोजना पश्चिम बंगाल, झारखंड और बिहार के बाढ़ नियंत्रण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
कोसी परियोजना
कोसी परियोजना बिहार और नेपाल की एक बहुउद्देशीय परियोजना है। यह कोसी नदी पर स्थित है। इस परियोजना का निर्माण 1950 के दशक में हुआ था। इस परियोजना का उद्देश्य जलविद्युत उत्पादन, सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण है।
कोसी परियोजना के भौगोलिक महत्व निम्नलिखित हैं:
- यह परियोजना बिहार और नेपाल के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
- यह परियोजना बिहार और नेपाल के जल संसाधनों का कुशलतापूर्वक उपयोग करती है।
- यह परियोजना बिहार और नेपाल के बाढ़ नियंत्रण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
तुंगभद्रा परियोजना
तुंगभद्रा परियोजना कर्नाटक और आंध्र प्रदेश की एक बहुउद्देशीय परियोजना है। यह तुंगभद्रा नदी पर स्थित है। इस परियोजना का निर्माण 1960 के दशक में हुआ था। इस परियोजना का उद्देश्य जलविद्युत उत्पादन, सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण है।
तुंगभद्रा परियोजना के भौगोलिक महत्व निम्नलिखित हैं:
- यह परियोजना कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
- यह परियोजना कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के जल संसाधनों का कुशलतापूर्वक उपयोग करती है।
- यह परियोजना कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के बाढ़ नियंत्रण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
इन चारों परियोजनाओं ने भारत के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इन परियोजनाओं ने जल विद्युत उत्पादन, सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इन परियोजनाओं के कारण भारत के कई राज्यों का आर्थिक विकास हुआ है।
36. वन एवं वन्य प्राणियों के महत्त्व का विस्तार से वर्णन कीजिए।
वन एवं वन्य प्राणियों का महत्त्व
वन एवं वन्य प्राणी हमारे पर्यावरण का एक अभिन्न अंग हैं। वे हमारे जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। वन हमारे जीवन को प्रदान करने वाली कई महत्वपूर्ण वस्तुओं और सेवाओं का स्रोत हैं। वहीं, वन्य प्राणी हमारे पारिस्थितिक तंत्र को संतुलित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
वनों का महत्त्व
वन हमारे जीवन के लिए कई प्रकार से महत्त्वपूर्ण हैं। वे हमें निम्नलिखित वस्तुएँ और सेवाएँ प्रदान करते हैं:
- ऑक्सीजन: वन पौधों के माध्यम से प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया द्वारा ऑक्सीजन का उत्पादन करते हैं। यह ऑक्सीजन हमारे जीवन के लिए आवश्यक है।
- पानी: वन वर्षा जल को सोखकर भूमिगत जल स्तर को बनाए रखने में मदद करते हैं। यह जल भूमिगत जल स्रोतों, नदियों और झीलों के माध्यम से हमारे जीवन में आता है।
- खाद्य: वन हमें कई प्रकार के खाद्य पदार्थ प्रदान करते हैं। इनमें फल, सब्जियाँ, नट, बीज, मसालें, और औषधीय पौधे शामिल हैं।
- लकड़ी: वन हमें लकड़ी प्रदान करते हैं जो हमारे जीवन के लिए आवश्यक है। लकड़ी का उपयोग घर बनाने, फर्नीचर बनाने, कागज बनाने, और ईंधन के रूप में किया जाता है।
- पर्यावरण संरक्षण: वन मृदा अपरदन को रोकने, वायु प्रदूषण को कम करने, और जलवायु परिवर्तन को कम करने में मदद करते हैं।
वन्य प्राणियों का महत्त्व
वन्य प्राणी हमारे पारिस्थितिक तंत्र को संतुलित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे निम्नलिखित कार्य करते हैं:
- परागण: कई प्रकार के वन्य प्राणी पौधों के परागण में मदद करते हैं। इससे पौधों का प्रजनन होता है और जैव विविधता बनी रहती है।
- कीट नियंत्रण: कई प्रकार के वन्य प्राणी कीटों को नियंत्रित करने में मदद करते हैं। इससे कृषि फसलों को कीटों से बचाया जाता है।
- खाद्य श्रृंखला का हिस्सा: वन्य प्राणी खाद्य श्रृंखला का हिस्सा हैं। वे एक-दूसरे के आहार का हिस्सा होते हैं। इससे खाद्य श्रृंखला संतुलित रहती है।
वन एवं वन्य प्राणियों के संरक्षण के उपाय
वन एवं वन्य प्राणियों के संरक्षण के लिए निम्नलिखित उपाय किए जाने चाहिए:
- वनों की कटाई को रोकना: वन की कटाई को रोकने के लिए सरकार और आम जनता को मिलकर प्रयास करने चाहिए।
- वन्य प्राणियों के शिकार को रोकना: वन्य प्राणियों के शिकार को रोकने के लिए सरकार कानून बनाकर और आम जनता को जागरूक करके इस समस्या का समाधान कर सकती है।
- वनों और वन्य प्राणियों के संरक्षण के लिए जागरूकता फैलाना: वन और वन्य प्राणियों के महत्त्व के बारे में लोगों को जागरूक करने के लिए सरकार और आम जनता को मिलकर प्रयास करने चाहिए।
वन एवं वन्य प्राणियों का संरक्षण हमारे लिए अत्यंत आवश्यक है। यदि हम इनके संरक्षण के लिए प्रयास नहीं करेंगे तो ये हमारे जीवन के लिए खतरा बन सकते हैं।
37. हिमालय की नदियों से सदा जल मिलता है, पर प्रायद्वीपीय भारत की नदियाँ ऋतु विशेष में ही जलापूरित रहती हैं। क्यों ?
हिमालय की नदियों का जल सदा रहता है, क्योंकि इन नदियों का जल स्रोत हिमालय की बर्फ और हिम हैं। हिमालय की बर्फ और हिम वर्ष भर पिघलती रहती हैं, जिससे इन नदियों में जल का प्रवाह बना रहता है।
प्रायद्वीपीय भारत की नदियों का जल ऋतु विशेष में ही मिलता है, क्योंकि इन नदियों का जल स्रोत वर्षा है। प्रायद्वीपीय भारत में वर्षा का मौसम ग्रीष्म ऋतु से शरद ऋतु तक रहता है। इस दौरान होने वाली वर्षा से इन नदियों में जल का प्रवाह होता है। ग्रीष्म ऋतु समाप्त होने के बाद इन नदियों में जल का प्रवाह कम हो जाता है और शीत ऋतु में इन नदियों में जल का प्रवाह लगभग समाप्त हो जाता है।
हिमालय की नदियों और प्रायद्वीपीय भारत की नदियों के बीच जल प्रवाह में अंतर के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं:
- जल स्रोत में अंतर: हिमालय की नदियों का जल स्रोत हिमालय की बर्फ और हिम है, जबकि प्रायद्वीपीय भारत की नदियों का जल स्रोत वर्षा है।
- जलवायु में अंतर: हिमालय की जलवायु ठंडी और आर्द्र होती है, जबकि प्रायद्वीपीय भारत की जलवायु गर्म और शुष्क होती है।
- भूमि की बनावट में अंतर: हिमालय की नदियों की घाटियाँ गहरी और संकरी होती हैं, जबकि प्रायद्वीपीय भारत की नदियों की घाटियाँ चौड़ी और उथली होती हैं।
हिमालय की नदियों का जल सदा रहता है, इसलिए ये नदियाँ सिंचाई, जल विद्युत उत्पादन, और जल परिवहन के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। प्रायद्वीपीय भारत की नदियों का जल ऋतु विशेष में ही मिलता है, इसलिए इन नदियों का उपयोग सिंचाई और जल विद्युत उत्पादन के लिए सीमित होता है।
38. बायोगैस ऊर्जा पर टिप्पणी लिखें।
बायोगैस ऊर्जा एक नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत है जो पौधों और जानवरों के जैविक पदार्थों के अपघटन से उत्पन्न होती है। यह एक स्वच्छ और पर्यावरण के अनुकूल ऊर्जा स्रोत है।
बायोगैस के मुख्य घटक मीथेन, कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य गैसें हैं। मीथेन एक ज्वलनशील गैस है जिसे ईंधन के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। बायोगैस का उपयोग खाना पकाने, प्रकाश व्यवस्था, और बिजली उत्पादन के लिए किया जा सकता है।
बायोगैस उत्पादन के लिए विभिन्न प्रकार के जैविक पदार्थों का उपयोग किया जा सकता है, जिनमें शामिल हैं:
- पशुओं का गोबर
- पौधों के अवशेष
- वनस्पति पदार्थ
- नगरपालिका ठोस अपशिष्ट
बायोगैस उत्पादन की प्रक्रिया को बायोगैस संयंत्र में किया जाता है। बायोगैस संयंत्र में जैविक पदार्थों को एक बंद कक्ष में रखा जाता है, जहां बैक्टीरिया के द्वारा इन पदार्थों का अपघटन किया जाता है। अपघटन प्रक्रिया के दौरान मीथेन गैस का उत्पादन होता है।
बायोगैस ऊर्जा के निम्नलिखित लाभ हैं:
- यह एक नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत है।
- यह एक स्वच्छ और पर्यावरण के अनुकूल ऊर्जा स्रोत है।
- यह ऊर्जा की लागत को कम करने में मदद कर सकता है।
बायोगैस ऊर्जा के निम्नलिखित उपयोग हैं:
- खाना पकाने
- प्रकाश व्यवस्था
- बिजली उत्पादन
- वाहन ईंधन
भारत में बायोगैस ऊर्जा का उपयोग अभी भी सीमित है। हालांकि, सरकार बायोगैस ऊर्जा के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न कार्यक्रमों और योजनाओं का संचालन कर रही है।
39: शुष्क प्रदेशों में वर्षा जल का भंडारण किस प्रकार किया जाता है ? यह किस प्रकार उपयोगी है ?
शुष्क प्रदेशों में वर्षा जल का भंडारण विभिन्न तरीकों से किया जाता है। इनमें से कुछ प्रमुख तरीके निम्नलिखित हैं:
- तालाब और पोखर: तालाब और पोखर वर्षा जल के भंडारण के लिए सबसे प्राचीन और पारंपरिक तरीका है। इनका निर्माण प्राकृतिक रूप से या कृत्रिम रूप से किया जा सकता है।
- जैव बांध: जैव बांध वर्षा जल के भंडारण के लिए एक प्रभावी तरीका है। इनका निर्माण पेड़ों, झाड़ियों, और अन्य वनस्पतियों के द्वारा किया जाता है।
- छत जल संचयन: छत जल संचयन एक आधुनिक तरीका है। इस विधि में घरों और अन्य भवनों की छतों से वर्षा जल को एकत्र किया जाता है और इसका उपयोग विभिन्न उद्देश्यों के लिए किया जाता है।
- भू-जल संचयन: भू-जल संचयन एक अन्य प्रभावी तरीका है। इस विधि में वर्षा जल को भूमिगत जल स्रोतों में संचित किया जाता है।
शुष्क प्रदेशों में वर्षा जल का भंडारण निम्नलिखित प्रकार से उपयोगी है:
- पीने के लिए: शुष्क प्रदेशों में पीने के पानी की कमी होती है। वर्षा जल का भंडारण पीने के पानी की आपूर्ति के लिए किया जा सकता है।
- सिंचाई के लिए: शुष्क प्रदेशों में सिंचाई के लिए पानी की कमी होती है। वर्षा जल का भंडारण सिंचाई के लिए किया जा सकता है।
- शहरी उपयोग के लिए: शुष्क प्रदेशों में शहरी उपयोग के लिए पानी की कमी होती है। वर्षा जल का भंडारण शहरी उपयोग के लिए किया जा सकता है।
- औद्योगिक उपयोग के लिए: शुष्क प्रदेशों में औद्योगिक उपयोग के लिए पानी की कमी होती है। वर्षा जल का भंडारण औद्योगिक उपयोग के लिए किया जा सकता है।
शुष्क प्रदेशों में वर्षा जल का भंडारण एक महत्वपूर्ण कार्य है। यह जल संसाधनों के संरक्षण और जल संकट को कम करने में मदद करता है।
40 भारत की चार प्रमख नदी घाटी परियोजनाओं का वर्णन करे।
भारत की चार प्रमुख नदी घाटी परियोजनाएँ निम्नलिखित हैं:
भाखड़ा नांगल परियोजना
- यह भारत की सबसे बड़ी बहुउद्देशीय नदी घाटी परियोजना है।
- यह पंजाब और हिमाचल प्रदेश की सतलज नदी पर स्थित है।
- इस परियोजना का निर्माण 1950 के दशक में हुआ था।
- इस परियोजना का उद्देश्य जलविद्युत उत्पादन, सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण है।
दामोदर घाटी परियोजना
- यह भारत की दूसरी सबसे बड़ी बहुउद्देशीय नदी घाटी परियोजना है।
- यह दामोदर नदी पर स्थित है, जो पश्चिम बंगाल, झारखंड और बिहार से होकर बहती है।
- इस परियोजना का निर्माण 1950 के दशक में हुआ था।
- इस परियोजना का उद्देश्य जलविद्युत उत्पादन, सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण है।
कोसी परियोजना
- यह भारत की तीसरी सबसे बड़ी बहुउद्देशीय नदी घाटी परियोजना है।
- यह कोसी नदी पर स्थित है, जो बिहार और नेपाल से होकर बहती है।
- इस परियोजना का निर्माण 1950 के दशक में हुआ था।
- इस परियोजना का उद्देश्य जलविद्युत उत्पादन, सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण है।
तुंगभद्रा परियोजना
- यह भारत की चौथी सबसे बड़ी बहुउद्देशीय नदी घाटी परियोजना है।
- यह तुंगभद्रा नदी पर स्थित है, जो कर्नाटक और आंध्र प्रदेश से होकर बहती है।
- इस परियोजना का निर्माण 1960 के दशक में हुआ था।
- इस परियोजना का उद्देश्य जलविद्युत उत्पादन, सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण है।
इन चारों परियोजनाओं ने भारत के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इन परियोजनाओं ने जल विद्युत उत्पादन, सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इन परियोजनाओं के कारण भारत के कई राज्यों का आर्थिक विकास हुआ है।
इन परियोजनाओं के कुछ प्रमुख लाभ निम्नलिखित हैं:
- जलविद्युत उत्पादन: इन परियोजनाओं ने भारत में जल विद्युत उत्पादन में महत्वपूर्ण वृद्धि की है।
- सिंचाई: इन परियोजनाओं ने भारत में सिंचाई के क्षेत्रफल में महत्वपूर्ण वृद्धि की है।
- बाढ़ नियंत्रण: इन परियोजनाओं ने भारत में बाढ़ नियंत्रण में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
इन परियोजनाओं के कुछ प्रमुख दुष्प्रभाव भी हैं, जिनमें शामिल हैं:
- पर्यावरणीय प्रभाव: इन परियोजनाओं का पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। इन परियोजनाओं ने वनों की कटाई, मृदा अपरदन, और जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याओं को बढ़ावा दिया है।
- सामाजिक प्रभाव: इन परियोजनाओं ने लोगों के विस्थापन और सामाजिक संघर्ष जैसी समस्याओं को जन्म दिया है।
इन परियोजनाओं के लाभों और दुष्प्रभावों को ध्यान में रखते हुए, इन परियोजनाओं को और अधिक योजनाबद्ध और सतत तरीके से लागू करने की आवश्यकता है।
41. जल किस प्रकार एक दुर्लभ संसाधन है ?
जल एक दुर्लभ संसाधन है क्योंकि:
-
जल की उपलब्धता सीमित है। पृथ्वी का लगभग 71% भाग जल से ढका हुआ है, लेकिन इसका अधिकांश भाग खारा है। केवल 2.5% भाग मीठा पानी है, और इसका अधिकांश भाग हिम और बर्फ के रूप में जमा हुआ है। केवल 0.7% भाग ही ताजे पानी के रूप में उपलब्ध है, और इसका अधिकांश भाग महासागरों और झीलों में है।
-
जल की मांग बढ़ रही है। बढ़ती जनसंख्या, औद्योगीकरण और कृषि के कारण जल की मांग बढ़ रही है।
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जल प्रदूषण एक गंभीर समस्या है। जल प्रदूषण के कारण जल की गुणवत्ता खराब हो रही है, जिससे इसका उपयोग कई उद्देश्यों के लिए नहीं किया जा सकता है।
-
जलवायु परिवर्तन जल संसाधनों को प्रभावित कर रहा है। जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा पैटर्न में परिवर्तन हो रहा है, जिससे सूखा, बाढ़ और अन्य जल संबंधी समस्याएं बढ़ रही हैं।
भारत में जल की कमी एक गंभीर समस्या है। भारत की कुल आबादी का लगभग 60% हिस्सा जल की कमी वाले क्षेत्रों में रहता है। इस स्थिति में सुधार के लिए जल संसाधनों के संरक्षण और कुशल उपयोग पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
जल संरक्षण के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:
- वर्षा जल संचयन: वर्षा जल का संचयन करके इसका उपयोग विभिन्न उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है।
- जल उपयोग में दक्षता में सुधार: जल उपयोग में दक्षता में सुधार करके जल की बचत की जा सकती है।
- जल प्रदूषण को रोकना: जल प्रदूषण को रोककर जल की गुणवत्ता को बनाए रखा जा सकता है।
जल संरक्षण के लिए जन जागरूकता बढ़ाना भी महत्वपूर्ण है। लोगों को जल के महत्व और जल संरक्षण के तरीकों के बारे में जागरूक किया जाना चाहिए।
42. बहुउद्देशीय नदी घाटी परियोजना क्या है? इसके लाभ/ हानि को बताएँ।
बहुउद्देशीय नदी घाटी परियोजना एक ऐसी परियोजना है जो एक नदी घाटी के जल संसाधनों का उपयोग विभिन्न उद्देश्यों के लिए करती है। इन उद्देश्यों में जलविद्युत उत्पादन, सिंचाई, बाढ़ नियंत्रण, पेयजल आपूर्ति, और जल परिवहन शामिल हैं।
बहुउद्देशीय नदी घाटी परियोजनाओं के कई लाभ हैं, जिनमें शामिल हैं:
- जलविद्युत उत्पादन: ये परियोजनाएं जलविद्युत उत्पादन में महत्वपूर्ण योगदान देती हैं। जलविद्युत एक स्वच्छ और नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत है जो पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचाता है।
- सिंचाई: ये परियोजनाएं सिंचाई के क्षेत्रफल में महत्वपूर्ण वृद्धि करती हैं। सिंचाई से कृषि उत्पादन में वृद्धि होती है और खाद्य सुरक्षा में सुधार होता है।
- बाढ़ नियंत्रण: ये परियोजनाएं बाढ़ नियंत्रण में महत्वपूर्ण योगदान देती हैं। बाढ़ नियंत्रण से जन धन और जीवन की हानि को रोका जा सकता है।
- पेयजल आपूर्ति: ये परियोजनाएं पेयजल आपूर्ति में महत्वपूर्ण योगदान देती हैं। पेयजल आपूर्ति से लोगों के स्वास्थ्य और कल्याण में सुधार होता है।
- जल परिवहन: ये परियोजनाएं जल परिवहन में सुविधा प्रदान करती हैं। जल परिवहन एक सस्ता और पर्यावरण के अनुकूल परिवहन का तरीका है।
बहुउद्देशीय नदी घाटी परियोजनाओं के कुछ हानि भी हैं, जिनमें शामिल हैं:
- पर्यावरणीय प्रभाव: इन परियोजनाओं का पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इन परियोजनाओं ने वनों की कटाई, मृदा अपरदन, और जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याओं को बढ़ावा दिया है।
- सामाजिक प्रभाव: इन परियोजनाओं का सामाजिक प्रभाव भी पड़ता है। इन परियोजनाओं ने लोगों के विस्थापन और सामाजिक संघर्ष जैसी समस्याओं को जन्म दिया है।
बहुउद्देशीय नदी घाटी परियोजनाओं के लाभों और हानि को ध्यान में रखते हुए, इन परियोजनाओं को और अधिक योजनाबद्ध और सतत तरीके से लागू करने की आवश्यकता है। इन परियोजनाओं को लागू करते समय पर्यावरण और सामाजिक प्रभावों को कम करने के लिए उपाय किए जाने चाहिए।
भारत में कई बहुउद्देशीय नदी घाटी परियोजनाएं हैं, जिनमें शामिल हैं:
- भाखड़ा नांगल परियोजना
- दामोदर घाटी परियोजना
- कोसी परियोजना
- तुंगभद्रा परियोजना
इन परियोजनाओं ने भारत के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
43. बढ़ती जनसंख्या, औद्योगिकीकरण तथा शहरीकरण के कारण जल-दुर्लभता कैसे होती है ? व्याख्या करें।
बढ़ती जनसंख्या, औद्योगिकीकरण और शहरीकरण के कारण जल-दुर्लभता निम्नलिखित तरीकों से होती है:
जनसंख्या वृद्धि
जनसंख्या वृद्धि के कारण जल की मांग बढ़ती है। बढ़ती आबादी के लिए पीने के पानी, सिंचाई के पानी, और औद्योगिक उपयोग के लिए पानी की आवश्यकता होती है। इस बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए जल संसाधनों पर दबाव पड़ता है, जिससे जल-दुर्लभता की समस्या बढ़ती है।
औद्योगिकीकरण
औद्योगिकीकरण के कारण जल की मांग भी बढ़ती है। उद्योगों को उत्पादन के लिए पानी की आवश्यकता होती है। इस पानी का उपयोग विभिन्न प्रक्रियाओं, जैसे कि कच्चे माल को धोने, मशीनों को चलाने, और उत्पादों को बनाने के लिए किया जाता है। औद्योगिक जल उपयोग से जल संसाधनों पर अतिरिक्त दबाव पड़ता है, जिससे जल-दुर्लभता की समस्या बढ़ती है।
शहरीकरण
शहरीकरण के कारण भी जल की मांग बढ़ती है। शहरों में रहने वाले लोगों को पीने के पानी, सिंचाई के पानी, और औद्योगिक उपयोग के लिए पानी की आवश्यकता होती है। शहरों में जल संसाधनों की उपलब्धता सीमित होती है, जिससे जल-दुर्लभता की समस्या बढ़ती है।
बढ़ती जनसंख्या, औद्योगिकीकरण और शहरीकरण के कारण जल-दुर्लभता की समस्या को कम करने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:
- जल संरक्षण: जल संरक्षण के उपायों को अपनाकर जल की मांग को कम किया जा सकता है। इन उपायों में शामिल हैं:
- वर्षा जल संचयन
- जल उपयोग में दक्षता में सुधार
- जल प्रदूषण को रोकना
- जल संसाधनों का पुनर्वितरण: जल संसाधनों का पुनर्वितरण करके जल की मांग को संतुलित किया जा सकता है। इस पुनर्वितरण में शामिल हैं:
- अंतर-राज्यीय जल विभाजन
- जल का परिवहन
- जल संसाधनों के विकास: जल संसाधनों के विकास के द्वारा जल की उपलब्धता को बढ़ाया जा सकता है। इस विकास में शामिल हैं:
- बांधों का निर्माण
- जलाशयों का निर्माण
- भूजल संसाधनों का विकास
इन उपायों को अपनाकर जल-दुर्लभता की समस्या को कम किया जा सकता है और जल संसाधनों का संरक्षण किया जा सकता है।
44. भारत में पारंपरिक शक्ति के विभिन्न स्रोतों का विवरण प्रस्तुत करें।
भारत में पारंपरिक शक्ति के विभिन्न स्रोतों में निम्नलिखित शामिल हैं:
- जल शक्ति: भारत में जल शक्ति सबसे महत्वपूर्ण पारंपरिक शक्ति स्रोत है। भारत की कुल बिजली उत्पादन क्षमता का लगभग 25% जल शक्ति से उत्पन्न होता है। भारत में कई बहुउद्देशीय नदी घाटी परियोजनाएं हैं जो जल शक्ति उत्पादन के लिए बांधों का उपयोग करती हैं।
- कोयला: भारत में कोयला सबसे महत्वपूर्ण जीवाश्म ईंधन है। भारत की कुल बिजली उत्पादन क्षमता का लगभग 70% कोयला से उत्पन्न होता है। भारत में कई कोयला खानें हैं जो बिजली उत्पादन के लिए कोयले का उपयोग करती हैं।
- पेट्रोलियम: भारत में पेट्रोलियम एक अन्य महत्वपूर्ण जीवाश्म ईंधन है। भारत की कुल बिजली उत्पादन क्षमता का लगभग 10% पेट्रोलियम से उत्पन्न होता है। भारत में कई तेल रिफाइनरी हैं जो बिजली उत्पादन के लिए पेट्रोलियम का उपयोग करती हैं।
- कृषि अपशिष्ट: भारत में कृषि अपशिष्ट एक महत्वपूर्ण नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत है। भारत में कई बायोगैस संयंत्र हैं जो कृषि अपशिष्ट से बायोगैस का उत्पादन करते हैं। बायोगैस का उपयोग बिजली उत्पादन, खाना पकाने और हीटिंग के लिए किया जा सकता है।
- वन अपशिष्ट: भारत में वन अपशिष्ट भी एक महत्वपूर्ण नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत है। भारत में कई लकड़ी आधारित बिजली संयंत्र हैं जो वन अपशिष्ट से बिजली का उत्पादन करते हैं।
भारत में पारंपरिक शक्ति के स्रोतों के कुछ लाभ और हानि निम्नलिखित हैं:
लाभ:
- पारंपरिक शक्ति स्रोत विश्वसनीय और स्थिर हैं।
- पारंपरिक शक्ति स्रोतों को बड़े पैमाने पर उपयोग किया जा सकता है।
- पारंपरिक शक्ति स्रोतों का उपयोग करने की तकनीकें अच्छी तरह से विकसित हैं।
हानि:
- पारंपरिक शक्ति स्रोत प्रदूषण का कारण बन सकते हैं।
- पारंपरिक शक्ति स्रोतों के उपयोग से ऊर्जा की लागत अधिक हो सकती है।
- पारंपरिक शक्ति स्रोतों की आपूर्ति सीमित हो सकती है।
भारत में पारंपरिक शक्ति के स्रोतों का उपयोग भविष्य में भी जारी रहने की संभावना है। हालांकि, प्रदूषण को कम करने और ऊर्जा की लागत को कम करने के लिए पारंपरिक शक्ति स्रोतों के उपयोग में सुधार करने की आवश्यकता है।
45. जल संरक्षण से क्या समझते हैं? इसके क्या उपाय हैं ?
जल संरक्षण का अर्थ है जल के उपयोग को कम करना और जल के अपव्यय को रोकना। जल एक महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन है, जिसका उपयोग विभिन्न उद्देश्यों के लिए किया जाता है, जैसे कि पीने, सिंचाई, औद्योगिक उपयोग, और मनोरंजन। बढ़ती जनसंख्या, औद्योगिकीकरण, और शहरीकरण के कारण जल की मांग बढ़ रही है। इस बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए जल संसाधनों पर दबाव पड़ रहा है, जिससे जल-दुर्लभता की समस्या बढ़ रही है।
जल संरक्षण के निम्नलिखित उपाय हैं:
- वर्षा जल संचयन: वर्षा जल संचयन एक प्राकृतिक जल संसाधन है, जिसे वर्षा के पानी को संग्रहित करके उपयोग किया जा सकता है। वर्षा जल संचयन के लिए छत के पानी को इकट्ठा करने के लिए टैंक, कुंड, या अन्य संरचनाओं का उपयोग किया जा सकता है। वर्षा जल का उपयोग सिंचाई, घरेलू उपयोग, और औद्योगिक उपयोग के लिए किया जा सकता है।
- जल उपयोग में दक्षता में सुधार: जल उपयोग में दक्षता में सुधार करके जल की मांग को कम किया जा सकता है। जल उपयोग में दक्षता में सुधार के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:
- पानी के रिसाव को रोकना: पानी के रिसाव को रोकने के लिए घरों, इमारतों, और अन्य संरचनाओं की नियमित मरम्मत और रखरखाव करना चाहिए।
- जल-कुशल उपकरणों का उपयोग करना: जल-कुशल उपकरणों का उपयोग करके जल की खपत को कम किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, जल-कुशल शौचालय, शावर हेड, और वाशिंग मशीन का उपयोग करके जल की खपत को कम किया जा सकता है।
- कम पानी की आवश्यकता वाले पौधे लगाना: कम पानी की आवश्यकता वाले पौधे लगाकर जल की खपत को कम किया जा सकता है।
- जल प्रदूषण को रोकना: जल प्रदूषण को रोककर जल की गुणवत्ता को बनाए रखा जा सकता है। जल प्रदूषण को रोकने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:
- औद्योगिक और कृषि अपशिष्ट को जल स्रोतों में छोड़ने से रोकना।
- घरेलू अपशिष्ट को जल स्रोतों में छोड़ने से पहले उपचार करना।
- जल स्रोतों को प्रदूषित करने वाले पदार्थों का उपयोग कम करना या बंद करना।
जल संरक्षण एक महत्वपूर्ण कार्य है, जिससे जल-दुर्लभता की समस्या को कम किया जा सकता है। जल संरक्षण के लिए सभी को मिलकर प्रयास करने की आवश्यकता है।
46. सतत पोषणीय विकास क्या है? लिखें।
सतत पोषणीय विकास एक ऐसा विकास है जो वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं को पूरा करते हुए भविष्य की पीढ़ियों की आवश्यकताओं को पूरा करने की क्षमता को प्रभावित किए बिना किया जाता है। यह विकास की एक ऐसी प्रक्रिया है जो आर्थिक, सामाजिक, और पर्यावरणीय रूप से टिकाऊ हो।
सतत पोषणीय विकास की तीन मुख्य विशेषताएं हैं:
- आर्थिक स्थिरता: आर्थिक स्थिरता का अर्थ है कि विकास आर्थिक विकास को बढ़ावा देता है, लेकिन यह विकास गरीबी, असमानता, और अन्य सामाजिक-आर्थिक समस्याओं को कम करता है।
- सामाजिक न्याय: सामाजिक न्याय का अर्थ है कि विकास सभी लोगों के लिए समान अवसर प्रदान करता है, और यह विकास सभी लोगों के लिए बेहतर जीवन की गुणवत्ता सुनिश्चित करता है।
- पर्यावरणीय संरक्षण: पर्यावरणीय संरक्षण का अर्थ है कि विकास पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचाता है, और यह विकास पर्यावरणीय संसाधनों की उपलब्धता और गुणवत्ता को बनाए रखने में मदद करता है।
सतत पोषणीय विकास के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:
- ऊर्जा दक्षता में सुधार: ऊर्जा दक्षता में सुधार करके ऊर्जा की खपत को कम किया जा सकता है, जिससे पर्यावरणीय प्रदूषण को कम करने में मदद मिलती है।
- नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग: नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग करके जीवाश्म ईंधनों पर निर्भरता को कम किया जा सकता है, जिससे जलवायु परिवर्तन को कम करने में मदद मिलती है।
- प्रदूषण को कम करना: प्रदूषण को कम करके पर्यावरण की गुणवत्ता को बनाए रखा जा सकता है।
- वनों की कटाई को रोकना: वनों की कटाई को रोककर जैव विविधता को संरक्षित किया जा सकता है।
सतत पोषणीय विकास एक महत्वपूर्ण लक्ष्य है, जिसे प्राप्त करने के लिए सभी को मिलकर प्रयास करने की आवश्यकता है।
47. भारत में अत्यधिक पशुधन होने के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था में इसका योगदान लगभग नगण्य है। स्पष्ट करें।
भारत में अत्यधिक पशुधन होने के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था में इसका योगदान लगभग नगण्य है, इसके निम्नलिखित कारण हैं:
- पशुधन उत्पादन में कुशलता की कमी: भारत में पशुधन उत्पादन में कुशलता की कमी है। पशुओं को कम पौष्टिक आहार दिया जाता है, उनकी देखभाल और प्रबंधन में कम ध्यान दिया जाता है, और उनका स्वास्थ्य देखभाल अच्छी तरह से नहीं किया जाता है। इन सभी कारणों से पशुओं का उत्पादन कम होता है और उनकी उत्पादकता भी कम होती है।
- पशुधन उत्पादों के प्रसंस्करण और विपणन में कम निवेश: भारत में पशुधन उत्पादों के प्रसंस्करण और विपणन में कम निवेश किया जाता है। इससे पशुधन उत्पादों का मूल्यवर्धन नहीं हो पाता है और उनकी कीमतें कम रहती हैं।
- पशुधन क्षेत्र की कम उत्पादकता: भारत में पशुधन क्षेत्र की उत्पादकता कम है। इससे पशुधन उत्पादों की मांग और आपूर्ति में असंतुलन होता है और पशुधन उत्पादों की कीमतें कम रहती हैं।
इन कारणों से भारत में पशुधन क्षेत्र का योगदान भारतीय अर्थव्यवस्था में बहुत कम है। वर्ष 2022-23 में, भारत के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में पशुधन क्षेत्र का योगदान केवल 4.8% था।
पशुधन क्षेत्र के योगदान को बढ़ाने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:
- पशुधन उत्पादन में कुशलता में सुधार: पशुधन उत्पादन में कुशलता में सुधार के लिए पशुओं को बेहतर आहार दिया जाना चाहिए, उनकी देखभाल और प्रबंधन में अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए, और उनका स्वास्थ्य देखभाल अच्छी तरह से किया जाना चाहिए।
- पशुधन उत्पादों के प्रसंस्करण और विपणन में निवेश: पशुधन उत्पादों के प्रसंस्करण और विपणन में निवेश करने से पशुधन उत्पादों का मूल्यवर्धन होगा और उनकी कीमतें बढ़ेंगी।
- पशुधन क्षेत्र की उत्पादकता में सुधार: पशुधन क्षेत्र की उत्पादकता में सुधार के लिए अनुसंधान और विकास में निवेश किया जाना चाहिए।
इन उपायों को अपनाकर भारत में पशुधन क्षेत्र का योगदान भारतीय अर्थव्यवस्था में बढ़ाया जा सकता है।
48. भारत में जनसंख्या वृद्धि से किस प्रकार भूमि का ह्रास हो रहा है ? उन्हें रोकने के लिए सहयाद लें।
भारत में जनसंख्या वृद्धि से भूमि का ह्रास निम्नलिखित तरीकों से हो रहा है:
- कृषि भूमि का ह्रास: भारत एक कृषि प्रधान देश है। जनसंख्या वृद्धि के कारण कृषि भूमि की मांग बढ़ रही है। इस कारण से कृषि भूमि को आवासीय, औद्योगिक, या अन्य उपयोगों के लिए बदल दिया जा रहा है।
- वनों की कटाई: जनसंख्या वृद्धि के कारण ईंधन, लकड़ियों, और अन्य आवश्यकताओं के लिए वनों की कटाई हो रही है। इससे वनों का ह्रास हो रहा है और मृदा अपरदन बढ़ रहा है।
- मृदा अपरदन: जनसंख्या वृद्धि के कारण कृषि भूमि का अधिक दोहन हो रहा है। इससे मृदा अपरदन बढ़ रहा है और भूमि की उर्वरता कम हो रही है।
जनसंख्या वृद्धि से होने वाले भूमि ह्रास को रोकने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:
- कृषि भूमि का संरक्षण: कृषि भूमि का संरक्षण करके कृषि भूमि के ह्रास को रोका जा सकता है। इसके लिए कृषि भूमि का अधिक दोहन रोकना, भूमि संरक्षण तकनीकों का उपयोग करना, और भूमि का पुनर्जनन करना आवश्यक है।
- वनों का संरक्षण: वनों का संरक्षण करके मृदा अपरदन को रोका जा सकता है। इसके लिए वनों की कटाई को रोकना, वनों का पुनर्वनीकरण करना, और वनों का संरक्षण करना आवश्यक है।
- जनसंख्या नियंत्रण: जनसंख्या नियंत्रण करके भूमि ह्रास को रोकने में मदद मिल सकती है। इसके लिए परिवार नियोजन कार्यक्रमों को बढ़ावा देना, और महिलाओं की शिक्षा और सामाजिक आर्थिक स्थिति में सुधार करना आवश्यक है।
इन उपायों को अपनाकर भारत में जनसंख्या वृद्धि से होने वाले भूमि ह्रास को रोका जा सकता है और भूमि संसाधनों का संरक्षण किया जा सकता है।
49. भारत की जल विद्यत परियोजनाओं का विवरण प्रस्तुत करें।
भारत में जल विद्युत परियोजनाओं का इतिहास 1897 में दार्जिलिंग में सिद्रापोग में 130 मेगावाट क्षमता के जल विद्युत संयंत्र के निर्माण के साथ शुरू हुआ। स्वतंत्रता के बाद, भारत ने जल विद्युत उत्पादन में तेजी से वृद्धि की है। वर्तमान में, भारत की कुल बिजली उत्पादन क्षमता का लगभग 25% जल विद्युत से उत्पन्न होता है।
भारत में जल विद्युत परियोजनाओं को निम्नलिखित श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है:
- बहुउद्देशीय परियोजनाएं: ये परियोजनाएं बिजली उत्पादन के अलावा, सिंचाई, जल आपूर्ति, और बाढ़ नियंत्रण जैसे अन्य उद्देश्यों को भी पूरा करती हैं। इनमें नाथपा झाकरी, टीएचडीसी, और टिहरी बांध जैसी परियोजनाएं शामिल हैं।
- अन्य परियोजनाएं: ये परियोजनाएं केवल बिजली उत्पादन के उद्देश्य से बनाई जाती हैं। इनमें फरक्का बांध, और दामोदर घाटी परियोजना जैसी परियोजनाएं शामिल हैं।
भारत में जल विद्युत परियोजनाओं के कुछ लाभ निम्नलिखित हैं:
- नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत: जल विद्युत एक नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत है, जिसका अर्थ है कि यह ऊर्जा का एक सतत स्रोत है।
- पर्यावरण के अनुकूल: जल विद्युत उत्पादन में उत्सर्जन नहीं होता है, जिससे यह पर्यावरण के अनुकूल है।
- सार्वजनिक उपयोगिता: जल विद्युत एक सार्वजनिक उपयोगिता है, जिसका अर्थ है कि यह सभी के लिए उपलब्ध है।
भारत में जल विद्युत परियोजनाओं के कुछ चुनौतियां निम्नलिखित हैं:
- पर्यावरणीय प्रभाव: जल विद्युत परियोजनाओं का पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है, जैसे कि बाढ़ नियंत्रण और प्रदूषण।
- आर्थिक लागत: जल विद्युत परियोजनाओं की लागत अधिक हो सकती है।
- सुरक्षा: जल विद्युत परियोजनाओं में सुरक्षा एक प्रमुख चिंता का विषय है।
भारत में जल विद्युत परियोजनाओं के विकास के लिए निम्नलिखित दिशानिर्देशों का पालन किया जा सकता है:
- पर्यावरणीय प्रभावों को कम करना: जल विद्युत परियोजनाओं के पर्यावरणीय प्रभावों को कम करने के लिए, बांधों के निर्माण और संचालन में पर्यावरणीय अनुकूल प्रौद्योगिकियों का उपयोग किया जाना चाहिए।
- आर्थिक लागत को कम करना: जल विद्युत परियोजनाओं की लागत को कम करने के लिए, परियोजनाओं के निर्माण और संचालन में कुशलता में सुधार किया जाना चाहिए।
- सुरक्षा सुनिश्चित करना: जल विद्युत परियोजनाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए, परियोजनाओं के निर्माण और संचालन में सुरक्षा मानकों का पालन किया जाना चाहिए।
इन दिशानिर्देशों का पालन करके, भारत जल विद्युत उत्पादन में आत्मनिर्भरता प्राप्त कर सकता है और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना लोगों को स्वच्छ और सुलभ ऊर्जा प्रदान कर सकता है।
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