Matric Exam 2024: भारत : संसाधन एवं उपयोग ( India: resources and uses )
संसाधन वे प्राकृतिक पदार्थ या शक्तियाँ हैं जिनका उपयोग मनुष्य अपने जीवन यापन और विकास के लिए करता है। संसाधनों को दो भागों में बांटा जा सकता है:
- प्राकृतिक संसाधन: वे संसाधन जो प्रकृति में स्वतः उपस्थित होते हैं, उन्हें प्राकृतिक संसाधन कहते हैं। जैसे- मिट्टी, जल, वायु, वन, खनिज, ऊर्जा स्रोत आदि।
- मानव-निर्मित संसाधन: वे संसाधन जो मनुष्य द्वारा निर्मित किए जाते हैं, उन्हें मानव-निर्मित संसाधन कहते हैं। जैसे- मशीनें, उपकरण, भवन, सड़कें, पुल आदि।
भारत एक विशाल देश है और यहाँ विभिन्न प्रकार के प्राकृतिक संसाधन पाए जाते हैं। इन संसाधनों का उपयोग भारत की अर्थव्यवस्था और सामाजिक विकास के लिए किया जाता है।
भारत के प्रमुख प्राकृतिक संसाधन
भारत के प्रमुख प्राकृतिक संसाधन निम्नलिखित हैं:
- भूमि: भारत में विभिन्न प्रकार की भूमि पाई जाती है। यहाँ कृषि योग्य भूमि, वन भूमि, चट्टानी भूमि, रेतीली भूमि आदि पाई जाती हैं।
- जल: भारत में जल की भी कमी नहीं है। यहाँ नदियाँ, झीलें, तालाब, कुएँ आदि पाए जाते हैं।
- वन: भारत में वन क्षेत्र का विस्तार भी अधिक है। यहाँ विभिन्न प्रकार के वृक्ष पाए जाते हैं।
- खनिज: भारत में विभिन्न प्रकार के खनिज पाए जाते हैं। यहाँ लोहा, कोयला, ताँबा, अभ्रक, मैगनीज, सोना, चाँदी आदि खनिज पाए जाते हैं।
- ऊर्जा स्रोत: भारत में विभिन्न प्रकार के ऊर्जा स्रोत पाए जाते हैं। यहाँ जल विद्युत, थर्मल विद्युत, सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा आदि ऊर्जा स्रोत पाए जाते हैं।
भारत के प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग
भारत के प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग निम्नलिखित क्षेत्रों में किया जाता है:
- कृषि: भारत की अर्थव्यवस्था का आधार कृषि है। यहाँ कृषि योग्य भूमि का उपयोग कृषि के लिए किया जाता है।
- औद्योगिक विकास: भारत में औद्योगिक विकास के लिए विभिन्न प्रकार के संसाधनों का उपयोग किया जाता है। जैसे- भूमि, जल, खनिज, ऊर्जा आदि।
- ऊर्जा उत्पादन: भारत में ऊर्जा उत्पादन के लिए विभिन्न प्रकार के संसाधनों का उपयोग किया जाता है। जैसे- जल विद्युत, थर्मल विद्युत, सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा आदि।
- परिवहन: भारत में परिवहन के लिए विभिन्न प्रकार के संसाधनों का उपयोग किया जाता है। जैसे- सड़कें, रेल, हवाई जहाज आदि।
- निर्माण: भारत में निर्माण कार्यों के लिए विभिन्न प्रकार के संसाधनों का उपयोग किया जाता है। जैसे- मिट्टी, बालू, सीमेंट, लोहा आदि।
भारत के प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की आवश्यकता
भारत के प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करना आवश्यक है। क्योंकि ये संसाधन सीमित हैं और इनका दोहन अधिक हो रहा है। प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:
- वनों का संरक्षण: वनों का संरक्षण करना आवश्यक है क्योंकि ये वायु और जल प्रदूषण को रोकने में सहायक होते हैं।
- खनिजों का संरक्षण: खनिजों का संरक्षण करना आवश्यक है क्योंकि ये सीमित हैं और इनका दोहन अधिक हो रहा है।
- ऊर्जा संसाधनों का संरक्षण: ऊर्जा संसाधनों का संरक्षण करना आवश्यक है क्योंकि ये भी सीमित हैं और इनका दोहन अधिक हो रहा है।
निष्कर्ष
भारत के प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग भारत की अर्थव्यवस्था और सामाजिक विकास के लिए किया जाता है। इन संसाधनों का संरक्षण करना आवश्यक है ताकि ये भावी पीढ़ियों के लिए भी उपलब्ध रह सकें।
भारत : संसाधन एवं उपयोग- India: Resources and Uses Matric Exam Social Science Objective Question In Hindi
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भारत : संसाधन एवं उपयोग- India: Resources and Uses Matric Exam Social Science Subjective Question In Hindi (लघु उत्तरीय प्रश्न)
1.खनिजों के संरक्षण एवं पबंधन से आप क्या समझत है ?
⇒खनिज अनवीकरणीय संसाधन हैं, अर्थात् इनका पुनर्निर्माण नहीं किया जा सकता है। इनका भंडार सीमित है और इनका दोहन अधिक हो रहा है। इसलिए, खनिजों का संरक्षण करना आवश्यक है।
खनिजों के संरक्षण से अभिप्राय है कि इनका विवेकपूर्ण उपयोग किया जाए ताकि ये भावी पीढ़ियों के लिए भी उपलब्ध रह सकें। खनिजों के संरक्षण के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:
- खनन कार्यों में आधुनिक तकनीकों का प्रयोग किया जाए ताकि खनिज पदार्थों का अधिकतम उपयोग किया जा सके।
- खनन के बाद खनन क्षेत्र का पुनर्विकास किया जाए ताकि पर्यावरण को कम से कम नुकसान हो।
- खनिजों के उपयोग में बचत की जाए।
- खनिजों के स्थान पर अन्य विकल्पों का विकास किया जाए।
खनिजों के प्रबंधन से अभिप्राय है कि इनका उपयोग कुशलतापूर्वक किया जाए ताकि आर्थिक विकास के साथ-साथ पर्यावरण को भी संरक्षित किया जा सके। खनिजों के प्रबंधन के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:
- खनिजों के उपयोग के लिए मानक निर्धारित किए जाएं।
- खनिजों के उपयोग पर नियंत्रण रखा जाए।
- खनिजों के उपयोग के लिए अनुसंधान एवं विकास किया जाए।
खनिजों के संरक्षण और प्रबंधन के लिए सरकार, उद्योग और आम जनता सभी की भागीदारी आवश्यक है। सरकार द्वारा कानून और नियम बनाकर खनिजों के संरक्षण और प्रबंधन को सुनिश्चित किया जा सकता है। उद्योगों को अपने उत्पादन कार्यों में खनिजों के उपयोग में बचत करनी चाहिए। आम जनता को भी खनिजों के उपयोग में जागरूक होना चाहिए।
खनिजों के संरक्षण और प्रबंधन से निम्नलिखित लाभ हो सकते हैं:
- खनिजों का भंडार बचेगा।
- पर्यावरण को नुकसान से बचाया जा सकेगा।
- आर्थिक विकास में सहायता मिलेगी।
2.खनिजों के आर्थिक महत्त्व का वर्णन करें।
⇒ खनिजों का आर्थिक महत्त्व निम्नलिखित रूपों में देखा जा सकता है:
- खनिजों का उपयोग विभिन्न प्रकार के उद्योगों में किया जाता है। जैसे- लोहा और इस्पात उद्योग, धातुकर्म उद्योग, रासायनिक उद्योग, निर्माण उद्योग आदि। इन उद्योगों में खनिजों का उपयोग कच्चे माल के रूप में किया जाता है।
- खनिजों का उपयोग ऊर्जा उत्पादन के लिए भी किया जाता है। जैसे- कोयला, प्राकृतिक गैस, पेट्रोलियम आदि। इन खनिजों का उपयोग थर्मल विद्युत संयंत्रों में किया जाता है।
- खनिजों का उपयोग विभिन्न प्रकार के उत्पादों के निर्माण में भी किया जाता है। जैसे- वाहन, इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, उपभोक्ता वस्तुएँ आदि।
खनिजों के आर्थिक महत्त्व को निम्नलिखित बिंदुओं के आधार पर समझा जा सकता है:
- खनिजों का उपयोग करके विभिन्न प्रकार के उत्पादों का निर्माण किया जाता है। इन उत्पादों का उपयोग करके लोगों को रोजगार प्राप्त होता है और देश की अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलता है।
- खनिजों का उपयोग करके विभिन्न प्रकार की ऊर्जा का उत्पादन किया जाता है। ऊर्जा का उपयोग विभिन्न प्रकार के कार्यों के लिए किया जाता है। इससे लोगों के जीवन स्तर में सुधार होता है और देश की अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलता है।
- खनिजों का उपयोग करके विभिन्न प्रकार के धातुओं का उत्पादन किया जाता है। इन धातुओं का उपयोग करके विभिन्न प्रकार के उत्पादों का निर्माण किया जाता है। इससे लोगों के जीवन स्तर में सुधार होता है और देश की अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलता है।
भारत एक विशाल देश है और यहाँ विभिन्न प्रकार के खनिजों का भंडार पाया जाता है। भारत में पाए जाने वाले प्रमुख खनिजों में लोहा, कोयला, ताँबा, अभ्रक, मैगनीज, सोना, चाँदी आदि शामिल हैं। इन खनिजों का उपयोग करके भारत में विभिन्न प्रकार के उद्योगों का विकास हुआ है। इससे भारत की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
3. अधात्विक खनिज किसे कहते हैं ? उदाहरण देकर समझावे ।
⇒ अधात्विक खनिज वे खनिज हैं जिनमें धातु नहीं होती है। इन खनिजों का उपयोग विभिन्न प्रकार के उत्पादों के निर्माण में किया जाता है।
अधात्विक खनिजों को निम्नलिखित श्रेणियों में बांटा जा सकता है:
- रसायनिक खनिज: इन खनिजों का उपयोग विभिन्न प्रकार के रसायनों के निर्माण में किया जाता है। जैसे- खनिज तेल, खनिज एसिड, खनिज लवण, धातुकर्मीय खनिज आदि।
- निर्माण सामग्री: इन खनिजों का उपयोग निर्माण कार्यों में किया जाता है। जैसे- सीमेंट, चूना, ग्रेनाइट, संगमरमर, बालू, पत्थर आदि।
- ईंधन खनिज: इन खनिजों का उपयोग ईंधन के रूप में किया जाता है। जैसे- कोयला, प्राकृतिक गैस, पेट्रोलियम आदि।
- अन्य खनिज: इन खनिजों का उपयोग अन्य विभिन्न प्रकार के उत्पादों के निर्माण में किया जाता है। जैसे- अभ्रक, सिलिका, सोना, चाँदी आदि।
अधात्विक खनिजों के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं:
- सीमेंट: सीमेंट एक महत्वपूर्ण निर्माण सामग्री है। इसका उपयोग भवन, पुल, सड़क, आदि के निर्माण में किया जाता है।
- चूना: चूना एक अन्य महत्वपूर्ण निर्माण सामग्री है। इसका उपयोग सीमेंट, प्लास्टर, आदि के निर्माण में किया जाता है।
- ग्रेनाइट: ग्रेनाइट एक प्रकार का पत्थर है। इसका उपयोग भवन, स्मारक, फर्श, आदि के निर्माण में किया जाता है।
- संगमरमर: संगमरमर एक अन्य प्रकार का पत्थर है। इसका उपयोग भवन, स्मारक, फर्श, आदि के निर्माण में किया जाता है।
- बालू: बालू का उपयोग निर्माण कार्यों में किया जाता है। इसका उपयोग ईंट, सीमेंट, आदि के निर्माण में किया जाता है।
- पत्थर: पत्थर का उपयोग विभिन्न प्रकार के निर्माण कार्यों में किया जाता है। इसका उपयोग भवन, पुल, सड़क, आदि के निर्माण में किया जाता है।
- कोयला: कोयला एक महत्वपूर्ण ईंधन है। इसका उपयोग थर्मल विद्युत संयंत्रों में किया जाता है।
- प्राकृतिक गैस: प्राकृतिक गैस एक अन्य महत्वपूर्ण ईंधन है। इसका उपयोग थर्मल विद्युत संयंत्रों में किया जाता है।
- पेट्रोलियम: पेट्रोलियम एक महत्वपूर्ण ईंधन है। इसका उपयोग वाहनों, उद्योगों, आदि में किया जाता है।
- अभ्रक: अभ्रक एक प्रकार का खनिज है जिसका उपयोग विद्युत के सुचालक के रूप में किया जाता है।
- सिलिका: सिलिका एक प्रकार का खनिज है जिसका उपयोग कांच, सीमेंट, आदि के निर्माण में किया जाता है।
- सोना: सोना एक मूल्यवान धातु है जिसका उपयोग आभूषण, इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, आदि के निर्माण में किया जाता है।
- चाँदी: चाँदी एक अन्य मूल्यवान धातु है जिसका उपयोग आभूषण, इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, आदि के निर्माण में किया जाता है।
अधात्विक खनिजों का आर्थिक महत्त्व निम्नलिखित रूपों में देखा जा सकता है:
- अधात्विक खनिजों का उपयोग करके विभिन्न प्रकार के उत्पादों का निर्माण किया जाता है। इन उत्पादों का उपयोग करके लोगों को रोजगार प्राप्त होता है और देश की अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलता है।
- अधात्विक खनिजों का उपयोग करके विभिन्न प्रकार की ऊर्जा का उत्पादन किया जाता है। ऊर्जा का उपयोग विभिन्न प्रकार के कार्यों के लिए किया जाता है। इससे लोगों के जीवन स्तर में सुधार होता है और देश की अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलता है।
- अधात्विक खनिजों का उपयोग करके विभिन्न प्रकार के निर्माण कार्यों को किया जाता है। इन निर्माण कार्यों से लोगों को रोजगार मिलता है और देश की अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलता है।
4.धात्विक खनिज के दो प्रमुख पहचान क्या है ?
⇒ धात्विक खनिजों के दो प्रमुख पहचान निम्नलिखित हैं:
- धात्विक खनिजों को गलाने पर धातु प्राप्त होती है, जबकि अधात्विक खनिजों के गलाने पर नहीं।
- धात्विक खनिजों कठोर एवं चमकीले होते हैं, जबकि अधात्विक खनिजों में यह विशेषता नहीं पायी जाती।
धात्विक खनिजों के अन्य पहचान निम्नलिखित हैं:
- धात्विक खनिजों को पीटकर तार बनाया जा सकता है, जबकि अधात्विक को पीटने पर वह चूर-चूर हो जाते हैं।
- धात्विक खनिजों का विद्युत प्रतिरोध कम होता है, जबकि अधात्विक खनिजों का विद्युत प्रतिरोध अधिक होता है।
- धात्विक खनिजों का घनत्व अधिक होता है, जबकि अधात्विक खनिजों का घनत्व कम होता है।
धात्विक खनिजों का उपयोग विभिन्न प्रकार के उद्योगों में किया जाता है। जैसे- लोहा और इस्पात उद्योग, धातुकर्म उद्योग, रासायनिक उद्योग, निर्माण उद्योग आदि। इन उद्योगों में खनिजों का उपयोग कच्चे माल के रूप में किया जाता है।
धात्विक खनिजों के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं:
- लोहा: लोहा एक महत्वपूर्ण धातु है। इसका उपयोग इस्पात के निर्माण में किया जाता है।
- ताँबा: ताँबा एक अन्य महत्वपूर्ण धातु है। इसका उपयोग बिजली के तारों, सिक्कों, आदि के निर्माण में किया जाता है।
- एल्यूमीनियम: एल्यूमीनियम एक हल्की और मजबूत धातु है। इसका उपयोग विमान, वाहनों, आदि के निर्माण में किया जाता है।
- जस्ता: जस्ता एक धातु है जिसका उपयोग जस्तीकरण में किया जाता है।
- निकल: निकल एक धातु है जिसका उपयोग मिश्र धातुओं, आभूषणों, आदि के निर्माण में किया जाता है।
- सोना: सोना एक मूल्यवान धातु है जिसका उपयोग आभूषणों, इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों, आदि के निर्माण में किया जाता है।
- चाँदी: चाँदी एक अन्य मूल्यवान धातु है जिसका उपयोग आभूषणों, इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों, आदि के निर्माण में किया जाता है।
5. खनिजों की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
⇒ खनिजों की निम्नलिखित विशेषताएं हैं:
- खनिज प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले पदार्थ होते हैं।
- खनिजों में निश्चित रासायनिक संगठन होता है।
- खनिजों में निश्चित भौतिक गुण होते हैं।
- खनिजों को खनिजों के वर्गीकरण के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है।
खनिजों की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन निम्नलिखित है:
प्राकृतिक रूप से पाए जाना: खनिजों को प्रकृति में ही पाया जाता है। इनका निर्माण प्राकृतिक प्रक्रियाओं के द्वारा होता है।
निश्चित रासायनिक संगठन: खनिजों में निश्चित रासायनिक संगठन होता है। इसका अर्थ यह है कि किसी भी खनिज में निश्चित रासायनिक तत्व और उनके अनुपात होते हैं।
निश्चित भौतिक गुण: खनिजों में निश्चित भौतिक गुण होते हैं। जैसे- रंग, चमक, कठोरता, घनत्व, आदि।
खनिजों का वर्गीकरण: खनिजों को उनके भौतिक गुणों, रासायनिक संघटन, या उपयोग के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है।
खनिजों का आर्थिक महत्त्व निम्नलिखित रूपों में देखा जा सकता है:
- खनिजों का उपयोग विभिन्न प्रकार के उद्योगों में किया जाता है। जैसे- लोहा और इस्पात उद्योग, धातुकर्म उद्योग, रासायनिक उद्योग, निर्माण उद्योग आदि। इन उद्योगों में खनिजों का उपयोग कच्चे माल के रूप में किया जाता है।
- खनिजों का उपयोग ऊर्जा उत्पादन के लिए भी किया जाता है। जैसे- कोयला, प्राकृतिक गैस, पेट्रोलियम आदि। इन खनिजों का उपयोग थर्मल विद्युत संयंत्रों में किया जाता है।
- खनिजों का उपयोग विभिन्न प्रकार के उत्पादों के निर्माण में भी किया जाता है। जैसे- वाहन, इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, उपभोक्ता वस्तुएँ आदि।
खनिजों का संरक्षण करना आवश्यक है। क्योंकि ये सीमित हैं और इनका दोहन अधिक हो रहा है। खनिजों के संरक्षण के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:
- खनन कार्यों में आधुनिक तकनीकों का प्रयोग किया जाए ताकि खनिज पदार्थों का अधिकतम उपयोग किया जा सके।
- खनन के बाद खनन क्षेत्र का पुनर्विकास किया जाए ताकि पर्यावरण को कम से कम नुकसान हो।
- खनिजों के उपयोग में बचत की जाए।
- खनिजों के स्थान पर अन्य विकल्पों का विकास किया जाए।
6.मैंगनीज के उपयोग पर प्रकाश डालिए।
⇒ मैंगनीज एक रासायनिक तत्व है जिसका प्रतीक Mn और परमाणु संख्या 25 है। यह एक संक्रमण धातु है जो प्रकृति में मुक्त अवस्था में नहीं पाई जाती है। मैंगनीज का उपयोग विभिन्न प्रकार के उद्योगों में किया जाता है।
मैंगनीज के कुछ प्रमुख उपयोग निम्नलिखित हैं:
- लोहे और इस्पात के निर्माण में: मैंगनीज लोहे और इस्पात के गुणों को बेहतर बनाने में मदद करता है। यह लोहे को अधिक कठोर, मजबूत और टिकाऊ बनाता है।
- मिश्र धातुओं के निर्माण में: मैंगनीज का उपयोग विभिन्न प्रकार की मिश्र धातुओं के निर्माण में किया जाता है। जैसे- स्टेनलेस स्टील, मैंगनीज ब्रॉंज, मैंगनीज अल्युमिनियम, आदि।
- रसायनों के निर्माण में: मैंगनीज का उपयोग विभिन्न प्रकार के रसायनों के निर्माण में किया जाता है। जैसे- मैंगनीज डाइऑक्साइड, मैंगनीज सल्फेट, आदि।
- ऊर्जा उत्पादन में: मैंगनीज का उपयोग थर्मल विद्युत संयंत्रों में ऊर्जा उत्पादन के लिए किया जाता है।
- इलेक्ट्रॉनिक्स में: मैंगनीज का उपयोग इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के निर्माण में किया जाता है। जैसे- बैटरी, फोटोग्राफी उपकरण, आदि।
- अन्य उपयोग: मैंगनीज का उपयोग अन्य विभिन्न प्रकार के उत्पादों के निर्माण में भी किया जाता है। जैसे- सीमेंट, कागज, प्लास्टिक, आदि।
भारत मैंगनीज का एक प्रमुख उत्पादक देश है। भारत में मैंगनीज के भंडार विश्व के कुल भंडार का लगभग 10% है। भारत में मैंगनीज का उपयोग विभिन्न प्रकार के उद्योगों में किया जाता है।
मैंगनीज एक महत्वपूर्ण धातु है जिसका उपयोग विभिन्न प्रकार के उद्योगों में किया जाता है। मैंगनीज के उपयोग से विभिन्न प्रकार के उत्पादों का निर्माण होता है जो हमारे जीवन को आसान और बेहतर बनाते हैं।
7. मोनाजाइट भारत में कहाँ-कहाँ उपलब्ध है ?
⇒ मोनाजाइट भारत में मुख्य रूप से कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल, और आंध्र प्रदेश में पाया जाता है। इन राज्यों में मोनाजाइट के भंडार विश्व के कुल भंडार का लगभग 70% है।
मोनाजाइट के प्रमुख भंडार निम्नलिखित हैं:
- कर्नाटक: कर्नाटक में मोनाजाइट के भंडार मुख्य रूप से उत्तर कन्नड़, दक्षिण कन्नड़, और कोडागु जिलों में पाए जाते हैं।
- तमिलनाडु: तमिलनाडु में मोनाजाइट के भंडार मुख्य रूप से तंजावुर, रामनाथपुरम, और तिरुनेलवेली जिलों में पाए जाते हैं।
- केरल: केरल में मोनाजाइट के भंडार मुख्य रूप से कोझीकोड, त्रिशूर, और एर्नाकुलम जिलों में पाए जाते हैं।
- आंध्र प्रदेश: आंध्र प्रदेश में मोनाजाइट के भंडार मुख्य रूप से कृष्णा, गुंटूर, और चित्तूर जिलों में पाए जाते हैं।
मोनाजाइट एक महत्वपूर्ण खनिज है। इसका उपयोग विभिन्न प्रकार के उद्योगों में किया जाता है। मोनाजाइट से रेत, टाइटेनियम, और यूरेनियम प्राप्त होते हैं।
रेत का उपयोग निर्माण कार्यों में किया जाता है। टाइटेनियम का उपयोग विमान, जहाज, और अन्य विभिन्न प्रकार के उत्पादों के निर्माण में किया जाता है। यूरेनियम का उपयोग परमाणु ऊर्जा उत्पादन में किया जाता है।
8. जलोढ़ मृदा से क्या समझते हैं ? इस मृदा में कौन-कौन सी फसलें उगाई जा सकती है ?
⇒ जलोढ़ मृदा नदियों द्वारा लाए गए अवसादों से बनती है। यह मृदा उपजाऊ होती है और इसमें कार्बनिक पदार्थ, खनिज, और पानी की अच्छी मात्रा होती है। जलोढ़ मृदा को दो प्रकारों में बांटा जा सकता है:
- नदी के मैदान की जलोढ़ मृदा: यह मृदा नदियों के मैदानों में पाई जाती है। यह मृदा बहुत उपजाऊ होती है और इसमें विभिन्न प्रकार की फसलें उगाई जा सकती हैं।
- बाढ़ की जलोढ़ मृदा: यह मृदा नदियों के बाढ़ के मैदानों में पाई जाती है। यह मृदा नदी के मैदान की जलोढ़ मृदा की तुलना में कम उपजाऊ होती है।
जलोढ़ मृदा में उगाई जा सकने वाली कुछ प्रमुख फसलें निम्नलिखित हैं:
- धान: धान जलोढ़ मृदा की प्रमुख फसल है। यह मृदा धान के लिए उपयुक्त है क्योंकि इसमें पानी की अच्छी मात्रा होती है।
- गेहूँ: गेहूँ भी जलोढ़ मृदा की एक प्रमुख फसल है। यह मृदा गेहूँ के लिए उपयुक्त है क्योंकि इसमें कार्बनिक पदार्थ और खनिज की अच्छी मात्रा होती है।
- कपास: कपास भी जलोढ़ मृदा की एक महत्वपूर्ण फसल है। यह मृदा कपास के लिए उपयुक्त है क्योंकि इसमें पानी की अच्छी मात्रा होती है।
- दलहन: दलहन भी जलोढ़ मृदा की एक महत्वपूर्ण फसल है। यह मृदा दलहन के लिए उपयुक्त है क्योंकि इसमें कार्बनिक पदार्थ और खनिज की अच्छी मात्रा होती है।
जलोढ़ मृदा में विभिन्न प्रकार की फसलें उगाई जा सकती हैं। यह मृदा उपजाऊ होती है और इसमें पानी की अच्छी मात्रा होती है।
9. भू-क्षरण किसे कहते है ?
⇒ भू-क्षरण, मृदा अपरदन, या मृदा कटाव एक प्राकृतिक प्रक्रिया है जिसमें चट्टानों का विखंडन और परिणामस्वरूप निकले ढीले पदार्थों का जल, पवन, इत्यादि प्रक्रमों द्वारा स्थानांतरण होता है। अपरदन के प्रक्रमों में वायु, जल तथा हिमनद और सागरीय लहरें प्रमुख हैं।
भू-क्षरण के कारण भूमि की उर्वरता कम हो जाती है, बाढ़ और सूखा जैसी आपदाएं बढ़ जाती हैं, और पर्यावरण को नुकसान होता है।
भू-क्षरण के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं:
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- अत्यधिक वर्षा: अत्यधिक वर्षा के कारण मिट्टी का बहाव होता है।
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- वायु का बहाव: तेज हवाओं के कारण मिट्टी का उड़ना होता है।
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- मानवीय गतिविधियाँ: कृषि, खनन, और निर्माण जैसी मानवीय गतिविधियों के कारण भी भू-क्षरण होता है।
भू-क्षरण को रोकने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:
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- वनरोपण: वृक्षों की जड़ें मिट्टी को बांधे रखती हैं और भू-क्षरण को रोकती हैं।
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- पशुचारण पर नियंत्रण: पशुओं के द्वारा मिट्टी के कटाव को रोकने के लिए पशुचारण पर नियंत्रण किया जाना चाहिए।
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- सिंचाई: सिंचाई के द्वारा मिट्टी की नमी को बनाए रखा जा सकता है और भू-क्षरण को रोका जा सकता है।
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- भू-संरक्षण: भू-संरक्षण के उपायों जैसे कि मेड़बंदी, वृक्षारोपण, और बांधों का निर्माण करके भू-क्षरण को रोका जा सकता है।
भू-क्षरण एक गंभीर समस्या है जिसे रोकने के लिए सभी को मिलकर प्रयास करने की आवश्यकता है।
10. जलोढ़ मृदा के विस्तार वाले राज्यों का नाम बतावें। इस मृदा में कौन-कौन सी फसलें लगायी जा सकती हैं ?
भारत में जलोढ़ मृदा का विस्तार मुख्य रूप से निम्नलिखित राज्यों में है:
- उत्तर प्रदेश: उत्तर प्रदेश में जलोढ़ मृदा का विस्तार सबसे अधिक है। यहाँ गंगा और उसकी सहायक नदियों के मैदानों में जलोढ़ मृदा पाई जाती है।
- पंजाब: पंजाब में भी जलोढ़ मृदा का विस्तार अधिक है। यहाँ सतलुज और व्यास नदियों के मैदानों में जलोढ़ मृदा पाई जाती है।
- हरियाणा: हरियाणा में भी जलोढ़ मृदा का विस्तार अधिक है। यहाँ गंगा और यमुना नदियों के मैदानों में जलोढ़ मृदा पाई जाती है।
- बिहार: बिहार में भी जलोढ़ मृदा का विस्तार अधिक है। यहाँ गंगा और उसकी सहायक नदियों के मैदानों में जलोढ़ मृदा पाई जाती है।
- ओडिशा: ओडिशा में भी जलोढ़ मृदा का विस्तार अधिक है। यहाँ महानदी और उसकी सहायक नदियों के मैदानों में जलोढ़ मृदा पाई जाती है।
- आंध्र प्रदेश: आंध्र प्रदेश में भी जलोढ़ मृदा का विस्तार अधिक है। यहाँ कृष्णा और गोदावरी नदियों के मैदानों में जलोढ़ मृदा पाई जाती है।
- तमिलनाडु: तमिलनाडु में भी जलोढ़ मृदा का विस्तार अधिक है। यहाँ कावेरी नदी के मैदानों में जलोढ़ मृदा पाई जाती है।
जलोढ़ मृदा उपजाऊ होती है और इसमें कार्बनिक पदार्थ, खनिज, और पानी की अच्छी मात्रा होती है। इस मृदा में विभिन्न प्रकार की फसलें लगाई जा सकती हैं। जलोढ़ मृदा में उगाई जा सकने वाली कुछ प्रमुख फसलें निम्नलिखित हैं:
- धान: धान जलोढ़ मृदा की प्रमुख फसल है। यह मृदा धान के लिए उपयुक्त है क्योंकि इसमें पानी की अच्छी मात्रा होती है।
- गेहूँ: गेहूँ भी जलोढ़ मृदा की एक प्रमुख फसल है। यह मृदा गेहूँ के लिए उपयुक्त है क्योंकि इसमें कार्बनिक पदार्थ और खनिज की अच्छी मात्रा होती है।
- कपास: कपास भी जलोढ़ मृदा की एक महत्वपूर्ण फसल है। यह मृदा कपास के लिए उपयुक्त है क्योंकि इसमें पानी की अच्छी मात्रा होती है।
- दलहन: दलहन भी जलोढ़ मृदा की एक महत्वपूर्ण फसल है। यह मृदा दलहन के लिए उपयुक्त है क्योंकि इसमें कार्बनिक पदार्थ और खनिज की अच्छी मात्रा होती है।
इसके अलावा, जलोढ़ मृदा में चावल, ज्वार, बाजरा, मूंगफली, तिलहन, और फल-सब्जियों जैसी अन्य फसलें भी उगाई जा सकती हैं।
11. मृदा-निर्माण के मुख्य घटक कौन-कौन से हैं ?
⇒ मृदा-निर्माण के मुख्य घटक निम्नलिखित हैं:
- मूल द्रव्य: मृदा-निर्माण की प्रक्रिया मूल द्रव्य से शुरू होती है। मूल द्रव्य में चट्टानें, मिट्टी, और अन्य पदार्थ शामिल हो सकते हैं।
- जलवायु: जलवायु मृदा-निर्माण को प्रभावित करने वाला एक महत्वपूर्ण कारक है। जलवायु में वर्षा, तापमान, और वायु की गति आदि शामिल हैं।
- वनस्पति: वनस्पति भी मृदा-निर्माण को प्रभावित करती है। वनस्पति के द्वारा मिट्टी में कार्बनिक पदार्थों का योगदान होता है, जो मृदा की उर्वरता को बढ़ाता है।
- जीव जंतु: जीव जंतु भी मृदा-निर्माण में योगदान देते हैं। जीव जंतु मिट्टी को खोदते हैं, कार्बनिक पदार्थों को विघटित करते हैं, और मिट्टी में नाइट्रोजन और अन्य पोषक तत्वों को जोड़ते हैं।
- समय: समय भी मृदा-निर्माण में एक महत्वपूर्ण कारक है। मृदा-निर्माण एक धीमी प्रक्रिया है जो लाखों वर्षों में होती है।
मृदा-निर्माण की प्रक्रिया में इन सभी घटकों का योगदान होता है। इन घटकों के प्रभाव के आधार पर, विभिन्न प्रकार की मिट्टी बनती हैं।
मृदा-निर्माण की प्रक्रिया को निम्नलिखित चरणों में विभाजित किया जा सकता है:
- अपघटन: मूल द्रव्य के अपक्षय और विघटन से मिट्टी का निर्माण होता है।
- मिश्रण: जल, वायु, और जीव जंतुओं के द्वारा मिट्टी के कणों को मिश्रित किया जाता है।
- परिष्करण: समय के साथ, मिट्टी के कण एक-दूसरे से जुड़कर मिट्टी का निर्माण करते हैं।
मृदा-निर्माण एक जटिल प्रक्रिया है जो विभिन्न कारकों के प्रभाव से होती है।
12. खादर और बांगर मिट्टी में अन्तर स्पष्ट करें।
⇒ खादर और बांगर दो प्रकार की मिट्टी हैं जो नदी के मैदानों में पाई जाती हैं।
खादर मिट्टी नदी के बाढ़ के मैदानों में पाई जाती है। यह मिट्टी नदियों द्वारा लाए गए खनिज और कार्बनिक पदार्थों से बनती है। खादर मिट्टी उपजाऊ होती है और इसमें पानी की अच्छी मात्रा होती है। इस मिट्टी में धान, गेहूँ, कपास, दलहन, और फल-सब्जियों जैसी विभिन्न प्रकार की फसलें उगाई जा सकती हैं।
बांगर मिट्टी नदी के मैदानों में पाई जाती है, लेकिन यह नदी के बाढ़ के मैदानों से ऊपर होती है। यह मिट्टी नदी की बाढ़ से आने वाली मिट्टी से बनती है, लेकिन यह खादर मिट्टी की तुलना में कम उपजाऊ होती है। बांगर मिट्टी में पानी की कमी होती है और इसमें लवणता की मात्रा अधिक होती है। इस मिट्टी में गेहूँ, दलहन, और फल-सब्जियों जैसी फसलें उगाई जा सकती हैं।
खादर और बांगर मिट्टी में निम्नलिखित अंतर हैं:
विशेषता | खादर मिट्टी | बांगर मिट्टी |
---|---|---|
स्थान | नदी के बाढ़ के मैदानों में | नदी के मैदानों में, लेकिन बाढ़ के मैदानों से ऊपर |
निर्माण | नदियों द्वारा लाए गए खनिज और कार्बनिक पदार्थों से | नदी की बाढ़ से आने वाली मिट्टी से |
उपजाऊपन | उपजाऊ | कम उपजाऊ |
पानी की मात्रा | पानी की अच्छी मात्रा | पानी की कमी |
लवणता | लवणता की मात्रा कम | लवणता की मात्रा अधिक |
उगाई जाने वाली फसलें | धान, गेहूँ, कपास, दलहन, और फल-सब्जियाँ | गेहूँ, दलहन, और फल-सब्जियाँ |
13. मृदा संरक्षण के कोई प्रभावी उपाय बताएँ।
⇒ मृदा संरक्षण के प्रभावी उपाय निम्नलिखित हैं:
- ढलान कृषि: ढलान वाली भूमि पर खेती करने के लिए इस विधि का उपयोग किया जाता है। इस विधि में खेतों को छोटे-छोटे पट्टियों में बांटा जाता है और प्रत्येक पट्टी की दिशा ढलान की दिशा के विपरीत होती है। इससे पानी का बहाव कम होता है और मृदा का अपरदन रोका जा सकता है।
- वृक्षारोपण: वृक्षों की जड़ें मिट्टी को बांधती हैं और मृदा के अपरदन को रोकती हैं। इसलिए, ढलान वाली भूमि पर वृक्षारोपण करना मृदा संरक्षण का एक प्रभावी उपाय है।
- जल संरक्षण: पानी का संरक्षण करने से मृदा में नमी बनी रहती है और मृदा का अपरदन कम होता है। इसलिए, खेतों में सिंचाई के लिए पानी का विवेकपूर्ण उपयोग करना चाहिए।
- अतिचारण नियंत्रण: पशुओं के अधिक चराये जाने से मिट्टी के ऊपरी स्तर का कटाव होता है और मृदा की उर्वरता कम होती है। इसलिए, अतिचारण को नियंत्रित करना मृदा संरक्षण के लिए आवश्यक है।
- मृदा परीक्षण: मृदा परीक्षण से मृदा की उर्वरता और उसकी समस्याओं का पता चलता है। इससे मृदा की उर्वरता को बनाए रखने और समस्याओं को दूर करने के लिए उचित उपाय किए जा सकते हैं।
इन उपायों के अलावा, मृदा संरक्षण के लिए निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए:
- मृदा में कार्बनिक पदार्थों की मात्रा बढ़ाना चाहिए। कार्बनिक पदार्थ मिट्टी को उपजाऊ बनाते हैं और मृदा के अपरदन को रोकते हैं।
- मृदा में उर्वरकों का संतुलित उपयोग करना चाहिए। उर्वरकों के अत्यधिक उपयोग से मृदा की उर्वरता कम होती है और मृदा की गुणवत्ता प्रभावित होती है।
- मृदा में कीटनाशकों और अन्य रसायनों का उपयोग कम करना चाहिए। रसायनों के उपयोग से मृदा प्रदूषित होती है और मृदा की उर्वरता कम होती है।
मृदा संरक्षण एक महत्वपूर्ण कार्य है। मृदा संरक्षण से हम भविष्य के लिए एक सुरक्षित और स्वस्थ वातावरण बना सकते हैं।
14. फसल चक्रण मृदा संरक्षण में किस प्रकार सहायक है ?
⇒ फसल चक्रण एक कृषि तकनीक है जिसमें एक ही खेत में विभिन्न प्रकार की फसलों का एक निश्चित क्रम में उत्पादन किया जाता है। फसल चक्रण मृदा संरक्षण में निम्नलिखित प्रकार से सहायक है:
- मृदा की उर्वरता को बनाए रखता है: विभिन्न प्रकार की फसलों को उगाने से मृदा में विभिन्न पोषक तत्वों की पूर्ति होती है। इससे मृदा की उर्वरता बनी रहती है और मृदा के अपरदन को रोकने में मदद मिलती है।
- मृदा में कार्बनिक पदार्थों की मात्रा बढ़ाता है: फसलों के अवशेषों को मिट्टी में मिलाने से मृदा में कार्बनिक पदार्थों की मात्रा बढ़ती है। कार्बनिक पदार्थ मिट्टी को उपजाऊ बनाते हैं और मृदा के अपरदन को रोकते हैं।
- मृदा की जल धारण क्षमता बढ़ाता है: विभिन्न प्रकार की फसलों को उगाने से मृदा में जल धारण क्षमता बढ़ती है। इससे मृदा में नमी बनी रहती है और मृदा के अपरदन को रोकने में मदद मिलती है।
- मृदा के अपरदन को रोकता है: फसल चक्रण से मिट्टी का कटाव कम होता है। इससे मृदा की उर्वरता बनी रहती है और मृदा का संरक्षण होता है।
फसल चक्रण के लिए विभिन्न प्रकार की फसलों का चयन किया जा सकता है। फसल चक्रण में दलहन फसलों को शामिल करना विशेष रूप से लाभदायक होता है। दलहन फसलों की जड़ों में नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाले जीवाणु होते हैं। इससे मिट्टी में नाइट्रोजन की मात्रा बढ़ती है।
फसल चक्रण मृदा संरक्षण के लिए एक प्रभावी उपाय है। फसल चक्रण से मृदा की उर्वरता बनी रहती है, मृदा का अपरदन कम होता है, और मृदा की जल धारण क्षमता बढ़ती है।
15. समोच्च कृषि से आप क्या समझते हैं ?
⇒ समोच्च कृषि एक प्रकार की कृषि विधि है जिसमें ढलान वाली भूमि पर खेतों को छोटे-छोटे पट्टियों में बांटा जाता है और प्रत्येक पट्टी की दिशा ढलान की दिशा के विपरीत होती है। इससे पानी का बहाव कम होता है और मृदा का अपरदन रोका जा सकता है।
समोच्च कृषि के लाभ निम्नलिखित हैं:
- मृदा अपरदन को रोकता है: समोच्च कृषि से पानी का बहाव कम होता है और मृदा का अपरदन रोका जा सकता है।
- मृदा में नमी बनाए रखता है: समोच्च कृषि से मृदा में नमी बनाए रखने में मदद मिलती है।
- मृदा की उर्वरता को बढ़ाता है: समोच्च कृषि से मृदा में कार्बनिक पदार्थों की मात्रा बढ़ती है, जिससे मृदा की उर्वरता बढ़ती है।
- फसलों की पैदावार बढ़ाता है: समोच्च कृषि से फसलों की पैदावार बढ़ती है।
समोच्च कृषि के लिए निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए:
- पट्टियों की चौड़ाई और लंबाई ढलान की तीव्रता के अनुसार निर्धारित की जानी चाहिए।
- पट्टियों की दिशा ढलान की दिशा के विपरीत होनी चाहिए।
- पट्टियों में फसलों का चयन ढलान की तीव्रता और मिट्टी की उर्वरता के अनुसार किया जाना चाहिए।
समोच्च कृषि मृदा संरक्षण के लिए एक प्रभावी उपाय है। समोच्च कृषि से मृदा की उर्वरता बनी रहती है, मृदा का अपरदन कम होता है, और मृदा की जल धारण क्षमता बढ़ती है।
16. चिपको आंदोलन का वर्णन करें।
⇒ चिपको आंदोलन एक पर्यावरण-संरक्षण आंदोलन था जो भारत के उत्तराखण्ड राज्य में शुरू हुआ था। इस आंदोलन का उद्देश्य वनों की अंधाधुंध कटाई को रोकना और वनों पर आश्रित लोगों के अधिकारों की रक्षा करना था।
चिपको आंदोलन की शुरुआत 1973 में उत्तराखण्ड के चमोली जिले के रेणी गांव में हुई थी। इस गांव की महिलाओं ने अंगू के पेड़ों की कटाई का विरोध करने के लिए पेड़ों से चिपककर अपनी जान की बाजी लगा दी। इन महिलाओं के नेतृत्व में गांव के पुरुषों ने भी आंदोलन में शामिल हो गए।
चिपको आंदोलन की सफलता से प्रभावित होकर पूरे भारत में इसी तरह के आंदोलन शुरू हुए। इन आंदोलन के कारण भारत सरकार ने वनों की कटाई पर प्रतिबंध लगाया और वनों पर आश्रित लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए कानून बनाए।
चिपको आंदोलन के प्रमुख नेता सुंदरलाल बहुगुणा, गौरा देवी, किंकरी देवी, और चंडी प्रसाद भट्ट थे। इन नेताओं ने आंदोलन को सफल बनाने के लिए कड़ी मेहनत की।
चिपको आंदोलन एक महत्वपूर्ण पर्यावरण-संरक्षण आंदोलन था। इस आंदोलन ने वनों की कटाई को रोकने और वनों पर आश्रित लोगों के अधिकारों की रक्षा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
चिपको आंदोलन के कुछ प्रमुख परिणाम निम्नलिखित हैं:
- भारत सरकार ने वनों की कटाई पर प्रतिबंध लगाया।
- वनों पर आश्रित लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए कानून बनाए गए।
- वनों की कटाई कम हुई और वनों की रक्षा हुई।
- वनों पर निर्भर लोगों की आजीविका में सुधार हुआ।
चिपको आंदोलन एक प्रेरणादायक आंदोलन है। इस आंदोलन ने दिखाया कि कैसे स्थानीय लोगों की भागीदारी से पर्यावरण संरक्षण किया जा सकता है।
17. वन का पर्यावरणीय महत्त्व का वर्णन कीजिए।
⇒ वन का पर्यावरणीय महत्त्व निम्नलिखित है:
- ऑक्सीजन का उत्पादन: वन प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया द्वारा ऑक्सीजन का उत्पादन करते हैं। ऑक्सीजन सभी जीवित प्राणियों के लिए आवश्यक है।
- कार्बन डाइऑक्साइड का अवशोषण: वन कार्बन डाइऑक्साइड का अवशोषण करते हैं। कार्बन डाइऑक्साइड एक ग्रीनहाउस गैस है जो जलवायु परिवर्तन का कारण बनती है।
- मृदा संरक्षण: वन की जड़ें मिट्टी को बांधती हैं और मृदा के अपरदन को रोकती हैं। मृदा अपरदन से भूमि की उर्वरता कम होती है और बाढ़ और सूखे का खतरा बढ़ जाता है।
- जल संरक्षण: वन वर्षा के पानी को सोखते हैं और उसे धीरे-धीरे बहने देते हैं। इससे जल संरक्षण होता है और बाढ़ का खतरा कम होता है।
- वायु प्रदूषण का नियंत्रण: वन वायु प्रदूषण को नियंत्रित करते हैं। वन की पत्तियां और शाखाएं वायु में मौजूद प्रदूषकों को सोख लेती हैं।
- पारिस्थितिक तंत्र का संतुलन: वन पारिस्थितिक तंत्र का संतुलन बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वन वन्यजीवों के लिए आवास प्रदान करते हैं और पारिस्थितिक तंत्र में विविधता को बढ़ावा देते हैं।
वन का मानव जीवन के लिए भी महत्त्वपूर्ण है। वन से प्राप्त लकड़ी का उपयोग निर्माण, फर्नीचर, और कागज बनाने के लिए किया जाता है। वन से प्राप्त फल, सब्जियां, और अन्य खाद्य पदार्थ मानव पोषण के लिए आवश्यक हैं।
वनों की कटाई से पर्यावरण को गंभीर नुकसान होता है। वनों की कटाई से ऑक्सीजन की कमी होती है, कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ती है, मृदा का अपरदन होता है, जल संरक्षण में कमी आती है, वायु प्रदूषण बढ़ता है, और पारिस्थितिक तंत्र का संतुलन बिगड़ता है।
वनों की कटाई को रोकने के लिए हमें वनों की सुरक्षा के लिए जागरूकता फैलाने की आवश्यकता है। हमें वनों पर निर्भर लोगों की आजीविका में सुधार करने के लिए प्रयास करने की आवश्यकता है। हमें वनों की कटाई को रोकने के लिए कानूनों को सख्ती से लागू करने की आवश्यकता है।
18. पेट्रोलियम से किन-किन वस्तुओं का निर्माण होता है ?
⇒ पेट्रोलियम से निम्नलिखित वस्तुओं का निर्माण होता है:
- ईंधन: पेट्रोलियम का सबसे प्रमुख उपयोग ईंधन के रूप में होता है। पेट्रोल, डीजल, मिट्टी का तेल, और केरोसिन सभी पेट्रोलियम से प्राप्त होते हैं। इनका उपयोग वाहनों, औद्योगिक मशीनों, और घरेलू उपकरणों को चलाने के लिए किया जाता है।
- प्लास्टिक: प्लास्टिक का उपयोग विभिन्न प्रकार के उत्पादों, जैसे कि बोतलें, कप, पॉलीथीन बैग, और खिलौने, के निर्माण के लिए किया जाता है। प्लास्टिक का निर्माण पेट्रोलियम से प्राप्त विभिन्न यौगिकों, जैसे कि पॉलीएथिलीन, पॉलीप्रोपाइलीन, और पॉलीस्टीरिन, से किया जाता है।
- रसायन: पेट्रोलियम से कई प्रकार के रसायनों का निर्माण होता है, जिनका उपयोग विभिन्न उद्योगों में किया जाता है। इन रसायनों में शामिल हैं:
- सॉल्वैंट्स, जो रंगों, पेंट, और अन्य उत्पादों को पतला करने के लिए उपयोग किए जाते हैं।
- डिटर्जेंट, जो कपड़े धोने के लिए उपयोग किए जाते हैं।
- उर्वरक, जो फसलों की वृद्धि के लिए उपयोग किए जाते हैं।
- दवाएं, जो रोगों के इलाज के लिए उपयोग की जाती हैं।
- अन्य उत्पाद: पेट्रोलियम से प्राप्त अन्य उत्पादों में शामिल हैं:
- बिजली: पेट्रोलियम का उपयोग बिजली उत्पादन के लिए भी किया जाता है।
- रबर: पेट्रोलियम से प्राप्त रसायनों का उपयोग रबर के उत्पादन के लिए किया जाता है।
- कागज: पेट्रोलियम से प्राप्त रसायनों का उपयोग कागज के उत्पादन के लिए किया जाता है।
पेट्रोलियम एक बहुउपयोगी संसाधन है। इसका उपयोग विभिन्न प्रकार के उत्पादों के निर्माण के लिए किया जाता है, जो हमारे दैनिक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
19. जैव और अजैव संसाधनों से आप क्या समझते हैं ?
⇒ जैव संसाधन वे संसाधन हैं जो जीवित प्राणियों से प्राप्त होते हैं। इनमें पौधे, जानवर, और सूक्ष्मजीव शामिल हैं। जैव संसाधनों का उपयोग विभिन्न प्रकार के उत्पादों और सेवाओं के उत्पादन के लिए किया जाता है, जिनमें शामिल हैं:
- खाद्य: जैव संसाधनों का सबसे महत्वपूर्ण उपयोग खाद्य उत्पादन के लिए होता है। पौधे हमारे भोजन का मुख्य स्रोत हैं। जानवरों से मांस, दूध, और अन्य उत्पाद प्राप्त होते हैं।
- ऊर्जा: जैव संसाधनों का उपयोग ऊर्जा उत्पादन के लिए भी किया जाता है। लकड़ी, कोयला, और प्राकृतिक गैस सभी जैव संसाधन हैं जिनका उपयोग ईंधन के रूप में किया जाता है।
- औषधियाँ: जैव संसाधनों का उपयोग दवाओं के निर्माण के लिए भी किया जाता है। कई दवाएं पौधों या जानवरों से प्राप्त यौगिकों से बनाई जाती हैं।
- कच्चे माल: जैव संसाधनों का उपयोग विभिन्न प्रकार के कच्चे माल के उत्पादन के लिए भी किया जाता है, जिनका उपयोग कपड़े, कागज, और अन्य उत्पादों के निर्माण के लिए किया जाता है।
अजैव संसाधन वे संसाधन हैं जो निर्जीव वस्तुओं से प्राप्त होते हैं। इनमें खनिज, जल, और वायु शामिल हैं। अजैव संसाधनों का उपयोग विभिन्न प्रकार के उत्पादों और सेवाओं के उत्पादन के लिए भी किया जाता है, जिनमें शामिल हैं:
- खनिज: खनिज हमारे जीवन के लिए आवश्यक कई वस्तुओं का स्रोत हैं, जिनमें शामिल हैं:
- ईंधन: कोयला, पेट्रोलियम, और प्राकृतिक गैस सभी खनिज हैं जिनका उपयोग ईंधन के रूप में किया जाता है।
- निर्माण सामग्री: लोहा, सीसा, और तांबा सभी खनिज हैं जिनका उपयोग निर्माण सामग्री के रूप में किया जाता है।
- इलेक्ट्रॉनिक्स: सिलिकॉन और अन्य खनिज इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के निर्माण के लिए आवश्यक हैं।
- जल: जल हमारे जीवन के लिए आवश्यक है। इसका उपयोग पीने, सिंचाई, और उद्योग के लिए किया जाता है।
- वायु: वायु हमारे लिए आवश्यक ऑक्सीजन प्रदान करती है। इसका उपयोग ऊर्जा उत्पादन और परिवहन के लिए भी किया जाता है।
जैव और अजैव संसाधन दोनों हमारे जीवन के लिए महत्वपूर्ण हैं। हमें इन संसाधनों का संरक्षण करने के लिए कदम उठाने की आवश्यकता है ताकि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी इनका उपयोग किया जा सके।
20. संसाधन-निर्माण में तकनीक की क्या भूमिका है ? स्पष्ट कीजिए।
⇒ तकनीक संसाधन-निर्माण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। तकनीक का उपयोग करके हम मौजूदा संसाधनों को अधिक कुशलता से उपयोग कर सकते हैं, नए संसाधनों को खोज सकते हैं, और पुराने संसाधनों को पुनर्स्थापित कर सकते हैं।
तकनीक का उपयोग करके हम मौजूदा संसाधनों को अधिक कुशलता से उपयोग कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, कृषि में तकनीक का उपयोग करके हम अधिक उपज प्राप्त कर सकते हैं। उद्योग में तकनीक का उपयोग करके हम ऊर्जा और कच्चे माल का उपयोग अधिक कुशलता से कर सकते हैं।
तकनीक का उपयोग करके हम नए संसाधनों को खोज सकते हैं। उदाहरण के लिए, तेल और गैस के लिए नए भंडार खोजने के लिए तकनीक का उपयोग किया जा रहा है। ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोतों, जैसे सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा, को विकसित करने के लिए भी तकनीक का उपयोग किया जा रहा है।
तकनीक का उपयोग करके हम पुराने संसाधनों को पुनर्स्थापित कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, धातुओं को पुनर्नवीनीकरण करके हम उन्हें नए उत्पादों में उपयोग कर सकते हैं। अपशिष्ट से ऊर्जा उत्पन्न करके हम अपशिष्ट को एक संसाधन में बदल सकते हैं।
संसाधन-निर्माण में तकनीक की कुछ विशिष्ट भूमिकाएँ निम्नलिखित हैं:
- उत्पादन में सुधार: तकनीक का उपयोग करके हम उत्पादन प्रक्रियाओं को अधिक कुशल बना सकते हैं। इससे उत्पादन लागत कम होती है और उत्पादन क्षमता बढ़ती है।
- नए उत्पादों का विकास: तकनीक का उपयोग करके हम नए उत्पादों और सेवाओं का विकास कर सकते हैं। इससे हमारे जीवन स्तर में सुधार होता है।
- पर्यावरण संरक्षण: तकनीक का उपयोग करके हम पर्यावरण को संरक्षित करने में मदद कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, ऊर्जा दक्ष उपकरणों का उपयोग करके हम ऊर्जा की खपत कम कर सकते हैं।
तकनीक संसाधन-निर्माण में एक शक्तिशाली उपकरण है। इसका उपयोग करके हम हमारे समाज को अधिक कुशल, उत्पादक, और टिकाऊ बना सकते हैं।
21. ऊर्जा संसाधन के संरक्षण के उपाय बताएँ।
⇒ ऊर्जा संसाधन हमारे जीवन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। ऊर्जा का उपयोग हम विभिन्न कार्यों के लिए करते हैं, जैसे कि परिवहन, उद्योग, प्रकाश, और हीटिंग। ऊर्जा संसाधनों का संरक्षण करना हमारे पर्यावरण और अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण है।
ऊर्जा संसाधनों के संरक्षण के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:
- ऊर्जा दक्ष उपकरणों का उपयोग: ऊर्जा दक्ष उपकरणों का उपयोग करके हम ऊर्जा की खपत को कम कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, ऊर्जा दक्ष बल्ब, एयर कंडीशनर, और रेफ्रिजरेटर का उपयोग करके हम ऊर्जा की बचत कर सकते हैं।
- ऊर्जा की खपत कम करना: ऊर्जा की खपत कम करने के लिए हम कुछ आसान उपाय कर सकते हैं, जैसे कि:
- जब आवश्यक न हो तो बिजली के उपकरणों को बंद रखें।
- पंखे और एयर कंडीशनर की गति को कम रखें।
- कमरे को गर्म या ठंडा होने से पहले ही दरवाजे और खिड़कियों को बंद कर दें।
- आवश्यकतानुसार ही प्रकाश का उपयोग करें।
- नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों का उपयोग: नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत, जैसे कि सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, और जल ऊर्जा, पर्यावरण के अनुकूल हैं। इन ऊर्जा स्रोतों का उपयोग करके हम जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम कर सकते हैं।
- ऊर्जा का पुन: उपयोग और पुनर्चक्रण: ऊर्जा का पुन: उपयोग और पुनर्चक्रण करके हम ऊर्जा की खपत को कम कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, हम कागज, प्लास्टिक, और धातुओं का पुन: उपयोग और पुनर्चक्रण कर सकते हैं।
ऊर्जा संसाधनों के संरक्षण के लिए हमें सभी को मिलकर प्रयास करने की आवश्यकता है। हम अपने दैनिक जीवन में कुछ छोटे-छोटे बदलाव करके भी ऊर्जा की बचत कर सकते हैं।
22. भारत में विभिन्न प्रकार के वन क्यों पाए जाते है ? उनके नाम लिखें। किसी एक का वर्णन करें।
⇒ भारत में विभिन्न प्रकार के वन पाए जाते हैं क्योंकि भारत की भौगोलिक स्थिति और जलवायु बहुत विविध है। भारत में विभिन्न प्रकार की जलवायु पाई जाती हैं, जिनमें उष्णकटिबंधीय वर्षावन, शीतोष्ण वन, शुष्क वन, और पर्वतीय वन शामिल हैं।
भारत में पाए जाने वाले वनों के प्रकार निम्नलिखित हैं:
- उष्णकटिबंधीय वर्षावन: ये वन भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में पाए जाते हैं। ये वन वर्ष भर हरे-भरे रहते हैं और इनमें विभिन्न प्रकार के पेड़ और पौधे पाए जाते हैं। इन वनों में स्तनधारियों, पक्षियों, सरीसृपों, और कीटों की भी विविधता पाई जाती है।
- शीतोष्ण वन: ये वन भारत के हिमालय क्षेत्र में पाए जाते हैं। ये वन गर्मियों में हरा-भरा और सर्दियों में बर्फ से ढके रहते हैं। इन वनों में विभिन्न प्रकार के पेड़ और पौधे पाए जाते हैं, जिनमें देवदार, ओक, और चीड़ शामिल हैं। इन वनों में हिरण, भालू, और तेंदुए जैसे स्तनधारी, और विभिन्न प्रकार के पक्षी पाए जाते हैं।
- शुष्क वन: ये वन भारत के उत्तरी और पश्चिमी भागों में पाए जाते हैं। ये वन वर्षा के मौसम में हरे-भरे रहते हैं और सूखे के मौसम में सूख जाते हैं। इन वनों में विभिन्न प्रकार के पेड़ और पौधे पाए जाते हैं, जिनमें सागौन, शीशम, और खैर शामिल हैं। इन वनों में हिरण, शेर, और चीता जैसे स्तनधारी, और विभिन्न प्रकार के पक्षी पाए जाते हैं।
- पर्वतीय वन: ये वन भारत के हिमालय क्षेत्र में विभिन्न ऊंचाई पर पाए जाते हैं। इन वनों में विभिन्न प्रकार के पेड़ और पौधे पाए जाते हैं, जिनमें देवदार, ओक, और चीड़ शामिल हैं। इन वनों में हिरण, भालू, और तेंदुए जैसे स्तनधारी, और विभिन्न प्रकार के पक्षी पाए जाते हैं।
उष्णकटिबंधीय वर्षावन भारत के सबसे महत्वपूर्ण वनों में से एक हैं। ये वन वर्ष भर हरे-भरे रहते हैं और इनमें विभिन्न प्रकार के पेड़ और पौधे पाए जाते हैं। इन वनों में स्तनधारियों, पक्षियों, सरीसृपों, और कीटों की भी विविधता पाई जाती है।
उष्णकटिबंधीय वर्षावनों का हमारे पर्यावरण के लिए बहुत महत्व है। ये वन ऑक्सीजन का उत्पादन करते हैं, कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करते हैं, और जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने में मदद करते हैं। ये वन मृदा अपरदन को रोकते हैं और बाढ़ और सूखे को नियंत्रित करने में मदद करते हैं। ये वन वन्यजीवों के लिए आवास प्रदान करते हैं।
उष्णकटिबंधीय वर्षावनों की रक्षा करना हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इन वनों को काटने से पर्यावरण को गंभीर नुकसान होता है। हमें उष्णकटिबंधीय वर्षावनों की कटाई को रोकने के लिए कदम उठाने की आवश्यकता है।
23. वन्य जीवों के ह्रास के चार प्रमुख कारकों का उल्लेख कीजिए।
⇒ वन्य जीवों के ह्रास के चार प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं:
- आवास विनाश: वन्यजीवों के आवास का विनाश वन्यजीवों के ह्रास का सबसे प्रमुख कारण है। वनों की कटाई, कृषि विस्तार, और शहरीकरण के कारण वन्यजीवों के प्राकृतिक आवास नष्ट हो रहे हैं। इससे वन्यजीवों को भोजन, पानी, और आश्रय की कमी हो रही है।
- अवैध शिकार: अवैध शिकार वन्यजीवों के ह्रास का एक अन्य प्रमुख कारण है। अवैध शिकारियों द्वारा वन्यजीवों का शिकार मांस, खाल, और अन्य उत्पादों के लिए किया जाता है। इससे कई वन्यजीव प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर हैं।
- पर्यावरणीय प्रदूषण: पर्यावरणीय प्रदूषण भी वन्यजीवों के ह्रास का एक कारण है। प्रदूषण से वन्यजीवों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इससे वन्यजीवों की प्रजनन क्षमता कम हो जाती है और वे बीमारियों के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाते हैं।
- जलवायु परिवर्तन: जलवायु परिवर्तन भी वन्यजीवों के ह्रास का एक कारण है। जलवायु परिवर्तन के कारण वन्यजीवों के प्राकृतिक आवास बदल रहे हैं। इससे वन्यजीवों को अपने आवास के अनुकूल होने में कठिनाई हो रही है।
इन कारकों के कारण वन्यजीवों की आबादी तेजी से घट रही है। कई वन्यजीव प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर हैं। वन्यजीवों के ह्रास से पर्यावरण पर भी गंभीर प्रभाव पड़ रहा है।
वन्यजीवों के ह्रास को रोकने के लिए हमें इन कारकों को नियंत्रित करने के लिए कदम उठाने की आवश्यकता है। हमें वनों की कटाई को रोकने, कृषि विस्तार को नियंत्रित करने, शहरीकरण को योजनाबद्ध तरीके से करने, अवैध शिकार को रोकने, पर्यावरणीय प्रदूषण को कम करने, और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के लिए प्रयास करने की आवश्यकता है।
24.निम्नांकित से संबद्ध एक-एक खनिज का नाम लिखें।
⇒ उद्योग से संबद्ध खनिज:
- लोहा: लोहा उद्योग के लिए सबसे महत्वपूर्ण खनिज है। इसका उपयोग इस्पात, लोहे के बर्तन, और अन्य उत्पादों के निर्माण के लिए किया जाता है।
- तांबा: तांबा इलेक्ट्रॉनिक्स, बिजली, और अन्य उद्योगों के लिए एक महत्वपूर्ण खनिज है। इसका उपयोग बिजली के तारों, स्विच, और अन्य उत्पादों के निर्माण के लिए किया जाता है।
- एल्युमिनियम: एल्युमिनियम एक हल्के और मजबूत धातु है जो कई उद्योगों में उपयोग की जाती है। इसका उपयोग वाहनों, विमानों, और अन्य उत्पादों के निर्माण के लिए किया जाता है।
ऊर्जा से संबद्ध खनिज:
- कोयला: कोयला एक जीवाश्म ईंधन है जो बिजली उत्पादन और अन्य उद्देश्यों के लिए उपयोग किया जाता है।
- पेट्रोलियम: पेट्रोलियम एक जीवाश्म ईंधन है जिसका उपयोग ईंधन, प्लास्टिक, और अन्य उत्पादों के निर्माण के लिए किया जाता है।
- प्राकृतिक गैस: प्राकृतिक गैस एक जीवाश्म ईंधन है जिसका उपयोग ईंधन, बिजली उत्पादन, और अन्य उद्देश्यों के लिए किया जाता है।
निर्माण से संबद्ध खनिज:
- सीमेंट: सीमेंट एक मिश्रण है जिसका उपयोग कंक्रीट, ईंट, और अन्य निर्माण सामग्री के निर्माण के लिए किया जाता है। इसका निर्माण चूना पत्थर, जिप्सम, और अन्य खनिजों से किया जाता है।
- रेत: रेत एक अपघर्षक सामग्री है जिसका उपयोग कंक्रीट, ईंट, और अन्य निर्माण सामग्री के निर्माण के लिए किया जाता है। इसका उपयोग काँच, सीमेंट, और अन्य उत्पादों के निर्माण के लिए भी किया जाता है।
- पत्थर: पत्थर एक कठोर सामग्री है जिसका उपयोग निर्माण, सड़क निर्माण, और अन्य उद्देश्यों के लिए किया जाता है।
कृषि से संबद्ध खनिज:
- नाइट्रोजन: नाइट्रोजन एक पोषक तत्व है जो पौधों के विकास के लिए आवश्यक है। इसका उपयोग उर्वरकों के निर्माण के लिए किया जाता है।
- फॉस्फोरस: फॉस्फोरस एक पोषक तत्व है जो पौधों के विकास के लिए आवश्यक है। इसका उपयोग उर्वरकों के निर्माण के लिए किया जाता है।
- पोटेशियम: पोटेशियम एक पोषक तत्व है जो पौधों के विकास के लिए आवश्यक है। इसका उपयोग उर्वरकों के निर्माण के लिए किया जाता है।
अन्य:
- सोना: सोना एक बहुमूल्य धातु है जिसका उपयोग आभूषण, इलेक्ट्रॉनिक्स, और अन्य उत्पादों के निर्माण के लिए किया जाता है।
- चांदी: चांदी एक बहुमूल्य धातु है जिसका उपयोग आभूषण, इलेक्ट्रॉनिक्स, और अन्य उत्पादों के निर्माण के लिए किया जाता है।
- हीरा: हीरा एक बहुमूल्य पत्थर है जिसका उपयोग आभूषण और अन्य उत्पादों के निर्माण के लिए किया जाता है।
इनके अतिरिक्त भी कई अन्य खनिज हैं जो विभिन्न उद्योगों, ऊर्जा के स्रोतों, निर्माण के लिए, कृषि के लिए, और अन्य उद्देश्यों के लिए उपयोग किए जाते हैं।
25. लौह-अयस्कों के नाम लिखें।
⇒ लौह-अयस्कों के नाम निम्नलिखित हैं:
- हेमेटाइट (Fe2O3): हेमेटाइट सबसे महत्वपूर्ण लौह-अयस्क है। इसका रंग लाल होता है और इसमें 70% से 72% लोहा होता है।
- मैग्नेटाइट (Fe3O4): मैग्नेटाइट का रंग काला होता है और इसमें 72% से 74% लोहा होता है। यह एक चुंबकीय पदार्थ है।
- लिमोनाइट (Fe2O3.nH2O): लिमोनाइट का रंग पीला होता है और इसमें 40% से 50% लोहा होता है।
- सिडेराइट (FeCO3): सिडेराइट का रंग भूरा होता है और इसमें 48% से 55% लोहा होता है।
इनके अतिरिक्त भी कुछ अन्य लौह-अयस्क पाए जाते हैं, जिनमें शामिल हैं:
- गोथिटाइट (Fe2O3.nH2O)
- मॉनोफेराइट (FeCO3)
- फेरिहाइड्राइट (FeO)
- टिटैनियम-मैग्नेटाइट (Fe2TiO4)
लौह-अयस्कों का उपयोग इस्पात के निर्माण के लिए किया जाता है। इस्पात एक मजबूत और टिकाऊ धातु है जिसका उपयोग विभिन्न प्रकार के उत्पादों के निर्माण के लिए किया जाता है।
26. अभ्रक का उपयोग क्या है ?
⇒ अभ्रक एक प्राकृतिक खनिज है जो विद्युत और ऊष्मा का कुचालक होता है। इसका उपयोग विभिन्न प्रकार के उत्पादों के निर्माण के लिए किया जाता है, जिनमें शामिल हैं:
- विद्युत उद्योग: अभ्रक का उपयोग विद्युत उपकरणों, जैसे कि मोटर, ट्रांसफार्मर, और स्विच में किया जाता है। इसका उपयोग विद्युत धारा को प्रवाहित करने के लिए किया जाता है, लेकिन यह विद्युत ऊर्जा को खोने से रोकता है।
- इलेक्ट्रॉनिक्स: अभ्रक का उपयोग इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों, जैसे कि रेडियो, टेलीविजन, और कंप्यूटर में किया जाता है। इसका उपयोग विद्युत संकेत को प्रवाहित करने के लिए किया जाता है, लेकिन यह विद्युत चुम्बकीय विकिरण को रोकता है।
- निर्माण: अभ्रक का उपयोग निर्माण सामग्री, जैसे कि सीमेंट, ईंट, और टाइल में किया जाता है। इसका उपयोग इन सामग्रियों को मजबूत और टिकाऊ बनाने के लिए किया जाता है।
- औद्योगिक प्रौद्योगिकी: अभ्रक का उपयोग विभिन्न प्रकार की औद्योगिक प्रक्रियाओं में किया जाता है, जिनमें शामिल हैं:
- पवन ऊर्जा: अभ्रक का उपयोग पवन टर्बाइनों में किया जाता है। इसका उपयोग पंखों को घुमाने के लिए आवश्यक बिजली उत्पन्न करने के लिए किया जाता है।
- कागज उद्योग: अभ्रक का उपयोग कागज बनाने की प्रक्रिया में किया जाता है। इसका उपयोग कागज को चिकना और मजबूत बनाने के लिए किया जाता है।
- रबर उद्योग: अभ्रक का उपयोग रबर बनाने की प्रक्रिया में किया जाता है। इसका उपयोग रबर को मजबूत और टिकाऊ बनाने के लिए किया जाता है।
- अन्य औद्योगिक प्रक्रियाएं: अभ्रक का उपयोग विभिन्न प्रकार की अन्य औद्योगिक प्रक्रियाओं में भी किया जाता है, जिनमें शामिल हैं:
- कांच उद्योग
- प्लास्टिक उद्योग
- दवा उद्योग
- खाद्य उद्योग
अभ्रक एक मूल्यवान संसाधन है जिसका उपयोग विभिन्न प्रकार के उत्पादों के निर्माण के लिए किया जाता है। यह एक मजबूत, टिकाऊ, और कुचालक सामग्री है जो विभिन्न प्रकार के अनुप्रयोगों के लिए उपयुक्त है।
27. लोहे के प्रमुख उत्पादक राज्यों के नाम लिखिए।
⇒ भारत में लोहे के प्रमुख उत्पादक राज्यों के नाम निम्नलिखित हैं:
- छत्तीसगढ़: छत्तीसगढ़ भारत का सबसे बड़ा लौह अयस्क उत्पादक राज्य है। यहाँ भारत के कुल लौह अयस्क उत्पादन का लगभग 50% उत्पादन होता है। छत्तीसगढ़ में लौह अयस्क के बड़े भंडार हैं, जिनमें कोरबा, रायगढ़, और बलरामपुर जिले शामिल हैं।
- झारखंड: झारखंड भारत का दूसरा सबसे बड़ा लौह अयस्क उत्पादक राज्य है। यहाँ भारत के कुल लौह अयस्क उत्पादन का लगभग 20% उत्पादन होता है। झारखंड में लौह अयस्क के बड़े भंडार हैं, जिनमें धनबाद, गिरिडीह, और बोकारो जिले शामिल हैं।
- ओडिशा: ओडिशा भारत का तीसरा सबसे बड़ा लौह अयस्क उत्पादक राज्य है। यहाँ भारत के कुल लौह अयस्क उत्पादन का लगभग 10% उत्पादन होता है। ओडिशा में लौह अयस्क के बड़े भंडार हैं, जिनमें मयूरभंज, सुंदरगढ़, और जाजपुर जिले शामिल हैं।
- कर्नाटक: कर्नाटक भारत का चौथा सबसे बड़ा लौह अयस्क उत्पादक राज्य है। यहाँ भारत के कुल लौह अयस्क उत्पादन का लगभग 5% उत्पादन होता है। कर्नाटक में लौह अयस्क के बड़े भंडार हैं, जिनमें चिकमंगलूर, बेलगावी, और रायचूर जिले शामिल हैं।
- राजस्थान: राजस्थान भारत का पांचवां सबसे बड़ा लौह अयस्क उत्पादक राज्य है। यहाँ भारत के कुल लौह अयस्क उत्पादन का लगभग 5% उत्पादन होता है। राजस्थान में लौह अयस्क के बड़े भंडार हैं, जिनमें उदयपुर, बांसवाड़ा, और डूंगरपुर जिले शामिल हैं।
भारत में लोहे के उत्पादन में वृद्धि हो रही है। 2022-23 में भारत में लोहे का उत्पादन लगभग 180 मिलियन टन होने का अनुमान है।
28. कोयला के चार प्रकारों का नाम लिखिए।
⇒ कोयले के चार प्रकार निम्नलिखित हैं:
- पीट: पीट कोयले का सबसे निचला रूप है। यह वनस्पति के अपघटन से बनता है और इसमें 25% से 30% कार्बन होता है। पीट का उपयोग ईंधन के रूप में नहीं किया जाता है, लेकिन इसका उपयोग खाद और अन्य उत्पादों के निर्माण में किया जाता है।
- लिग्नाइट: लिग्नाइट कोयले का दूसरा सबसे निचला रूप है। यह वनस्पति के अपघटन से भी बनता है, लेकिन यह पीट से अधिक कार्बन (30% से 40%) युक्त होता है। लिग्नाइट का उपयोग ईंधन के रूप में किया जा सकता है, लेकिन यह एन्थ्रेसाइट या बिटुमिनस कोयले की तुलना में कम ऊर्जावान होता है।
- बिटुमिनस: बिटुमिनस कोयले का तीसरा रूप है। यह वनस्पति के अपघटन से बनता है और इसमें 40% से 86% कार्बन होता है। बिटुमिनस कोयले का उपयोग ईंधन के रूप में किया जाता है और इसका उपयोग इस्पात के निर्माण में भी किया जाता है।
- एंथ्रेसाइट: एन्थ्रेसाइट कोयले का सबसे ऊंचा रूप है। यह वनस्पति के अपघटन से बनता है और इसमें 86% से 98% कार्बन होता है। एन्थ्रेसाइट कोयले का उपयोग ईंधन के रूप में किया जाता है और यह बिटुमिनस कोयले की तुलना में अधिक ऊर्जावान होता है।
कोयले के प्रकारों को उनकी कार्बन सामग्री के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है। कार्बन की मात्रा जितनी अधिक होती है, कोयला उतना ही अधिक ऊर्जावान होता है।
29. गोंडवाना क्षेत्र के कोयले मुख्यतः किन क्षेत्रों में पाया जाता है।
⇒ गोंडवाना क्षेत्र के कोयले मुख्यतः निम्नलिखित क्षेत्रों में पाए जाते हैं:
- दामोदर घाटी: दामोदर घाटी भारत का सबसे बड़ा कोयला उत्पादक क्षेत्र है। यहाँ भारत के कुल कोयला उत्पादन का लगभग 60% उत्पादन होता है। दामोदर घाटी में कोयले के बड़े भंडार हैं, जिनमें झारखंड, पश्चिम बंगाल, और उड़ीसा राज्यों के कुछ हिस्से शामिल हैं।
- झारखंड: झारखंड भारत का दूसरा सबसे बड़ा कोयला उत्पादक राज्य है। यहाँ भारत के कुल कोयला उत्पादन का लगभग 20% उत्पादन होता है। झारखंड में कोयले के बड़े भंडार हैं, जिनमें धनबाद, गिरिडीह, बोकारो, और हजारीबाग जिले शामिल हैं।
- छत्तीसगढ़: छत्तीसगढ़ भारत का तीसरा सबसे बड़ा कोयला उत्पादक राज्य है। यहाँ भारत के कुल कोयला उत्पादन का लगभग 10% उत्पादन होता है। छत्तीसगढ़ में कोयले के बड़े भंडार हैं, जिनमें कोरबा, रायगढ़, और बलरामपुर जिले शामिल हैं।
- ओडिशा: ओडिशा भारत का चौथा सबसे बड़ा कोयला उत्पादक राज्य है। यहाँ भारत के कुल कोयला उत्पादन का लगभग 5% उत्पादन होता है। ओडिशा में कोयले के बड़े भंडार हैं, जिनमें सुंदरगढ़, जाजपुर, और मयूरभंज जिले शामिल हैं।
गोंडवाना क्षेत्र के कोयले मुख्य रूप से बिटुमिनस प्रकार के होते हैं। इनमें 40% से 86% कार्बन होता है। ये कोयले ईंधन के रूप में उपयोग किए जाते हैं और इस्पात के निर्माण में भी उपयोग किए जाते हैं।
गोंडवाना क्षेत्र के कोयले का निर्माण लगभग 300 मिलियन वर्ष पहले हुआ था, जब यह क्षेत्र एक विशाल उष्णकटिबंधीय वन था। इन वनों में विभिन्न प्रकार के पौधे उगते थे, जिनके अपघटन से कोयला बनता है।
30. लौह-अलौह खनिज में अंतर बताएँ।
⇒ लौह और अलौह खनिज एक दूसरे से अपने रासायनिक संघटन और गुणों में भिन्न होते हैं।
लौह खनिज
- लौह खनिज वे खनिज होते हैं जिनमें लोहा एक प्रमुख तत्व होता है।
- लौह खनिज का उपयोग इस्पात के निर्माण में किया जाता है।
- लौह खनिज के कुछ प्रमुख उदाहरण हैं:
- हेमेटाइट (Fe2O3)
- मैग्नेटाइट (Fe3O4)
- लिमोनाइट (Fe2O3.3H2O)
अलौह खनिज
- अलौह खनिज वे खनिज होते हैं जिनमें लोहा एक प्रमुख तत्व नहीं होता है।
- अलौह खनिज का उपयोग विभिन्न प्रकार के उत्पादों के निर्माण में किया जाता है, जैसे कि:
- इमारती सामग्री
- धातुओं के मिश्र धातु
- रसायन
- कागज
- अलौह खनिज के कुछ प्रमुख उदाहरण हैं:
- बॉक्साइट (Al2O3.nH2O)
- जिंक ब्लेंड (ZnS)
- कॉपर पाइराइट्स (CuFeS2)
- मैग्नेसाइट (MgCO3)
लौह और अलौह खनिजों में अंतर
लक्षण | लौह खनिज | अलौह खनिज |
---|---|---|
रासायनिक संघटन | लोहा एक प्रमुख तत्व होता है। | लोहा एक प्रमुख तत्व नहीं होता है। |
उपयोग | इस्पात के निर्माण में किया जाता है। | विभिन्न प्रकार के उत्पादों के निर्माण में किया जाता है। |
कुछ प्रमुख उदाहरण | हेमेटाइट, मैग्नेटाइट, लिमोनाइट | बॉक्साइट, जिंक ब्लेंड, कॉपर पाइराइट्स, मैग्नेसाइट |
लौह और अलौह खनिजों के बीच कुछ समानताएँ भी हैं। दोनों प्रकार के खनिज प्राकृतिक रूप से पाए जाते हैं और उनका उपयोग विभिन्न प्रकार के उत्पादों के निर्माण में किया जाता है।
31. छोटानागपुर खनिज पेटी का क्या महत्त्व है ?
⇒ छोटानागपुर खनिज पेटी भारत के सबसे महत्वपूर्ण खनिज उत्पादक क्षेत्रों में से एक है। यह क्षेत्र झारखंड, बिहार, और ओडिशा राज्यों में फैला हुआ है। छोटानागपुर खनिज पेटी में निम्नलिखित खनिजों के बड़े भंडार हैं:
- लौह अयस्क: छोटानागपुर खनिज पेटी भारत का सबसे बड़ा लौह अयस्क उत्पादक क्षेत्र है। यहाँ भारत के कुल लौह अयस्क उत्पादन का लगभग 50% उत्पादन होता है।
- कोयला: छोटानागपुर खनिज पेटी भारत का दूसरा सबसे बड़ा कोयला उत्पादक क्षेत्र है। यहाँ भारत के कुल कोयला उत्पादन का लगभग 20% उत्पादन होता है।
- बॉक्साइट: छोटानागपुर खनिज पेटी भारत का तीसरा सबसे बड़ा बॉक्साइट उत्पादक क्षेत्र है। यहाँ भारत के कुल बॉक्साइट उत्पादन का लगभग 15% उत्पादन होता है।
- जिंक: छोटानागपुर खनिज पेटी भारत का चौथा सबसे बड़ा जिंक उत्पादक क्षेत्र है। यहाँ भारत के कुल जिंक उत्पादन का लगभग 10% उत्पादन होता है।
- ताँबा: छोटानागपुर खनिज पेटी भारत का पांचवाँ सबसे बड़ा ताँबा उत्पादक क्षेत्र है। यहाँ भारत के कुल ताँबा उत्पादन का लगभग 5% उत्पादन होता है।
छोटानागपुर खनिज पेटी का भारत की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान है। यह क्षेत्र भारत के लौह, इस्पात, बिजली, और अन्य उद्योगों के लिए कच्चे माल का एक प्रमुख स्रोत है।
छोटानागपुर खनिज पेटी के महत्त्व को निम्नलिखित बिंदुओं से समझा जा सकता है:
- यह क्षेत्र भारत के लौह और इस्पात उद्योग के लिए कच्चे माल का एक प्रमुख स्रोत है। छोटानागपुर खनिज पेटी में लौह अयस्क के बड़े भंडार हैं, जिनका उपयोग इस्पात के निर्माण में किया जाता है। भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा इस्पात उत्पादक देश है और छोटानागपुर खनिज पेटी इस उद्योग के लिए एक महत्वपूर्ण संसाधन है।
- यह क्षेत्र भारत के कोयला उद्योग के लिए कच्चे माल का एक प्रमुख स्रोत है। छोटानागपुर खनिज पेटी में कोयले के बड़े भंडार हैं, जिनका उपयोग बिजली उत्पादन, उद्योग, और परिवहन के लिए किया जाता है। भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा कोयला उत्पादक देश है और छोटानागपुर खनिज पेटी इस उद्योग के लिए एक महत्वपूर्ण संसाधन है।
- यह क्षेत्र भारत के अन्य उद्योगों के लिए भी कच्चे माल का एक प्रमुख स्रोत है। छोटानागपुर खनिज पेटी में बॉक्साइट, जिंक, ताँबा, और अन्य खनिजों के बड़े भंडार हैं, जिनका उपयोग विभिन्न प्रकार के उत्पादों के निर्माण में किया जाता है।
छोटानागपुर खनिज पेटी भारत के आर्थिक विकास के लिए एक महत्वपूर्ण संसाधन है। इस क्षेत्र के विकास से भारत के लौह और इस्पात, कोयला, और अन्य उद्योगों को बढ़ावा मिलेगा।
32. बॉक्साइट किस तरह एक उपयोगी खनिज है ? इसकी प्राप्ति किन चट्टानों से होती है ? झारखण्ड के किन जिलों में इसकी विकसित खाने हैं ?
⇒ बॉक्साइट एक उपयोगी खनिज है क्योंकि यह एल्यूमीनियम का मुख्य स्रोत है। एल्यूमीनियम एक हल्का, मजबूत, और टिकाऊ धातु है जिसका उपयोग विभिन्न प्रकार के उत्पादों के निर्माण में किया जाता है, जैसे कि:
- वाहन
- निर्माण सामग्री
- इलेक्ट्रॉनिक उपकरण
- खाना पकाने के बर्तन
- फर्नीचर
- उद्योगों में
बॉक्साइट का उपयोग एल्यूमिना के निर्माण में किया जाता है, जो एल्यूमीनियम का एक शुद्ध रूप है। एल्यूमिना का उपयोग एल्यूमीनियम धातु के निर्माण में किया जाता है।
बॉक्साइट की प्राप्ति निम्नलिखित चट्टानों से होती है:
- लाल मिट्टी
- लैटेराइट
- आर्कोसोल
इन चट्टानों में एल्यूमीनियम का ऑक्साइड (Al2O3) होता है। बॉक्साइट का निर्माण इन चट्टानों के क्षरण के कारण होता है।
झारखण्ड के जिन जिलों में बॉक्साइट की विकसित खाने हैं, वे हैं:
- बोकारो
- धनबाद
- गिरिडीह
- खड़गपुर
- रामगढ़
- सिमडेगा
झारखण्ड में बॉक्साइट के बड़े भंडार हैं। यह राज्य भारत का दूसरा सबसे बड़ा बॉक्साइट उत्पादक राज्य है।
33. भारत में कोयला उत्खनन कब प्रारंभ हुआ ?
⇒ भारत में कोयला उत्खनन की शुरुआत 1774 में हुई थी। उस वर्ष, ईस्ट इंडिया कंपनी ने दामोदर नदी के पश्चिमी तट पर स्थित रानीगंज कोयला क्षेत्र में खनन शुरू किया। रानीगंज कोयला क्षेत्र भारत का सबसे पुराना और सबसे बड़ा कोयला क्षेत्र है।
1853 में, जब भाप से चलने वाली रेलगाड़ियों का परिचालन शुरू हुआ, तो कोयले की मांग में वृद्धि हुई। इससे कोयला खनन में तेजी आई। 1900 तक, भारत में कोयला उत्पादन 6.12 मिलियन टन प्रति वर्ष तक पहुंच गया था।
1973 में, भारत सरकार ने कोयला खान (राष्ट्रीयकरण) अधिनियम पारित किया। इस अधिनियम के तहत, सभी निजी कोयला खानों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया और उन्हें कोल इंडिया लिमिटेड के अधीन लाया गया।
वर्तमान में, भारत में कोयला उत्पादन लगभग 650 मिलियन टन प्रति वर्ष है। भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा कोयला उत्पादक देश है।
भारत में कोयला उत्खनन के इतिहास को निम्नलिखित चरणों में विभाजित किया जा सकता है:
- प्रारंभिक चरण (1774-1853): इस चरण में, कोयला खनन का कार्य बहुत सीमित था।
- विकास चरण (1853-1947): इस चरण में, कोयला खनन में तेजी आई।
- राष्ट्रीयकरण चरण (1973-वर्तमान): इस चरण में, सभी निजी कोयला खानों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया।
भारत में कोयला उत्खनन देश की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान देता है। कोयले का उपयोग बिजली उत्पादन, उद्योग, और परिवहन के लिए किया जाता है।
34. ऐलुमिनियम के उपयोग का उल्लेख कीजिए।
⇒ ऐलुमिनियम एक हल्का, मजबूत, और टिकाऊ धातु है जिसका उपयोग विभिन्न प्रकार के उत्पादों के निर्माण में किया जाता है। ऐलुमिनियम के कुछ प्रमुख उपयोग निम्नलिखित हैं:
- वाहन: ऐलुमिनियम का उपयोग वाहनों के निर्माण में किया जाता है, जैसे कि कार, ट्रक, बस, और विमान। ऐलुमिनियम वाहनों को हल्का और कुशल बनाता है।
- निर्माण सामग्री: ऐलुमिनियम का उपयोग निर्माण सामग्री के रूप में किया जाता है, जैसे कि खिड़कियां, दरवाजे, और छत। ऐलुमिनियम हल्का और टिकाऊ होता है, और यह आग प्रतिरोधी भी होता है।
- इलेक्ट्रॉनिक उपकरण: ऐलुमिनियम का उपयोग इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के निर्माण में किया जाता है, जैसे कि कंप्यूटर, मोबाइल फोन, और टीवी। ऐलुमिनियम विद्युत का एक अच्छा चालक होता है, और यह गर्मी को भी अच्छी तरह से अवशोषित करता है।
- खाना पकाने के बर्तन: ऐलुमिनियम का उपयोग खाना पकाने के बर्तनों के निर्माण में किया जाता है। ऐलुमिनियम हल्का और टिकाऊ होता है, और यह गर्मी को समान रूप से वितरित करता है।
- फर्नीचर: ऐलुमिनियम का उपयोग फर्नीचर के निर्माण में किया जाता है, जैसे कि कुर्सियाँ, मेजें, और अलमारियाँ। ऐलुमिनियम हल्का और टिकाऊ होता है, और यह जंग से मुक्त होता है।
- उद्योगों में: ऐलुमिनियम का उपयोग विभिन्न प्रकार के उद्योगों में किया जाता है, जैसे कि रसायन उद्योग, खाद्य उद्योग, और खनन उद्योग। ऐलुमिनियम हल्का और टिकाऊ होता है, और यह कई प्रकार के रसायनों के प्रतिरोधी होता है।
ऐलुमिनियम के अन्य उपयोगों में शामिल हैं:
- पैकेजिंग: ऐलुमिनियम का उपयोग खाद्य, पेय पदार्थ, और अन्य उत्पादों की पैकेजिंग के लिए किया जाता है। ऐलुमिनियम हल्का और टिकाऊ होता है, और यह खाद्य पदार्थों को संरक्षित करने में मदद करता है।
- मुद्रण: ऐलुमिनियम का उपयोग मुद्रण में किया जाता है, जैसे कि सिक्के, टिकट, और पत्रिकाओं के आवरण। ऐलुमिनियम मजबूत और टिकाऊ होता है, और यह मुद्रण प्रक्रिया के लिए उपयुक्त होता है।
- कला और शिल्प: ऐलुमिनियम का उपयोग कला और शिल्प में किया जाता है, जैसे कि मूर्तियों, गहनों, और सजावट की वस्तुओं। ऐलुमिनियम हल्का और टिकाऊ होता है, और इसे विभिन्न प्रकार के आकार और डिजाइनों में बनाया जा सकता है।
ऐलुमिनियम एक बहुमुखी धातु है जिसका उपयोग विभिन्न प्रकार के उत्पादों के निर्माण में किया जाता है। ऐलुमिनियम के हल्कापन, ताकत, और टिकाऊपन के कारण यह विभिन्न प्रकार के अनुप्रयोगों के लिए उपयुक्त है।
35. भारत के किन भागों में नदी डेल्टा का विकास हुआ है ? यहा का मृदा की क्या विशेषता है ?
⇒ भारत के पूर्वी तटीय भागों में मुख्य रूप से नदी डेल्टा का विकास हुआ है। पश्चिम बंगाल में गंगा का डेल्टा विश्व प्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त महानदी, गोदावरी, कृष्णा और कावेरी नदी के मुहाने पर भी डेल्टा का विकास हुआ है।
डेल्टाओं की मृदा नवीनतम जलोढ़ मृदा होती है। इस मृदा में नदी के बहाव के साथ बहकर आए विभिन्न प्रकार के खनिज और पदार्थ होते हैं। यह मृदा बहुत उपजाऊ होती है। इसमें मैग्नीशियम, पोटाश, चूना, फॉस्फोरस तथा जीवांश अधिक पाये जाते हैं। यह अधिकतर दलदली और नमकीन होती है। स्थानानुसार डेल्टाओं पर धान, जूट, गेहूँ, मक्का, दलहन आदि उपजाए जाते हैं।
भारत के प्रमुख नदी डेल्टाओं की सूची निम्नलिखित है:
-
- गंगा डेल्टा: पश्चिम बंगाल
-
- महानदी डेल्टा: ओडिशा
-
- गोदावरी डेल्टा: आंध्र प्रदेश
-
- कृष्णा डेल्टा: आंध्र प्रदेश
-
- कावेरी डेल्टा: तमिलनाडु
इन डेल्टाओं का भारत की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान है। ये डेल्टा कृषि, मत्स्य पालन, और उद्योग के लिए महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं।
36 संरचनात्मक गुणों के आधार पर ऊर्जा स्त्रोतों को किस प्रकार से बाँटा गया है ?
⇒ संरचनात्मक गुणों के आधार पर ऊर्जा स्त्रोतों को निम्नलिखित दो वर्गों में बाँटा गया है:
1. नवीकरणीय ऊर्जा स्त्रोत
नवीकरणीय ऊर्जा स्त्रोत वे ऊर्जा स्त्रोत हैं जो समय के साथ पुनः उत्पन्न हो सकते हैं। इन स्त्रोतों की आपूर्ति सीमित नहीं है और इनका उपयोग पर्यावरण के लिए हानिकारक नहीं है।
नवीकरणीय ऊर्जा स्त्रोतों के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं:
- सौर ऊर्जा: सूर्य से प्राप्त ऊर्जा।
- पवन ऊर्जा: हवा से प्राप्त ऊर्जा।
- जल ऊर्जा: जल के बहाव से प्राप्त ऊर्जा।
- जैव ऊर्जा: जैविक पदार्थों से प्राप्त ऊर्जा।
- भूतापीय ऊर्जा: पृथ्वी के भीतर की गर्मी से प्राप्त ऊर्जा।
2. अनवीकरणीय ऊर्जा स्त्रोत
अनवीकरणीय ऊर्जा स्त्रोत वे ऊर्जा स्त्रोत हैं जो समय के साथ समाप्त हो जाते हैं। इन स्त्रोतों की आपूर्ति सीमित है और इनका उपयोग पर्यावरण के लिए हानिकारक हो सकता है।
अनवीकरणीय ऊर्जा स्त्रोतों के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं:
- कोयला: पृथ्वी की सतह के नीचे पाया जाने वाला कार्बन का एक रूप।
- तेल: पृथ्वी की सतह के नीचे पाया जाने वाला कार्बन और हाइड्रोजन का एक मिश्रण।
- गैस: पृथ्वी की सतह के नीचे पाया जाने वाला कार्बन, हाइड्रोजन, और अन्य गैसों का एक मिश्रण।
नवीकरणीय ऊर्जा स्त्रोतों का उपयोग पर्यावरण के लिए अधिक अनुकूल है क्योंकि इनके उपयोग से प्रदूषण नहीं होता है। हालांकि, इन स्त्रोतों की आपूर्ति सीमित है और इनका उपयोग हमेशा संभव नहीं हो सकता है। अनवीकरणीय ऊर्जा स्त्रोतों का उपयोग अधिक सुविधाजनक है क्योंकि इनकी आपूर्ति अधिक है और इनका उपयोग आसान है। हालांकि, इन स्त्रोतों के उपयोग से प्रदूषण होता है।
37. हॉट स्पॉट्स के निर्धारण की मुख्य शर्ते क्या हैं ?
⇒ हॉट स्पॉट्स के निर्धारण की मुख्य शर्ते निम्नलिखित हैं:
- पृथ्वी की सतह के नीचे उच्च तापमान और दबाव: हॉट स्पॉट्स में पृथ्वी की सतह के नीचे उच्च तापमान और दबाव होता है। यह तापमान और दबाव पृथ्वी के आंतरिक भाग से गर्मी और मैग्मा के प्रवाह के कारण होता है।
- ज्वालामुखी गतिविधि: हॉट स्पॉट्स में अक्सर ज्वालामुखी गतिविधि होती है। ज्वालामुखी गतिविधि पृथ्वी के भीतर से मैग्मा के निकलने के कारण होती है।
- तापीय प्रवाह: हॉट स्पॉट्स में तापीय प्रवाह अधिक होता है। तापीय प्रवाह पृथ्वी की सतह पर पृथ्वी के भीतर से गर्मी के प्रवाह को मापता है।
हॉट स्पॉट्स के निर्धारण के लिए इन शर्ते का उपयोग करके एक क्षेत्र का विश्लेषण किया जाता है। यदि किसी क्षेत्र में इन शर्ते पूरी होती हैं, तो उस क्षेत्र को हॉट स्पॉट माना जा सकता है।
हॉट स्पॉट्स के निर्धारण के लिए उपयोग किए जाने वाले कुछ विशिष्ट तरीकों में शामिल हैं:
- भूकंपीय सर्वेक्षण: भूकंपीय सर्वेक्षण से पृथ्वी की संरचना और गतिविधि का अध्ययन किया जा सकता है। हॉट स्पॉट्स में भूकंपीय गतिविधि अधिक होती है।
- मैग्नेटिक सर्वेक्षण: मैग्नेटिक सर्वेक्षण से पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र का अध्ययन किया जा सकता है। हॉट स्पॉट्स में चुंबकीय क्षेत्र असामान्य होता है।
- तापीय सर्वेक्षण: तापीय सर्वेक्षण से पृथ्वी की सतह के तापमान का अध्ययन किया जा सकता है। हॉट स्पॉट्स में सतह का तापमान अधिक होता है।
हॉट स्पॉट्स का अध्ययन पृथ्वी के आंतरिक भाग के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए महत्वपूर्ण है। हॉट स्पॉट्स पृथ्वी के विकास और ज्वालामुखी गतिविधि के लिए जिम्मेदार हैं।
38. भारत के किन-किन क्षेत्रों में पवन ऊर्जा के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ हैं ?
⇒ भारत के निम्नलिखित क्षेत्रों में पवन ऊर्जा के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ हैं:
- तटीय क्षेत्र: तटीय क्षेत्रों में पवनें तेज और स्थिर होती हैं। इसलिए, इन क्षेत्रों में पवन ऊर्जा के संयंत्र स्थापित करने के लिए उपयुक्त हैं।
- पहाड़ी क्षेत्र: पहाड़ी क्षेत्रों में पवनें तेज और स्थिर होती हैं। इसलिए, इन क्षेत्रों में भी पवन ऊर्जा के संयंत्र स्थापित करने के लिए उपयुक्त हैं।
- मैदानी क्षेत्र: मैदानी क्षेत्रों में भी पवन ऊर्जा के संयंत्र स्थापित किए जा सकते हैं। हालांकि, इन क्षेत्रों में पवन की गति अपेक्षाकृत कम होती है।
भारत के उन क्षेत्रों में जहां पवन ऊर्जा के लिए अनुकूल परिस्थितियां हैं, वहां पवन ऊर्जा के संयंत्र स्थापित किए जा रहे हैं। भारत में पवन ऊर्जा के संयंत्रों की क्षमता लगातार बढ़ रही है।
भारत के कुछ प्रमुख पवन ऊर्जा क्षेत्र निम्नलिखित हैं:
- तमिलनाडु: तमिलनाडु भारत का सबसे बड़ा पवन ऊर्जा उत्पादक राज्य है। यहां तमिलनाडु तटीय क्षेत्र में कई पवन ऊर्जा संयंत्र स्थापित किए गए हैं।
- गुजरात: गुजरात भारत का दूसरा सबसे बड़ा पवन ऊर्जा उत्पादक राज्य है। यहां गुजरात तटीय क्षेत्र और कच्छ के रेगिस्तान में कई पवन ऊर्जा संयंत्र स्थापित किए गए हैं।
- महाराष्ट्र: महाराष्ट्र भारत का तीसरा सबसे बड़ा पवन ऊर्जा उत्पादक राज्य है। यहां महाराष्ट्र तटीय क्षेत्र और पश्चिमी घाट में कई पवन ऊर्जा संयंत्र स्थापित किए गए हैं।
- कर्नाटक: कर्नाटक भारत का चौथा सबसे बड़ा पवन ऊर्जा उत्पादक राज्य है। यहां कर्नाटक तटीय क्षेत्र और पश्चिमी घाट में कई पवन ऊर्जा संयंत्र स्थापित किए गए हैं।
भारत सरकार पवन ऊर्जा के विकास को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न नीतियां और कार्यक्रम लागू कर रही है। इन नीतियों और कार्यक्रमों के तहत, भारत सरकार पवन ऊर्जा के संयंत्र स्थापित करने के लिए निवेशकों को प्रोत्साहन प्रदान कर रही है।
39. सागर सम्राट क्या है ?
⇒ सागर सम्राट एक विशाल तेल टैंकर है जिसे 1998 में जापान में बनाया गया था। यह दुनिया का सबसे बड़ा मालवाहक जहाज है। सागर सम्राट की लंबाई 458 मीटर, चौड़ाई 68 मीटर, और गहराई 30 मीटर है। इसका वजन 657,000 टन है। यह जहाज 260,000 टन कच्चे तेल ले जा सकता है।
सागर सम्राट का मालिक एक चीनी कंपनी है। यह जहाज आमतौर पर मध्य पूर्व से चीन के बीच तेल ले जाता है। यह जहाज 15 समुद्री मील प्रति घंटे की रफ्तार से चल सकता है।
सागर सम्राट के निर्माण से कई पर्यावरणीय चिंताएं भी उठी हैं। इस जहाज से होने वाले वायु प्रदूषण और समुद्री प्रदूषण को लेकर चिंताएं हैं।
सागर सम्राट के कुछ प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं:
- लंबाई: 458 मीटर
- चौड़ाई: 68 मीटर
- गहराई: 30 मीटर
- वजन: 657,000 टन
- लोड क्षमता: 260,000 टन कच्चा तेल
- मालिक: चीनी कंपनी
- निर्माण: 1998, जापान
- रफ्तार: 15 समुद्री मील प्रति घंटे
40. ताप शक्ति क्यों समाप्य संसाधन है ?
⇒ ताप शक्ति समाप्य संसाधन है क्योंकि इसका उपयोग करने के लिए आवश्यक ईंधन, जैसे कि कोयला, तेल, और गैस, सीमित मात्रा में उपलब्ध हैं। इन ईंधनों का निर्माण लाखों या अरबों वर्षों में हुआ है, और इनका पुनर्जनन करने में करोड़ों या अरबों वर्ष लग सकते हैं।
ताप शक्ति संयंत्र इन ईंधनों को जलाकर ऊष्मा उत्पन्न करते हैं। इस ऊष्मा का उपयोग भाप बनाने के लिए किया जाता है, जो फिर एक टर्बाइन को चलाती है। टर्बाइन एक जनरेटर को चलाता है, जो विद्युत उत्पन्न करता है।
ताप शक्ति संयंत्रों का उपयोग दुनिया भर में विद्युत उत्पादन के लिए किया जाता है। हालांकि, इन संयंत्रों के संचालन से प्रदूषण होता है। इन संयंत्रों से निकलने वाला धुआं वायु प्रदूषण का कारण बनता है, जो स्वास्थ्य समस्याओं का कारण बन सकता है।
ताप शक्ति संयंत्रों का उपयोग पर्यावरण के लिए हानिकारक है। इसलिए, नवीकरणीय ऊर्जा संसाधनों, जैसे कि सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, और जल विद्युत, के उपयोग को बढ़ावा देना महत्वपूर्ण है।
ताप शक्ति के समाप्य होने के कुछ कारण निम्नलिखित हैं:
- ईंधनों की सीमित मात्रा: कोयला, तेल, और गैस, जिनका उपयोग ताप शक्ति संयंत्रों में किया जाता है, सीमित मात्रा में उपलब्ध हैं। इन ईंधनों का निर्माण लाखों या अरबों वर्षों में हुआ है, और इनका पुनर्जनन करने में करोड़ों या अरबों वर्ष लग सकते हैं।
- ईंधनों की बढ़ती मांग: दुनिया की बढ़ती जनसंख्या और अर्थव्यवस्था के कारण ईंधनों की मांग बढ़ रही है। इससे ईंधनों की उपलब्धता कम हो रही है।
- ईंधनों की बढ़ती कीमत: ईंधनों की बढ़ती मांग के कारण उनकी कीमत भी बढ़ रही है। इससे ताप शक्ति का उत्पादन महंगा हो रहा है।
इन कारणों से, ताप शक्ति एक समाप्य संसाधन है।
41. निम्नलिखित नदी घाटी परियोजनाएँ किन-किन राज्यों में अवस्थित हैं – हीराकुंड, तुंगभद्रा एवं रिहन्द।
⇒ हीराकुंड नदी घाटी परियोजना ओडिशा राज्य में महानदी नदी पर स्थित है। यह भारत की सबसे बड़ी नदी घाटी परियोजना है। इस परियोजना से 2.7 लाख मेगावाट बिजली का उत्पादन होता है। इसके अलावा, यह परियोजना सिंचाई, जल परिवहन, और मत्स्य पालन के लिए भी महत्वपूर्ण है।
तुंगभद्रा नदी घाटी परियोजना कर्नाटक और आंध्र प्रदेश राज्यों में तुंगभद्रा नदी पर स्थित है। यह परियोजना 1960 में शुरू हुई थी। इस परियोजना से 1.7 लाख मेगावाट बिजली का उत्पादन होता है। इसके अलावा, यह परियोजना सिंचाई, जल परिवहन, और मत्स्य पालन के लिए भी महत्वपूर्ण है।
रिहन्द नदी घाटी परियोजना उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश राज्यों में रिहन्द नदी पर स्थित है। यह परियोजना 1954 में शुरू हुई थी। इस परियोजना से 1.2 लाख मेगावाट बिजली का उत्पादन होता है। इसके अलावा, यह परियोजना सिंचाई, जल परिवहन, और मत्स्य पालन के लिए भी महत्वपूर्ण है।
इस प्रकार, हीराकुंड नदी घाटी परियोजना ओडिशा राज्य में, तुंगभद्रा नदी घाटी परियोजना कर्नाटक और आंध्र प्रदेश राज्यों में, और रिहन्द नदी घाटी परियोजना उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश राज्यों में स्थित है।
42. वन्य जीवों के ह्रास में प्रदूषण जनित समस्याओं पर अपना विचार स्पष्ट कीजिए।
⇒ प्रदूषण वन्य जीवों के ह्रास का एक प्रमुख कारण है। वायु, जल, और मृदा प्रदूषण वन्य जीवों के जीवन को प्रभावित करते हैं।
वायु प्रदूषण वन्य जीवों के लिए सबसे गंभीर समस्या है। वायु प्रदूषण से सांस लेने में कठिनाई, आंखों में जलन, और अन्य स्वास्थ्य समस्याएं हो सकती हैं। वायु प्रदूषण से वन्य जीवों की प्रजनन क्षमता भी प्रभावित होती है।
जल प्रदूषण वन्य जीवों के लिए भी हानिकारक है। जल प्रदूषण से मछलियों और अन्य जलीय जीवों की मृत्यु हो सकती है। जल प्रदूषण से वन्य जीवों के आवास भी नष्ट हो सकते हैं।
मृदा प्रदूषण वन्य जीवों के लिए भी खतरा है। मृदा प्रदूषण से पौधों की वृद्धि प्रभावित होती है, जिससे वन्य जीवों को भोजन और आश्रय की कमी हो सकती है।
प्रदूषण के कारण वन्य जीवों के ह्रास के कुछ प्रमुख परिणाम निम्नलिखित हैं:
- वन्य जीवों की प्रजातियों का विलुप्त होना: प्रदूषण के कारण कई वन्य जीवों की प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं।
- वन्य जीवों की आबादी में कमी: प्रदूषण के कारण वन्य जीवों की आबादी में कमी हो रही है।
- वन्य जीवों के स्वास्थ्य में गिरावट: प्रदूषण के कारण वन्य जीवों के स्वास्थ्य में गिरावट हो रही है।
प्रदूषण से वन्य जीवों के ह्रास को रोकने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:
- प्रदूषण को कम करने के लिए औद्योगिक और वाहन उत्सर्जन को नियंत्रित करना।
- प्रदूषित जल और मृदा की सफाई करना।
- वनों की कटाई को रोकना और वन्यजीव अभयारण्यों की स्थापना करना।
प्रदूषण से वन्य जीवों के ह्रास को रोकना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है, लेकिन यह आवश्यक है। वन्य जीवों का संरक्षण हमारे पर्यावरण के लिए महत्वपूर्ण है।
43. भाखड़ा-नांगल परियोजना का क्या महत्त्व है ?
⇒ भाखड़ा-नांगल परियोजना भारत की सबसे बड़ी बहुउद्देशीय नदी घाटी परियोजना है। यह परियोजना पंजाब, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान और हरियाणा राज्यों में सतलुज नदी पर स्थित है। इस परियोजना का निर्माण 1948 में शुरू हुआ और 1963 में पूरा हुआ।
भाखड़ा-नांगल परियोजना का महत्त्व निम्नलिखित है:
- सिंचाई: इस परियोजना से लगभग 2.5 मिलियन हेक्टेयर भूमि की सिंचाई होती है। इससे पंजाब, राजस्थान, और हरियाणा राज्यों में कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई है।
- विद्युत उत्पादन: इस परियोजना से लगभग 1,000 मेगावाट बिजली का उत्पादन होता है। यह बिजली पंजाब, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, और दिल्ली राज्यों में उपयोग की जाती है।
- जलाशय: इस परियोजना ने गोविन्द सागर नामक एक विशाल जलाशय बनाया है। यह जलाशय सिंचाई, जल परिवहन, और मत्स्य पालन के लिए महत्वपूर्ण है।
भाखड़ा-नांगल परियोजना भारत के आर्थिक विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। यह परियोजना सिंचाई, विद्युत उत्पादन, और जल संसाधनों के प्रबंधन में महत्वपूर्ण योगदान दे रही है।
इस परियोजना के कुछ अन्य महत्त्व निम्नलिखित हैं:
- यह परियोजना एक महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल है।
- यह परियोजना भारत के जल संसाधनों के प्रबंधन में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है।
- यह परियोजना भारत के आर्थिक विकास और लोगों के जीवन स्तर में सुधार में एक महत्वपूर्ण योगदान दे रही है।
44. पारंपरिक ऊर्जा स्रोत किसे कहा जाता है ?
⇒ पारंपरिक ऊर्जा स्रोत वे ऊर्जा स्रोत हैं जिन्हें प्राचीन समय से उपयोग किया जा रहा है। इन ऊर्जा स्रोतों का निर्माण लाखों या अरबों वर्षों में हुआ है, और इनका पुनर्जनन करने में करोड़ों या अरबों वर्ष लग सकते हैं।
पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं:
- कोयला: कोयला एक जीवाश्म ईंधन है जो लाखों वर्षों पहले पौधों और जानवरों के अवशेषों से बना है। कोयला का उपयोग विद्युत उत्पादन, उद्योग, और परिवहन के लिए किया जाता है।
- तेल: तेल एक जीवाश्म ईंधन है जो लाखों वर्षों पहले पौधों और जानवरों के अवशेषों से बना है। तेल का उपयोग विद्युत उत्पादन, उद्योग, और परिवहन के लिए किया जाता है।
- गैस: गैस एक जीवाश्म ईंधन है जो लाखों वर्षों पहले पौधों और जानवरों के अवशेषों से बना है। गैस का उपयोग विद्युत उत्पादन, उद्योग, और परिवहन के लिए किया जाता है।
- जल विद्युत: जल विद्युत ऊर्जा का एक रूप है जो जल के बहाव से उत्पन्न होती है। जल विद्युत संयंत्रों में, बांधों का उपयोग जलाशयों का निर्माण करने के लिए किया जाता है। इन जलाशयों से पानी को एक टर्बाइन के माध्यम से प्रवाहित किया जाता है, जो एक जनरेटर को चलाता है। जनरेटर विद्युत उत्पन्न करता है।
पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों के कुछ लाभ निम्नलिखित हैं:
- ये स्रोत सस्ते और आसानी से उपलब्ध हैं।
- इनका उपयोग करके बड़ी मात्रा में ऊर्जा उत्पन्न की जा सकती है।
- इनका उपयोग करके विभिन्न प्रकार की विद्युत उपकरणों को चलाया जा सकता है।
पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों के कुछ नुकसान निम्नलिखित हैं:
- ये स्रोत समाप्य हैं।
- इनके उपयोग से प्रदूषण होता है।
- इनके उपयोग से जलवायु परिवर्तन होता है।
आजकल, पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों के स्थान पर नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों का उपयोग बढ़ाया जा रहा है। नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत समाप्य नहीं होते हैं और इनके उपयोग से प्रदूषण नहीं होता है।
45. दस लुप्त होने वाले पशु-पक्षियों का नाम लिखिए।
⇒ भारत में लुप्त होने वाले पशु-पक्षियों में से दस हैं:
स्तनधारी:
- गंगा नदी डॉल्फ़िन
- सुंदरवन गैंडा
- बाघ
- हिमालयन तेंदुआ
- भारतीय हाथी
- लंगूर
- सफेद बाघ
- अस्वल
- घड़ियाल
पक्षी:
- ग्रेटर फ्लेमिंगो
- साइबेरियन क्रेन
- गिद्ध
- राजहंस
- राजा बृहदचूड़ी
- गुलाबी सिर वाला बत्तख
- काली तीतर
- लाल सिर वाली बत्तख
- ग्रेटर हूपो
इनमें से कुछ प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर हैं और कुछ विलुप्त हो चुकी हैं। इन प्रजातियों के विलुप्त होने के कई कारण हैं, जिनमें शिकार, आवास का विनाश, और जलवायु परिवर्तन शामिल हैं।
लुप्त होने वाले पशु-पक्षियों के संरक्षण के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:
- शिकार को रोकने के लिए कानूनों को लागू करना।
- आवास के विनाश को रोकने के लिए वनों की कटाई को नियंत्रित करना।
- जलवायु परिवर्तन को कम करने के लिए प्रयास करना।
- पशु-पक्षियों के संरक्षण के लिए संरक्षित क्षेत्रों की स्थापना करना।
लुप्त होने वाले पशु-पक्षियों का संरक्षण हमारे पर्यावरण के लिए महत्वपूर्ण है। इन प्रजातियों के विलुप्त होने से पारिस्थितिक तंत्र का संतुलन बिगड़ सकता है।
46. चूना-पत्थर की क्या उपयोगिता है ?
⇒ चूना-पत्थर एक महत्वपूर्ण खनिज है जिसका उपयोग कई उद्देश्यों के लिए किया जाता है। यह मुख्य रूप से कैल्शियम कार्बोनेट (CaCO3) से बना होता है। चूना-पत्थर की उपयोगिता निम्नलिखित है:
- निर्माण: चूना-पत्थर का उपयोग सीमेंट, कंक्रीट, और अन्य निर्माण सामग्री बनाने के लिए किया जाता है। सीमेंट और कंक्रीट निर्माण में सबसे महत्वपूर्ण सामग्रियों में से एक हैं।
- उद्योग: चूना-पत्थर का उपयोग कांच, कागज, और अन्य औद्योगिक उत्पादों बनाने के लिए किया जाता है।
- कृषि: चूना-पत्थर का उपयोग मिट्टी में पीएच स्तर को संतुलित करने के लिए किया जाता है। इससे पौधों को आवश्यक पोषक तत्वों को अवशोषित करने में मदद मिलती है।
- पर्यावरण: चूना-पत्थर का उपयोग प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए किया जाता है। उदाहरण के लिए, चूना-पत्थर का उपयोग जल प्रदूषण को कम करने के लिए किया जा सकता है।
चूना-पत्थर की उपयोगिता के कुछ विशिष्ट उदाहरण निम्नलिखित हैं:
- चूना-पत्थर का उपयोग मूर्तियों, स्मारकों, और अन्य वास्तुशिल्पीय संरचनाओं को बनाने के लिए किया जाता है।
- चूना-पत्थर का उपयोग सड़कों, रेलवे, और अन्य बुनियादी ढांचे के निर्माण में किया जाता है।
- चूना-पत्थर का उपयोग कागज बनाने के लिए किया जाता है। चूना-पत्थर का उपयोग कागज को सफेद और चिकना बनाने के लिए किया जाता है।
- चूना-पत्थर का उपयोग रसायनों, जैसे कि सोडा ऐश और क्लोरीन, बनाने के लिए किया जाता है।
चूना-पत्थर एक बहुमुखी खनिज है जिसका उपयोग कई उद्देश्यों के लिए किया जाता है। यह एक महत्वपूर्ण संसाधन है जो हमारे जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
47. परमाणु-शक्ति किन-किन खनिजों से प्राप्त होती है ?
⇒ परमाणु-शक्ति यूरेनियम, थोरियम, और प्लूटोनियम जैसे खनिजों से प्राप्त होती है। इन खनिजों में अत्यधिक अस्थिर परमाणु होते हैं जो विखंडन नामक प्रक्रिया से गुजरते हैं। इस प्रक्रिया में, अस्थिर परमाणु दो या अधिक छोटे परमाणुओं में विभाजित हो जाते हैं और ऊर्जा उत्पन्न करते हैं।
यूरेनियम सबसे आम परमाणु-ऊर्जा खनिज है। यह प्रकृति में स्वतंत्र रूप से पाया जाता है या अन्य खनिजों में पाया जाता है। यूरेनियम-235, यूरेनियम का एक समस्थानिक, विखंडन प्रक्रिया से गुजरने में सक्षम है।
थोरियम एक अन्य परमाणु-ऊर्जा खनिज है जो यूरेनियम की तुलना में कम प्रचुर मात्रा में होता है। यह प्रकृति में स्वतंत्र रूप से पाया जाता है या अन्य खनिजों में पाया जाता है। थोरियम-232, थोरियम का एक समस्थानिक, विखंडन प्रक्रिया से गुजरने में सक्षम है, लेकिन इसे पहले प्लूटोनियम में परिवर्तित करना आवश्यक है।
प्लूटोनियम एक कृत्रिम परमाणु-ऊर्जा खनिज है। इसे यूरेनियम या थोरियम के विखंडन से प्राप्त किया जा सकता है। प्लूटोनियम-239, प्लूटोनियम का एक समस्थानिक, विखंडन प्रक्रिया से गुजरने में सक्षम है।
परमाणु-शक्ति संयंत्रों में, यूरेनियम, थोरियम, या प्लूटोनियम का उपयोग एक नियंत्रित विखंडन प्रक्रिया को चलाने के लिए किया जाता है। इस प्रक्रिया से उत्पन्न ऊर्जा का उपयोग भाप उत्पन्न करने के लिए किया जाता है, जो एक टर्बाइन को चलाता है। टर्बाइन एक जनरेटर को चलाता है, जो बिजली उत्पन्न करता है।
परमाणु-शक्ति एक महत्वपूर्ण ऊर्जा स्रोत है। यह बड़ी मात्रा में ऊर्जा उत्पन्न कर सकता है और प्रदूषण का कारण नहीं बनता है। हालांकि, परमाणु-शक्ति संयंत्रों में विकिरण के खतरे होते हैं।
48. कैंसर रोग के उपचार में वन का क्या योगदान है ?
⇒ वन कैंसर रोग के उपचार में कई तरह से योगदान दे सकते हैं।
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वनों में पाए जाने वाले पौधे कई तरह के औषधीय गुणों से भरपूर होते हैं। इन पौधों से कैंसर के इलाज के लिए उपयोगी दवाएं बनाई जा सकती हैं। उदाहरण के लिए, हिमालय यव (Thuja occidentalis) से टैक्सोल नामक रसायन प्राप्त किया जाता है, जिसका उपयोग कैंसर के इलाज में किया जाता है।
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वनों में पाए जाने वाले पौधे कैंसर के जोखिम को कम करने में भी मदद कर सकते हैं। इन पौधों में एंटीऑक्सिडेंट और अन्य यौगिक होते हैं जो कैंसर कोशिकाओं के विकास को रोकने में मदद कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, एंटीऑक्सिडेंट कैंसर कोशिकाओं को नुकसान पहुंचाने वाले मुक्त कणों को बेअसर करने में मदद कर सकते हैं।
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वनों में पाए जाने वाले पौधे कैंसर के रोगियों के लिए शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य में सुधार कर सकते हैं। वनों में घूमना और प्रकृति का आनंद लेना तनाव को कम करने और मूड में सुधार करने में मदद कर सकता है। इससे कैंसर के रोगियों की प्रतिरक्षा प्रणाली मजबूत हो सकती है और उनके इलाज के परिणाम बेहतर हो सकते हैं।
वनों के कैंसर रोग के उपचार में योगदान के कुछ विशिष्ट उदाहरण निम्नलिखित हैं:
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भारत में, हिमालय यव से टैक्सोल नामक रसायन प्राप्त किया जाता है, जिसका उपयोग कैंसर के इलाज में किया जाता है। टैक्सोल का उपयोग ल्यूकेमिया, ब्रेस्ट कैंसर, और ओवेरियन कैंसर के इलाज के लिए किया जाता है।
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चीन में, साल्विया मल्टीफ्लोरा नामक पौधे से गाल्बानोलिन नामक रसायन प्राप्त किया जाता है, जिसका उपयोग कैंसर के इलाज में किया जाता है। गाल्बानोलिन का उपयोग ब्रेस्ट कैंसर, प्रोस्टेट कैंसर, और ल्यूकेमिया के इलाज के लिए किया जाता है।
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जापान में, जापानी फ़िर (Abies homolepis) से एंडोथेसीन नामक रसायन प्राप्त किया जाता है, जिसका उपयोग कैंसर के इलाज में किया जाता है। एंडोथेसीन का उपयोग ब्रेस्ट कैंसर, ल्यूकेमिया, और मेलेनोमा के इलाज के लिए किया जाता है।
वनों के संरक्षण और संवर्धन से कैंसर रोग के उपचार में महत्वपूर्ण प्रगति हो सकती है।
49. जल विद्युत उत्पादन के कौन-कौन से मुख्य कारक हैं ?
⇒ जल विद्युत उत्पादन के मुख्य कारक निम्नलिखित हैं:
- जल की उपलब्धता: जल विद्युत उत्पादन के लिए पर्याप्त मात्रा में जल की उपलब्धता आवश्यक है। जल की उपलब्धता नदी की लंबाई, जल प्रवाह की मात्रा, और जलाशय की क्षमता पर निर्भर करती है।
- जल की ऊंचाई: जल विद्युत उत्पादन के लिए जल की ऊंचाई भी महत्वपूर्ण है। जल की ऊंचाई जितनी अधिक होगी, उतनी ही अधिक ऊर्जा उत्पन्न होगी।
- बांध की क्षमता: बांध की क्षमता जल विद्युत उत्पादन की क्षमता को निर्धारित करती है। बांध की क्षमता जितनी अधिक होगी, उतनी ही अधिक जल को एकत्र किया जा सकता है और उतनी ही अधिक ऊर्जा उत्पन्न की जा सकती है।
- टर्बाइन की दक्षता: टर्बाइन की दक्षता जल विद्युत उत्पादन की मात्रा को प्रभावित करती है। टर्बाइन की दक्षता जितनी अधिक होगी, उतनी ही अधिक ऊर्जा उत्पन्न की जा सकती है।
- विद्युत उत्पादन संयंत्र की दक्षता: विद्युत उत्पादन संयंत्र की दक्षता भी जल विद्युत उत्पादन की मात्रा को प्रभावित करती है। विद्युत उत्पादन संयंत्र की दक्षता जितनी अधिक होगी, उतनी ही अधिक ऊर्जा उत्पन्न की जा सकती है।
इन कारकों के अलावा, जल विद्युत उत्पादन पर मौसम का भी प्रभाव पड़ता है। वर्षा ऋतु में जल प्रवाह अधिक होता है, जिससे जल विद्युत उत्पादन अधिक होता है। शुष्क ऋतु में जल प्रवाह कम होता है, जिससे जल विद्युत उत्पादन कम होता है।
जल विद्युत उत्पादन के लिए उपयुक्त स्थानों में निम्नलिखित शामिल हैं:
- ऊंचे पहाड़ों पर स्थित नदियाँ: ऊंचे पहाड़ों पर स्थित नदियाँ अधिक ऊंचाई से गिरती हैं, जिससे अधिक ऊर्जा उत्पन्न होती है।
- जल प्रवाह की मात्रा अधिक होने वाली नदियाँ: जल प्रवाह की मात्रा अधिक होने वाली नदियों से अधिक जल विद्युत उत्पादन किया जा सकता है।
- जलाशय बनाने के लिए उपयुक्त स्थान: जलाशय बनाने के लिए उपयुक्त स्थान वह स्थान होता है जहाँ जलाशय का निर्माण करके जल की ऊंचाई को बढ़ाया जा सके।
जल विद्युत उत्पादन एक महत्वपूर्ण ऊर्जा स्रोत है। यह एक नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत है और यह प्रदूषण नहीं करता है।
50. भारत की सबसे बड़ी नदी घाटी परियोजना कौन है ? यह किस नदी पर है ? इससे किस क्षेत्र का आर्थिक विकास हुआ है ?
⇒ भारत की सबसे बड़ी नदी घाटी परियोजना भाखड़ा नांगल परियोजना है। यह परियोजना पंजाब में सतलुज नदी पर स्थित है। यह परियोजना भारत की पहली बहुउद्देशीय नदी घाटी परियोजना भी है। इस परियोजना के निर्माण से पंजाब, हरियाणा, और राजस्थान राज्यों का आर्थिक विकास हुआ है।
भाखड़ा नांगल परियोजना के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं:
- बाढ़ नियंत्रण: यह परियोजना सतलुज नदी में बाढ़ को नियंत्रित करने में मदद करती है।
- सिंचाई: यह परियोजना पंजाब, हरियाणा, और राजस्थान राज्यों में 1.2 मिलियन हेक्टेयर भूमि की सिंचाई में मदद करती है।
- विद्युत उत्पादन: यह परियोजना 5,700 मेगावाट बिजली का उत्पादन करती है।
भाखड़ा नांगल परियोजना से पंजाब, हरियाणा, और राजस्थान राज्यों में निम्नलिखित आर्थिक लाभ हुए हैं:
- बाढ़ नियंत्रण से कृषि भूमि को नुकसान से बचाया गया है।
- सिंचाई से कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई है।
- विद्युत उत्पादन से औद्योगिक विकास को बढ़ावा मिला है।
इस परियोजना के निर्माण से इन राज्यों में रोजगार के अवसर भी बढ़े हैं।
51. नवीकरणीय और अनवीकरणीय संसाधन में अंतर स्पष्ट करें।
⇒ नवीकरणीय और अनवीकरणीय संसाधनों में निम्नलिखित अंतर हैं:
नवीकरणीय संसाधन
- परिभाषा: वे संसाधन जो प्राकृतिक प्रक्रियाओं द्वारा बार-बार प्राप्त किए जा सकते हैं, नवीकरणीय संसाधन कहलाते हैं।
- उदाहरण: सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, जल ऊर्जा, वन, वनस्पति, आदि।
- विशेषताएं:
- ये संसाधन प्राकृतिक प्रक्रियाओं द्वारा लगातार पुनः उत्पन्न होते रहते हैं।
- इनका उपयोग सीमित मात्रा में किया जा सकता है, बिना इनके भंडार को कम किए।
- इनका उपयोग करने से पर्यावरण को नुकसान नहीं होता है।
अनवीकरणीय संसाधन
- परिभाषा: वे संसाधन जो प्राकृतिक प्रक्रियाओं द्वारा धीरे-धीरे बनते हैं और एक बार समाप्त हो जाने के बाद फिर से प्राप्त नहीं किए जा सकते हैं, अनवीकरणीय संसाधन कहलाते हैं।
- उदाहरण: कोयला, पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस, धातुएँ, आदि।
- विशेषताएं:
- इनका भंडार सीमित होता है और इनका उपयोग बार-बार करने से ये समाप्त हो सकते हैं।
- इनका उपयोग करने से पर्यावरण को नुकसान हो सकता है।
नवीकरणीय संसाधनों का उपयोग करने से पर्यावरण को नुकसान नहीं होता है, जबकि अनवीकरणीय संसाधनों का उपयोग करने से पर्यावरण को नुकसान हो सकता है। इसलिए, हमें नवीकरणीय संसाधनों का उपयोग बढ़ाना चाहिए और अनवीकरणीय संसाधनों का उपयोग कम करना चाहिए।
52. वन महोत्सव और बाघ परियोजना क्या है ?
⇒ वन महोत्सव
वन महोत्सव एक वार्षिक उत्सव है जो वनों के संरक्षण और संवर्धन के लिए मनाया जाता है। यह उत्सव आमतौर पर जुलाई या अगस्त के महीने में मनाया जाता है। वन महोत्सव के दौरान, लोगों को वनों के महत्व के बारे में जागरूक किया जाता है और उन्हें वनों के संरक्षण में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।
वन महोत्सव के दौरान, आमतौर पर निम्नलिखित कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं:
- वृक्षारोपण
- वन सफारी
- वन संरक्षण पर व्याख्यान
- वन संरक्षण पर प्रतियोगिताएँ
वन महोत्सव का उद्देश्य लोगों में वनों के प्रति जागरूकता बढ़ाना और उन्हें वनों के संरक्षण में भाग लेने के लिए प्रेरित करना है।
बाघ परियोजना
बाघ परियोजना भारत सरकार की एक पहल है जो बाघों के संरक्षण के लिए की गई है। यह परियोजना 1973 में शुरू की गई थी और इसका उद्देश्य बाघों की संख्या में वृद्धि करना और उनके आवास को सुरक्षित करना है।
बाघ परियोजना के तहत, भारत में 50 बाघ परियोजना क्षेत्र (टीआरए) बनाए गए हैं। इन क्षेत्रों में बाघों के संरक्षण के लिए निम्नलिखित उपाय किए जाते हैं:
- बाघों के आवास को सुरक्षित करना
- बाघों के शिकार को रोकना
- बाघों के लिए पर्याप्त भोजन उपलब्ध कराना
- बाघों के प्रजनन को बढ़ावा देना
बाघ परियोजना के परिणामस्वरूप, भारत में बाघों की संख्या में वृद्धि हुई है। 2022 तक, भारत में बाघों की संख्या 3,900 के करीब है।
बाघ परियोजना एक महत्वपूर्ण पहल है जो बाघों के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है।
53. सौर ऊर्जा का उत्पादन कैसे होता है ?
⇒ सौर ऊर्जा का उत्पादन सूर्य के प्रकाश से होता है। सूर्य के प्रकाश में विद्युत चुम्बकीय विकिरण होता है, जो इलेक्ट्रॉनों को उत्तेजित करता है। उत्तेजित इलेक्ट्रॉन ऊर्जा मुक्त करते हैं, जिसे बिजली में परिवर्तित किया जा सकता है।
सौर ऊर्जा का उत्पादन करने के लिए दो मुख्य तरीके हैं:
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फोटोवोल्टाइक तकनीक: इस तकनीक में, सौर प्रकाश से ऊर्जा को सीधे बिजली में परिवर्तित किया जाता है। फोटोवोल्टाइक सेल में दो प्रकार के पदार्थ होते हैं: एक धनात्मक प्रकार का पदार्थ और एक ऋणात्मक प्रकार का पदार्थ। जब सौर प्रकाश इन पदार्थों पर पड़ता है, तो इलेक्ट्रॉन उत्तेजित होते हैं और धनात्मक से ऋणात्मक पदार्थ की ओर बहते हैं। इस बहाव से विद्युत धारा उत्पन्न होती है।
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थर्मल सौर ऊर्जा: इस तकनीक में, सौर प्रकाश का उपयोग पानी को गर्म करने के लिए किया जाता है। गर्म पानी का उपयोग बिजली उत्पादन, घरों और व्यवसायों को गर्म करने, या अन्य उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है।
फोटोवोल्टाइक तकनीक का उपयोग करके सौर ऊर्जा का उत्पादन करने वाले उपकरणों को सौर पैनल कहा जाता है। सौर पैनल आमतौर पर छतों पर या खुले स्थानों में लगाए जाते हैं।
थर्मल सौर ऊर्जा का उत्पादन करने वाले उपकरणों को सौर संग्राहक कहा जाता है। सौर संग्राहक आमतौर पर छतों पर या खुले स्थानों में लगाए जाते हैं।
सौर ऊर्जा एक स्वच्छ और नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत है। सौर ऊर्जा का उपयोग करके बिजली का उत्पादन करने से प्रदूषण कम होता है।
54. भारत में नदियों के प्रदूषण के कारणों का वर्णन कीजिए।
⇒ सौर ऊर्जा का उत्पादन सूर्य के प्रकाश से होता है। सूर्य के प्रकाश में विद्युत चुम्बकीय विकिरण होता है, जो इलेक्ट्रॉनों को उत्तेजित करता है। उत्तेजित इलेक्ट्रॉन ऊर्जा मुक्त करते हैं, जिसे बिजली में परिवर्तित किया जा सकता है।
सौर ऊर्जा का उत्पादन करने के लिए दो मुख्य तरीके हैं:
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फोटोवोल्टाइक तकनीक: इस तकनीक में, सौर प्रकाश से ऊर्जा को सीधे बिजली में परिवर्तित किया जाता है। फोटोवोल्टाइक सेल में दो प्रकार के पदार्थ होते हैं: एक धनात्मक प्रकार का पदार्थ और एक ऋणात्मक प्रकार का पदार्थ। जब सौर प्रकाश इन पदार्थों पर पड़ता है, तो इलेक्ट्रॉन उत्तेजित होते हैं और धनात्मक से ऋणात्मक पदार्थ की ओर बहते हैं। इस बहाव से विद्युत धारा उत्पन्न होती है।
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थर्मल सौर ऊर्जा: इस तकनीक में, सौर प्रकाश का उपयोग पानी को गर्म करने के लिए किया जाता है। गर्म पानी का उपयोग बिजली उत्पादन, घरों और व्यवसायों को गर्म करने, या अन्य उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है।
फोटोवोल्टाइक तकनीक का उपयोग करके सौर ऊर्जा का उत्पादन करने वाले उपकरणों को सौर पैनल कहा जाता है। सौर पैनल आमतौर पर छतों पर या खुले स्थानों में लगाए जाते हैं।
थर्मल सौर ऊर्जा का उत्पादन करने वाले उपकरणों को सौर संग्राहक कहा जाता है। सौर संग्राहक आमतौर पर छतों पर या खुले स्थानों में लगाए जाते हैं।
सौर ऊर्जा एक स्वच्छ और नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत है। सौर ऊर्जा का उपयोग करके बिजली का उत्पादन करने से प्रदूषण कम होता है।
55. भौतिक गुणों के आधार पर मिट्टी को कितने वर्गों में बाँटा गया है ? गंगा के मैदान में किस प्रकार की मिट्टी पाई जाती है ?
⇒ भौतिक गुणों के आधार पर मिट्टी को निम्नलिखित चार वर्गों में बाँटा गया है:
- रेतीली मिट्टी (Sandy soil)
- दोमट मिट्टी (Loamy soil)
- चिकनी मिट्टी (Clayey soil)
- गाद मिट्टी (Silty soil)
इन वर्गों का निर्धारण मिट्टी में विभिन्न आकार के कणों की मात्रा के आधार पर किया जाता है।
रेतीली मिट्टी में सबसे बड़े आकार के कण होते हैं। ये कण एक-दूसरे से अच्छी तरह जुड़े नहीं होते हैं, जिससे मिट्टी में जल निकासी अच्छी होती है, लेकिन पोषक तत्वों का संरक्षण कम होता है।
दोमट मिट्टी में रेत, गाद और चिकनी मिट्टी के कणों का मिश्रण होता है। यह मिट्टी कृषि के लिए सबसे उपयुक्त होती है, क्योंकि इसमें जल निकासी, जल धारण क्षमता और पोषक तत्वों का संरक्षण दोनों अच्छी होती है।
चिकनी मिट्टी में सबसे छोटे आकार के कण होते हैं। ये कण एक-दूसरे से बहुत अच्छी तरह जुड़े होते हैं, जिससे मिट्टी में जल निकासी खराब होती है, लेकिन पोषक तत्वों का संरक्षण अच्छा होता है।
गाद मिट्टी में गाद के कणों की मात्रा अधिक होती है। यह मिट्टी रेतीली मिट्टी और चिकनी मिट्टी के बीच की होती है।
गंगा के मैदान में दोमट मिट्टी पाई जाती है। यह मिट्टी कृषि के लिए बहुत उपयुक्त है। गंगा नदी के बाढ़ के पानी से इस मिट्टी में रेत, गाद और चिकनी मिट्टी के कण मिल जाते हैं, जिससे यह मिट्टी उपजाऊ हो जाती है। गंगा के मैदान में मुख्य रूप से धान, गेहूँ, दलहन, तिलहन आदि फसलें उगाई जाती हैं।
गंगा के मैदान में पाई जाने वाली दोमट मिट्टी के प्रमुख गुण निम्नलिखित हैं:
- यह मिट्टी हल्की और मुलायम होती है।
- इसमें जल निकासी अच्छी होती है।
- यह मिट्टी पोषक तत्वों से भरपूर होती है।
- यह मिट्टी अच्छी तरह से हवादार होती है।
इन गुणों के कारण गंगा के मैदान में दोमट मिट्टी कृषि के लिए बहुत उपयुक्त है।
56. मुम्बई हाई तेल उत्पादक क्षेत्र का परिचय दें।
⇒ मुम्बई हाई तेल उत्पादक क्षेत्र अरब सागर में स्थित एक तेल क्षेत्र है जो मुंबई के पश्चिमी तट से लगभग 176 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह भारत का सबसे बड़ा तेल उत्पादक क्षेत्र है और देश के कुल तेल उत्पादन का लगभग 63% हिस्सा इसी क्षेत्र से प्राप्त होता है।
मुम्बई हाई क्षेत्र की खोज 1965 में भारत और सोवियत संघ के संयुक्त तेल अन्वेषण प्रयासों के दौरान हुई थी। 1974 में इस क्षेत्र से तेल उत्पादन शुरू हुआ। इस क्षेत्र में तेल के विशाल भंडार हैं और यह माना जाता है कि यह क्षेत्र भारत के तेल उत्पादन के लिए कई दशकों तक महत्वपूर्ण रहेगा।
मुम्बई हाई क्षेत्र में तेल के उत्पादन के लिए जल मंच (offshore platform) का उपयोग किया जाता है। इन जल मंचों पर तेल के कुएं खोदे जाते हैं और तेल को पाइपलाइनों के माध्यम से तेल रिफाइनरीओं तक पहुँचाया जाता है।
मुम्बई हाई तेल क्षेत्र भारत की अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण है। इस क्षेत्र से प्राप्त तेल का उपयोग देश के परिवहन, बिजली उत्पादन और उद्योगों में किया जाता है।
मुम्बई हाई तेल क्षेत्र के कुछ प्रमुख तथ्य इस प्रकार हैं:
- क्षेत्रफल: लगभग 15,000 वर्ग किलोमीटर
- तेल का उत्पादन: लगभग 35 मिलियन टन प्रति वर्ष
- तेल के भंडार: लगभग 16 अरब बैरल
- तेल के प्रकार: हल्के कच्चे तेल (light crude oil)
- उत्पादन विधि: जल मंच (offshore platform)
मुम्बई हाई तेल क्षेत्र भारत के लिए एक महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन है और यह देश की ऊर्जा सुरक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
57. नदी घाटी परियोजना के मुख्य उद्देश्य क्या हैं ?
⇒ नदी घाटी परियोजनाओं के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं:
-
सिंचाई: नदी घाटी परियोजनाओं का मुख्य उद्देश्य सिंचाई के लिए जल प्रदान करना है। इससे सूखे क्षेत्रों में सिंचाई सुविधाएँ उपलब्ध हो जाती हैं और कृषि उत्पादन में वृद्धि होती है।
-
विद्युत उत्पादन: नदी घाटी परियोजनाओं का दूसरा मुख्य उद्देश्य बिजली उत्पादन के लिए जल का उपयोग करना है। इससे जलविद्युत उत्पादन में वृद्धि होती है और देश की ऊर्जा सुरक्षा में मदद मिलती है।
-
बाढ़ नियंत्रण: नदी घाटी परियोजनाओं का तीसरा मुख्य उद्देश्य बाढ़ नियंत्रण करना है। बाँधों के निर्माण से नदियों की धारा को नियंत्रित किया जा सकता है और बाढ़ से होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है।
-
पर्यटन: नदी घाटी परियोजनाओं के आसपास पर्यटन सुविधाएँ विकसित की जा सकती हैं। इससे स्थानीय लोगों को रोजगार के अवसर मिलते हैं और देश की अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलता है।
-
मृदा संरक्षण: नदी घाटी परियोजनाओं से मृदा अपरदन को नियंत्रित करने में मदद मिलती है। इससे मृदा की उर्वरता को बढ़ावा मिलता है और कृषि उत्पादन में वृद्धि होती है।
नदी घाटी परियोजनाएं देश के आर्थिक और सामाजिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इन परियोजनाओं से कृषि उत्पादन में वृद्धि, बिजली उत्पादन में वृद्धि, बाढ़ नियंत्रण, पर्यटन विकास और मृदा संरक्षण जैसे क्षेत्रों में लाभ मिलता है।
58. अभयारण्य क्या है ? किन्हीं दो के नाम लिखें और उनकी स्थिति बताएँ।
⇒ अभयारण्य एक ऐसा क्षेत्र होता है जो वन्यजीवों के संरक्षण के लिए सरकार द्वारा घोषित किया जाता है। इस क्षेत्र में वन्यजीवों को शिकार, वन कटाई और अन्य मानवीय गतिविधियों से सुरक्षा प्रदान की जाती है। अभयारण्यों का उद्देश्य वन्यजीवों की आबादी को बढ़ाना, उनकी प्रजातियों को संरक्षित करना और उन्हें प्राकृतिक वातावरण में रहने की सुविधा प्रदान करना है।
भारत में कई अभयारण्य हैं। इनमें से कुछ प्रमुख अभयारण्यों के नाम और उनकी स्थिति इस प्रकार हैं:
- रणथंभौर राष्ट्रीय उद्यान: यह अभयारण्य राजस्थान राज्य में स्थित है। इस अभयारण्य में बाघों की बड़ी संख्या पाई जाती है।
- काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान: यह अभयारण्य असम राज्य में स्थित है। इस अभयारण्य में एक सींग वाले गैंडे की बड़ी संख्या पाई जाती है।
इनके अलावा, भारत में अन्य कई महत्वपूर्ण अभयारण्य हैं, जैसे:
- गिरि राष्ट्रीय उद्यान: उत्तराखंड में स्थित
- जिम कॉर्बेट राष्ट्रीय उद्यान: उत्तराखंड में स्थित
- सफारी अभयारण्य: राजस्थान में स्थित
- माउंट आबू राष्ट्रीय उद्यान: राजस्थान में स्थित
- केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान: कर्नाटक में स्थित
- बांदीपुर राष्ट्रीय उद्यान: कर्नाटक में स्थित
- पेरियार राष्ट्रीय उद्यान: तमिलनाडु में स्थित
अभयारण्यों का हमारे पर्यावरण के लिए बहुत महत्व है। ये वन्यजीवों के संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
59.पृथ्वी को नीला ग्रह की संज्ञा क्यों दी जाती है ?
⇒ पृथ्वी को नीला ग्रह की संज्ञा इसलिए दी जाती है क्योंकि इसकी सतह का लगभग 71% हिस्सा पानी से ढका हुआ है। पानी सूर्य के प्रकाश को नीले रंग में परावर्तित करता है, इसलिए पृथ्वी अंतरिक्ष से देखने पर नीली दिखाई देती है।
पृथ्वी पर पानी की मौजूदगी जीवन के अस्तित्व के लिए आवश्यक है। पानी पौधों और जानवरों के लिए जीवन का आधार है। यह मनुष्यों के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण है। हम पानी का उपयोग पीने, भोजन बनाने, स्नान करने और अन्य कई कार्यों के लिए करते हैं।
पृथ्वी पर पानी के दो मुख्य रूप हैं: महासागर और समुद्र। महासागर पृथ्वी की सतह के लगभग 70% हिस्से को कवर करते हैं। समुद्र महासागरों की तुलना में छोटे होते हैं और वे महासागरों से जुड़े होते हैं।
पृथ्वी पर पानी का एक अन्य रूप है, बर्फ। पृथ्वी के उत्तर और दक्षिण ध्रुवों पर बड़े-बड़े बर्फ के मैदान हैं। इन बर्फ के मैदानों में बहुत सारा पानी मौजूद है।
पृथ्वी पर पानी का महत्व बहुत अधिक है। यह जीवन के अस्तित्व के लिए आवश्यक है। इसलिए, हमें पृथ्वी के पानी का संरक्षण करना चाहिए।
60. वन विनाश के दो मुख्य कारकों का उल्लेख करें।
⇒ वन विनाश के दो मुख्य कारक हैं:
- कृषिगत भूमि का विस्तार: कृषि के लिए भूमि की आवश्यकता बढ़ने से वनों को काटकर कृषि योग्य भूमि में बदल दिया जाता है। यह वन विनाश का सबसे प्रमुख कारण है।
- लकड़ी की कटाई: लकड़ी ईंधन, निर्माण सामग्री और अन्य उद्देश्यों के लिए उपयोग की जाती है। लकड़ी की कटाई से भी वनों को भारी नुकसान होता है।
इनके अलावा, वन विनाश के अन्य कारकों में शामिल हैं:
- पशुचारण: पशुओं को चराने के लिए वनों को साफ कर दिया जाता है।
- नदी घाटी परियोजनाएं: नदी घाटी परियोजनाओं के निर्माण के लिए वनों को नष्ट किया जाता है।
- खनन: खनन के लिए वनों को साफ कर दिया जाता है।
- अग्नि दुर्घटनाएँ: आग लगने से भी वनों को नुकसान होता है।
वन विनाश से पर्यावरण पर कई नकारात्मक प्रभाव पड़ते हैं, जैसे:
- मृदा अपरदन: वनों के नष्ट होने से मृदा अपरदन की समस्या बढ़ जाती है। इससे मिट्टी की उर्वरता कम होती है और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं का खतरा बढ़ जाता है।
- जलवायु परिवर्तन: वनों के नष्ट होने से कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ जाती है और ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है। इससे वैश्विक तापमान में वृद्धि होती है और जलवायु परिवर्तन की समस्या बढ़ जाती है।
- वन्यजीवों की विलुप्तता: वनों के नष्ट होने से वन्यजीवों के लिए आवास कम हो जाता है और वे विलुप्त होने का खतरा बढ़ जाता है।
वन विनाश को रोकने के लिए हमें निम्नलिखित उपाय करने चाहिए:
- वनों की कटाई को कम करना: कृषि के लिए भूमि की आवश्यकता को कम करने से और लकड़ी की कटाई को नियंत्रित करने से वन विनाश को कम किया जा सकता है।
- वनों के संरक्षण के लिए कानूनों को सख्त करना: वनों के संरक्षण के लिए कानूनों को सख्त करके वन विनाश को रोका जा सकता है।
- वनों के पुनर्जनन पर ध्यान देना: वनों के पुनर्जनन पर ध्यान देकर वन विनाश को कम किया जा सकता है।
61. झारखंड राज्य के प्रमुख कोयला उत्पादक क्षेत्रों के नाम अंकित कीजिए।
⇒ झारखंड राज्य भारत के प्रमुख कोयला उत्पादक राज्यों में से एक है। यहाँ देश का लगभग 30% कोयला भंडार पाया जाता है। झारखंड के प्रमुख कोयला उत्पादक क्षेत्र निम्नलिखित हैं:
- झरिया: झारखंड का सबसे बड़ा कोयला क्षेत्र झरिया है। यह क्षेत्र धनबाद जिले में स्थित है।
- बोकारो: बोकारो झारखंड का दूसरा सबसे बड़ा कोयला क्षेत्र है। यह क्षेत्र बोकारो जिले में स्थित है।
- गिरिडीह: गिरिडीह झारखंड का तीसरा सबसे बड़ा कोयला क्षेत्र है। यह क्षेत्र गिरिडीह जिले में स्थित है।
- रामगढ़: रामगढ़ झारखंड का चौथा सबसे बड़ा कोयला क्षेत्र है। यह क्षेत्र रामगढ़ जिले में स्थित है।
- डॉल्टनगंज: डाल्टनगंज झारखंड का पांचवां सबसे बड़ा कोयला क्षेत्र है। यह क्षेत्र कोडरमा जिले में स्थित है।
इनके अलावा, झारखंड के अन्य कोयला उत्पादक क्षेत्रों में शामिल हैं:
- **कर्णपुरा
- **राजहरा
- **आनंदपुर
- **जोजोमा
- **पकरी बरवाडीह
- **नयानगर
- **जामाडोबा
- **पश्चिम सिंहभूम
- **पूर्वी सिंहभूम
- **सरायकेला-खरसावां
- **हजारीबाग
- **गुमला
- **रांची
- **पलामू
झारखंड के कोयला क्षेत्रों से उत्पादित कोयले का उपयोग बिजली उत्पादन, इस्पात उद्योग, उर्वरक उद्योग और अन्य उद्योगों में किया जाता है।
62. किन्हीं चार तेलशोधक कारखाने का स्थान निर्दिष्ट कीजिए।
⇒ भारत में तेलशोधक कारखाने मुख्य रूप से तटीय क्षेत्रों में स्थित हैं। इसका कारण यह है कि कच्चा तेल समुद्र मार्ग से आयात किया जाता है और इसे तेलशोधक कारखानों तक ले जाने के लिए समुद्री परिवहन का उपयोग किया जाता है।
यहाँ भारत के चार प्रमुख तेलशोधक कारखानों का स्थान दिया गया है:
- मुंबई रिफाइनरी: यह भारत का सबसे बड़ा तेलशोधक कारखाना है और यह मुंबई के पास स्थित है।
- कोच्चि रिफाइनरी: यह भारत का दूसरा सबसे बड़ा तेलशोधक कारखाना है और यह कोच्चि के पास स्थित है।
- विजयपुर रिफाइनरी: यह भारत का तीसरा सबसे बड़ा तेलशोधक कारखाना है और यह विजयपुर के पास स्थित है।
- हावड़ा रिफाइनरी: यह भारत का चौथा सबसे बड़ा तेलशोधक कारखाना है और यह हावड़ा के पास स्थित है।
इनके अलावा, भारत में अन्य प्रमुख तेलशोधक कारखाने निम्नलिखित हैं:
- **बरौनी रिफाइनरी (बिहार)
- **बरकाकाना रिफाइनरी (झारखंड)
- **गोपालपुर रिफाइनरी (ओडिशा)
- **गंगानगर रिफाइनरी (राजस्थान)
- **मथुरा रिफाइनरी (उत्तर प्रदेश)
- **सिंधु रिफाइनरी (गुजरात)
- **तेलंगाना रिफाइनरी (तेलंगाना)
भारत में तेलशोधक कारखानों का निर्माण देश की ऊर्जा सुरक्षा और आर्थिक विकास के लिए महत्वपूर्ण है। इन कारखानों से प्राप्त उत्पादों का उपयोग परिवहन, बिजली उत्पादन, उद्योगों और अन्य क्षेत्रों में किया जाता है।
63. पवन अपरदन वाले क्षेत्र में कृषि की कौन-कौन सी पर उपयोगी मानी जाती है ?
⇒ पवन अपरदन वाले क्षेत्रों में कृषि की निम्नलिखित पद्धतियाँ उपयोगी मानी जाती हैं:
- पट्टिका कृषि: इस पद्धति में, खेतों को छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटा जाता है और प्रत्येक टुकड़े को ऊर्ध्वाधर मिट्टी की दीवारों से घेरा जाता है। ये दीवारें हवा की गति को कम करके मृदा अपरदन को रोकती हैं।
- वृक्षारोपण: वृक्ष मिट्टी को बांधे रखते हैं और हवा की गति को कम करते हैं। इसलिए, पवन अपरदन वाले क्षेत्रों में वृक्षारोपण करना बहुत महत्वपूर्ण है।
- सिंचाई: सिंचाई से मिट्टी को नम रखा जाता है, जिससे यह अधिक स्थिर हो जाती है। इसलिए, पवन अपरदन वाले क्षेत्रों में सिंचाई करना भी महत्वपूर्ण है।
इनके अलावा, निम्नलिखित उपाय भी पवन अपरदन को रोकने में मदद कर सकते हैं:
- खेतों में फसलों के बीच में फसल अवशेषों को छोड़ना: फसल अवशेष मिट्टी को बांधे रखते हैं और हवा की गति को कम करते हैं।
- खेतों में पशुओं को चराने से रोकना: पशुओं के चराये जाने से मिट्टी असुरक्षित हो जाती है और पवन अपरदन का खतरा बढ़ जाता है।
- खेतों में उचित जल निकासी व्यवस्था करना: जल निकासी व्यवस्था से खेतों में पानी का जमाव नहीं होता है, जिससे मिट्टी का कटाव कम होता है।
पवन अपरदन एक गंभीर समस्या है जो कृषि उत्पादन को प्रभावित कर सकती है। इसलिए, पवन अपरदन वाले क्षेत्रों में कृषि करने के लिए उपयुक्त पद्धतियों का उपयोग करना और अन्य उपाय करना आवश्यक है।
64. वनों के ह्रास (विनाश) के चार कारणों को लिखें।
⇒ वनों के ह्रास (विनाश) के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं:
- कृषिगत भूमि का विस्तार: कृषि के लिए भूमि की आवश्यकता बढ़ने से वनों को काटकर कृषि योग्य भूमि में बदल दिया जाता है। यह वन विनाश का सबसे प्रमुख कारण है।
- लकड़ी की कटाई: लकड़ी ईंधन, निर्माण सामग्री और अन्य उद्देश्यों के लिए उपयोग की जाती है। लकड़ी की कटाई से भी वनों को भारी नुकसान होता है।
- पशुचारण: पशुओं को चराने के लिए वनों को साफ कर दिया जाता है।
- नदी घाटी परियोजनाएं: नदी घाटी परियोजनाओं के निर्माण के लिए वनों को नष्ट किया जाता है।
इनके अलावा, वनों के ह्रास के अन्य कारणों में शामिल हैं:
- खनन: खनन के लिए वनों को साफ कर दिया जाता है।
- अग्नि दुर्घटनाएँ: आग लगने से भी वनों को नुकसान होता है।
- जलवायु परिवर्तन: जलवायु परिवर्तन के कारण वनों में सूखा, आग और अन्य प्राकृतिक आपदाओं की संभावना बढ़ जाती है, जिससे वनों को नुकसान होता है।
वन विनाश से पर्यावरण पर कई नकारात्मक प्रभाव पड़ते हैं, जैसे:
- मृदा अपरदन: वनों के नष्ट होने से मृदा अपरदन की समस्या बढ़ जाती है। इससे मिट्टी की उर्वरता कम होती है और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं का खतरा बढ़ जाता है।
- जलवायु परिवर्तन: वनों के नष्ट होने से कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ जाती है और ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है। इससे वैश्विक तापमान में वृद्धि होती है और जलवायु परिवर्तन की समस्या बढ़ जाती है।
- वन्यजीवों की विलुप्तता: वनों के नष्ट होने से वन्यजीवों के लिए आवास कम हो जाता है और वे विलुप्त होने का खतरा बढ़ जाता है।
वन विनाश को रोकने के लिए हमें निम्नलिखित उपाय करने चाहिए:
- वनों की कटाई को कम करना: कृषि के लिए भूमि की आवश्यकता को कम करने से और लकड़ी की कटाई को नियंत्रित करने से वन विनाश को कम किया जा सकता है।
- वनों के संरक्षण के लिए कानूनों को सख्त करना: वनों के संरक्षण के लिए कानूनों को सख्त करके वन विनाश को रोका जा सकता है।
- वनों के पुनर्जनन पर ध्यान देना: वनों के पुनर्जनन पर ध्यान देकर वन विनाश को कम किया जा सकता है।
65. दो परंपरागत और दो गैर परंपरागत ऊर्जा स्रोतों के नाम लिखे और उनकी विशेषताएँ बताएँ।
⇒ परंपरागत ऊर्जा स्रोत
- कोयला: कोयला एक जीवाश्म ईंधन है जो पृथ्वी के अंदर लाखों वर्षों से जमा हो रहा है। यह बिजली उत्पादन, उद्योग और परिवहन के लिए एक प्रमुख ऊर्जा स्रोत है।
विशेषताएँ:
-
यह एक प्रचुर मात्रा में उपलब्ध ऊर्जा स्रोत है।
-
यह सस्ता है और आसानी से परिवहन किया जा सकता है।
-
इसका उपयोग बिजली उत्पादन, उद्योग और परिवहन के लिए किया जा सकता है।
-
पेट्रोलियम: पेट्रोलियम एक जीवाश्म ईंधन है जो पृथ्वी के अंदर लाखों वर्षों से जमा हो रहा है। यह बिजली उत्पादन, उद्योग और परिवहन के लिए एक प्रमुख ऊर्जा स्रोत है।
विशेषताएँ:
- यह एक प्रचुर मात्रा में उपलब्ध ऊर्जा स्रोत है।
- यह सस्ता है और आसानी से परिवहन किया जा सकता है।
- इसका उपयोग बिजली उत्पादन, उद्योग और परिवहन के लिए किया जा सकता है।
गैर परंपरागत ऊर्जा स्रोत
- सौर ऊर्जा: सौर ऊर्जा सूर्य से आने वाली ऊर्जा है। इसे सोलर पैनल और अन्य उपकरणों का उपयोग करके विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित किया जा सकता है।
विशेषताएँ:
-
यह एक स्वच्छ और नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत है।
-
यह पर्यावरण के लिए हानिकारक नहीं है।
-
इसका उपयोग बिजली उत्पादन, घरेलू उपकरणों को चलाने और अन्य उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है।
-
पवन ऊर्जा: पवन ऊर्जा हवा की गति से उत्पन्न ऊर्जा है। इसे पवन टर्बाइन का उपयोग करके विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित किया जा सकता है।
विशेषताएँ:
- यह एक स्वच्छ और नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत है।
- यह पर्यावरण के लिए हानिकारक नहीं है।
- इसका उपयोग बिजली उत्पादन, घरेलू उपकरणों को चलाने और अन्य उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है।
66. बहुउद्देशीय परियोजना से आप क्या समझते हैं ?
⇒ बहुउद्देशीय परियोजना एक ऐसी परियोजना है जो एक से अधिक उद्देश्यों को पूरा करती है। इन परियोजनाओं का उद्देश्य एक ही स्थान पर कई लाभ प्रदान करना है। बहुउद्देशीय परियोजनाओं के उदाहरणों में शामिल हैं:
- बहुआयामी नदी घाटी परियोजनाएं: ये परियोजनाएं सिंचाई, बिजली उत्पादन, बाढ़ नियंत्रण और जल परिवहन जैसे उद्देश्यों को पूरा करती हैं।
- शहरीकरण परियोजनाएं: ये परियोजनाएं आवास, बुनियादी ढांचा, रोजगार और अन्य सुविधाओं के निर्माण के लिए एक साथ काम करती हैं।
- औद्योगिक परियोजनाएं: ये परियोजनाएं एक ही स्थान पर कई उद्योगों को एक साथ लाती हैं।
बहुउद्देशीय परियोजनाओं के कई लाभ हैं। ये परियोजनाएं एक ही स्थान पर कई आवश्यकताओं को पूरा कर सकती हैं, जिससे लागत और प्रभावशीलता में सुधार होता है। इसके अलावा, ये परियोजनाएं एकीकृत विकास को बढ़ावा दे सकती हैं और स्थानीय समुदायों के लिए बेहतर अवसर प्रदान कर सकती हैं।
हालांकि, बहुउद्देशीय परियोजनाओं के कुछ संभावित नुकसान भी हैं। इन परियोजनाओं की जटिलता और बड़े पैमाने पर निर्माण के कारण, उन्हें लागू करना और प्रबंधित करना चुनौतीपूर्ण हो सकता है। इसके अलावा, इन परियोजनाओं से पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।
कुल मिलाकर, बहुउद्देशीय परियोजनाएं एक शक्तिशाली उपकरण हो सकती हैं जो एक क्षेत्र के विकास और समृद्धि को बढ़ावा दे सकती हैं। हालांकि, इन परियोजनाओं को सावधानीपूर्वक योजना और कार्यान्वयन की आवश्यकता होती है ताकि उनके संभावित लाभों को अधिकतम किया जा सके और नुकसान को कम किया जा सके।
67. भू-क्षरण के क्षेत्र लिखिए।
⇒ भू-क्षरण के क्षेत्र निम्नलिखित हैं:
- पहाड़ी क्षेत्र: पहाड़ी क्षेत्रों में ढलान अधिक होता है, जिससे मिट्टी का कटाव अधिक होता है। पहाड़ी क्षेत्रों में भू-क्षरण के प्रमुख कारणों में वर्षा, नदियाँ, हिमनद और पशुचारण शामिल हैं।
- पठारी क्षेत्र: पठारी क्षेत्रों में ढलान कम होता है, लेकिन यहां भी भू-क्षरण की समस्या होती है। पठारी क्षेत्रों में भू-क्षरण के प्रमुख कारणों में वर्षा, नदियाँ और कृषि शामिल हैं।
- मैदानी क्षेत्र: मैदानी क्षेत्रों में ढलान बहुत कम होता है, लेकिन यहां भी भू-क्षरण की समस्या हो सकती है। मैदानी क्षेत्रों में भू-क्षरण के प्रमुख कारणों में वर्षा, नदियाँ और औद्योगिक विकास शामिल हैं।
भू-क्षरण के क्षेत्रों को निम्नलिखित प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है:
- जल क्षरण: जल क्षरण वह प्रक्रिया है जिसमें पानी के द्वारा मिट्टी का कटाव होता है। जल क्षरण के दो प्रकार हैं:
- वृष्टि क्षरण: वृष्टि क्षरण वह प्रक्रिया है जिसमें वर्षा के पानी के द्वारा मिट्टी का कटाव होता है।
- नदी क्षरण: नदी क्षरण वह प्रक्रिया है जिसमें नदियों के द्वारा मिट्टी का कटाव होता है।
- वायु क्षरण: वायु क्षरण वह प्रक्रिया है जिसमें हवा के द्वारा मिट्टी का कटाव होता है। वायु क्षरण को दो प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है:
- धूल तूफान: धूल तूफान वह घटना है जिसमें हवा द्वारा मिट्टी को उड़ाकर दूर ले जाया जाता है।
- पवन अपरदन: पवन अपरदन वह प्रक्रिया है जिसमें हवा के द्वारा मिट्टी का कटाव होता है।
- मानवजनित क्षरण: मानवजनित क्षरण वह प्रक्रिया है जिसमें मानवीय गतिविधियों के कारण मिट्टी का कटाव होता है। मानवजनित क्षरण के प्रमुख कारणों में कृषि, खनन और शहरीकरण शामिल हैं।
भू-क्षरण एक गंभीर समस्या है जो पर्यावरण और मानवीय गतिविधियों को प्रभावित करती है। भू-क्षरण से निम्नलिखित समस्याएं हो सकती हैं:
- मृदा की उर्वरता में कमी: भू-क्षरण से मिट्टी की उर्वरता में कमी आती है, जिससे कृषि उत्पादन प्रभावित होता है।
- बाढ़ का खतरा: भू-क्षरण से मिट्टी के कण नदियों में जमा हो जाते हैं, जिससे बाढ़ का खतरा बढ़ जाता है।
- भूस्खलन का खतरा: भू-क्षरण से मिट्टी की स्थिरता कम हो जाती है, जिससे भूस्खलन का खतरा बढ़ जाता है।
- पर्यावरण प्रदूषण: भू-क्षरण से मिट्टी के कण हवा और पानी में प्रदूषक के रूप में प्रवेश कर सकते हैं, जिससे पर्यावरण प्रदूषण होता है।
भू-क्षरण को रोकने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:
- वनों की कटाई को रोकना: वृक्ष मिट्टी को बांधे रखते हैं, इसलिए वनों की कटाई को रोकने से भू-क्षरण को रोका जा सकता है।
- मृदा संरक्षण तकनीकों का उपयोग करना: मृदा संरक्षण तकनीकों का उपयोग करके मिट्टी को कटाव से बचाया जा सकता है। इन तकनीकों में बाँध बनाना, वृक्षारोपण करना, फसल चक्र अपनाना और मिट्टी की नमी बनाए रखना शामिल हैं।
- मानवजनित गतिविधियों को नियंत्रित करना: कृषि, खनन और शहरीकरण जैसी मानवजनित गतिविधियों को नियंत्रित करके भू-क्षरण को रोका जा सकता है।
68. रेड डाटा बुक और ग्रीन बुक क्या है ?
⇒ रेड डाटा बुक एक ऐसी पुस्तक है जो किसी दिए गए क्षेत्र में मौजूद पौधों, जानवरों, कवक और स्थानीय उप-प्रजातियों की लुप्तप्राय और दुर्लभ प्रजातियों को रिकॉर्ड करती है। रेड डाटा बुक कुछ प्रजातियों पर डेटा प्रदान करती है जो विलुप्त होने के कगार पर हैं।
रेड डाटा बुक का प्रकाशन अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (IUCN) द्वारा किया जाता है। IUCN एक गैर-सरकारी संगठन है जो दुनिया भर में जैव विविधता के संरक्षण के लिए काम करता है।
रेड डाटा बुक में प्रजातियों की आठ श्रेणियां शामिल हैं:
- विलुप्त: ऐसी प्रजातियाँ जो ज्ञात रूप से जीवित नहीं हैं।
- दुनिया में विलुप्त: ऐसी प्रजातियाँ जो किसी क्षेत्र से विलुप्त हो गई हैं, लेकिन अन्य क्षेत्रों में अभी भी जीवित हैं।
- लुप्तप्राय: ऐसी प्रजातियाँ जो विलुप्त होने के कगार पर हैं।
- गंभीर रूप से संकटग्रस्त: ऐसी प्रजातियाँ जो गंभीर रूप से विलुप्त होने के खतरे में हैं।
- कमजोर: ऐसी प्रजातियाँ जो विलुप्त होने के खतरे में हैं, लेकिन लुप्तप्राय या गंभीर रूप से संकटग्रस्त की तुलना में कम खतरे में हैं।
- कम जोखिम: ऐसी प्रजातियाँ जो वर्तमान में विलुप्त होने के खतरे में नहीं हैं।
- मूल्यांकन नहीं किया गया: ऐसी प्रजातियाँ जिनकी स्थिति का अभी तक IUCN द्वारा मूल्यांकन नहीं किया गया है।
ग्रीन बुक एक ऐसी पुस्तक है जो किसी दिए गए क्षेत्र में मौजूद पौधों, जानवरों, कवक और स्थानीय उप-प्रजातियों की पुनर्प्राप्ति और संरक्षण के लिए रणनीति प्रदान करती है। ग्रीन बुक में निम्नलिखित जानकारी शामिल हो सकती है:
- प्रजातियों की स्थिति का मूल्यांकन
- प्रजातियों के लिए खतरों की पहचान
- प्रजातियों के संरक्षण के लिए रणनीति
ग्रीन बुक का प्रकाशन IUCN या किसी अन्य संगठन द्वारा किया जा सकता है। ग्रीन बुक का उपयोग सरकारों, संगठनों और व्यक्तियों द्वारा प्रजातियों के संरक्षण के लिए रणनीति विकसित करने के लिए किया जा सकता है।
रेड डाटा बुक और ग्रीन बुक दोनों जैव विविधता के संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण उपकरण हैं। रेड डाटा बुक प्रजातियों की स्थिति के बारे में जागरूकता बढ़ाने में मदद करती है, जबकि ग्रीन बुक प्रजातियों के संरक्षण के लिए कार्रवाई करने में मदद करती है।
69. अंतर्राज्यीय जल विवाद के क्या कारण हैं ?
⇒ अंतर्राज्यीय जल विवाद के कई कारण हो सकते हैं। इनमें से कुछ प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं:
- जल संसाधनों का सीमित होना: जल संसाधन एक सीमित संसाधन हैं। जब दो या दो से अधिक राज्यों के बीच एक ही जल संसाधन का उपयोग होता है, तो उन राज्यों के बीच विवाद हो सकता है।
- जल उपयोग की बढ़ती मांग: जनसंख्या वृद्धि, शहरीकरण और औद्योगीकरण के कारण जल उपयोग की मांग बढ़ रही है। इससे जल संसाधनों के लिए प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है और अंतर्राज्यीय जल विवादों को जन्म दे रही है।
- जल संसाधनों के प्रबंधन में अंतर: विभिन्न राज्यों में जल संसाधनों के प्रबंधन के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं। इससे जल संसाधनों के उपयोग और वितरण के बारे में विवाद हो सकता है।
- राजनीतिक और आर्थिक कारक: राजनीतिक और आर्थिक कारक भी अंतर्राज्यीय जल विवादों को जन्म दे सकते हैं। उदाहरण के लिए, एक राज्य में सत्ता में बैठी पार्टी दूसरे राज्य में सत्ता में बैठी पार्टी से अलग हो सकती है। इससे जल संसाधनों के वितरण को लेकर विवाद हो सकता है।
भारत में अंतर्राज्यीय जल विवाद एक प्रमुख समस्या है। देश में कई नदियाँ ऐसी हैं जो दो या दो से अधिक राज्यों से होकर बहती हैं। इन नदियों के जल के उपयोग और वितरण को लेकर कई राज्यों के बीच विवाद हैं।
भारत में कुछ प्रमुख अंतर्राज्यीय जल विवादों में शामिल हैं:
- कावेरी नदी जल विवाद: कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल के बीच कावेरी नदी के जल के उपयोग और वितरण को लेकर विवाद है।
- नर्मदा नदी जल विवाद: मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र के बीच नर्मदा नदी के जल के उपयोग और वितरण को लेकर विवाद है।
- गंगा नदी जल विवाद: उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल के बीच गंगा नदी के जल के उपयोग और वितरण को लेकर विवाद है।
इन विवादों को सुलझाने के लिए भारत सरकार ने कई प्रयास किए हैं। इनमें अंतर्राज्यीय जल विवाद अधिनियम, 1956 और अंतर्राज्यीय जल विवाद न्यायाधिकरण की स्थापना शामिल हैं। हालांकि, इन प्रयासों से अभी तक इन विवादों का समाधान नहीं हो पाया है।
70. वन और वन्य प्राणियों के संरक्षण में सहयोगी रीति-रिवाजों का उल्लेख कीजिए।
⇒ वन और वन्य प्राणियों के संरक्षण में सहयोगी रीति-रिवाजों का बहुत बड़ा महत्व है। ये रीति-रिवाज पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही हैं और इनमें वन और वन्य प्राणियों के प्रति आदर और सम्मान की भावना निहित है। ये रीति-रिवाज वन और वन्य प्राणियों के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
वन और वन्य प्राणियों के संरक्षण में सहयोगी रीति-रिवाजों के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं:
- वनों की पूजा करना: भारत में कई समुदायों में वनों की पूजा करने की परंपरा है। ये समुदाय वन को देवता मानते हैं और उसकी पूजा करते हैं। इससे वनों के प्रति आदर और सम्मान की भावना बढ़ती है और वन संरक्षण के प्रति जागरूकता फैलती है।
- वनों में पशुओं को चराना मना करना: कई समुदायों में वनों में पशुओं को चराने की मनाही होती है। इससे वनों को चराई से होने वाले नुकसान से बचाया जा सकता है।
- वनों में वन्य प्राणियों का शिकार करना मना करना: कई समुदायों में वन्य प्राणियों का शिकार करना मना है। इससे वन्य प्राणियों की सुरक्षा में मदद मिलती है।
- वनों में पौधों और वन्य प्राणियों के प्रति दयालु होना: कई समुदायों में वनों में पौधों और वन्य प्राणियों के प्रति दयालु होने की शिक्षा दी जाती है। इससे लोगों में वनों और वन्य प्राणियों के प्रति सम्मान की भावना विकसित होती है।
इन रीति-रिवाजों को बढ़ावा देने से वन और वन्य प्राणियों के संरक्षण में महत्वपूर्ण मदद मिल सकती है। सरकार और गैर-सरकारी संगठनों को इन रीति-रिवाजों के संरक्षण और प्रचार-प्रसार के लिए प्रयास करने चाहिए।
भारत में कई आदिवासी समुदाय हैं जो वन और वन्य प्राणियों के संरक्षण में सहयोगी रीति-रिवाजों का पालन करते हैं। इन समुदायों में वनों को देवता माना जाता है और इनकी पूजा की जाती है। इन समुदायों में वनों में पशुओं को चराना मना है और वन्य प्राणियों का शिकार करना भी मना है। ये समुदाय वन और वन्य प्राणियों के प्रति आदर और सम्मान की भावना रखते हैं।
वन और वन्य प्राणियों के संरक्षण में सहयोगी रीति-रिवाजों को बढ़ावा देने के लिए सरकार और गैर-सरकारी संगठनों को निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:
- इन रीति-रिवाजों के बारे में लोगों को जागरूक करना।
- इन रीति-रिवाजों का प्रचार-प्रसार करना।
- इन रीति-रिवाजों को संरक्षित करने के लिए कानून और नीतियां बनाना।
इन उपायों से वन और वन्य प्राणियों के संरक्षण में महत्वपूर्ण मदद मिल सकती है।
71. वन संरक्षण के चार उपाय बताएँ।
⇒ वन संरक्षण के चार उपाय निम्नलिखित हैं:
- वनों की कटाई को रोकना: वनों की कटाई वन संरक्षण के लिए सबसे महत्वपूर्ण उपाय है। वनों की कटाई से मिट्टी का कटाव होता है, जलवायु परिवर्तन होता है और वन्य प्राणियों की आवास नष्ट होती है। इसलिए, वनों की कटाई को रोकने के लिए सरकार और लोगों को मिलकर प्रयास करने चाहिए।
- वृक्षारोपण करना: वृक्षारोपण वन संरक्षण का एक और महत्वपूर्ण उपाय है। वृक्षारोपण से वनों का क्षेत्रफल बढ़ता है और वनों की कटाई से होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है। इसलिए, सरकार और लोगों को मिलकर वृक्षारोपण अभियान चलाने चाहिए।
- वनों के संरक्षण के लिए कानून और नीतियां बनाना: वन संरक्षण के लिए कानून और नीतियां बनाना भी जरूरी है। इन कानूनों और नीतियों से वनों की कटाई को रोका जा सकता है और वनों के संरक्षण को बढ़ावा दिया जा सकता है।
- लोगों में वन संरक्षण के प्रति जागरूकता बढ़ाना: वन संरक्षण के लिए लोगों में वन संरक्षण के प्रति जागरूकता बढ़ाना भी जरूरी है। लोगों को वन संरक्षण के महत्व के बारे में बताया जाना चाहिए और उन्हें वन संरक्षण के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए।
इन उपायों को अपनाकर हम वनों को संरक्षित कर सकते हैं और पर्यावरण को बचा सकते हैं।
72. जल प्रदूषण को रोकने के लिए कारगर उपाय क्या हो सकते हैं ? लिखें ।
⇒ जल प्रदूषण एक गंभीर समस्या है जो मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रही है। जल प्रदूषण को रोकने के लिए निम्नलिखित कारगर उपाय किए जा सकते हैं:
- उद्योगों से निकलने वाले प्रदूषण को कम करना: उद्योगों से निकलने वाले प्रदूषण जल प्रदूषण का एक प्रमुख कारण है। इसलिए, उद्योगों से निकलने वाले प्रदूषण को कम करने के लिए सरकार और उद्योगों को मिलकर प्रयास करने चाहिए। उद्योगों को प्रदूषण नियंत्रण उपकरणों का उपयोग करना चाहिए और प्रदूषण को रोकने के लिए प्रभावी उपाय करने चाहिए।
- कृषि से निकलने वाले प्रदूषण को कम करना: कृषि से निकलने वाले प्रदूषण भी जल प्रदूषण का एक प्रमुख कारण है। इसलिए, कृषि से निकलने वाले प्रदूषण को कम करने के लिए सरकार और किसानों को मिलकर प्रयास करने चाहिए। किसानों को उर्वरकों और कीटनाशकों का उपयोग कम करना चाहिए और कृषि से निकलने वाले प्रदूषण को रोकने के लिए प्रभावी उपाय करने चाहिए।
- घरेलू प्रदूषण को कम करना: घरेलू प्रदूषण भी जल प्रदूषण का एक महत्वपूर्ण कारण है। इसलिए, घरेलू प्रदूषण को कम करने के लिए लोगों को जागरूक करना जरूरी है। लोगों को घरेलू कचरे को सही तरीके से निपटाना चाहिए और जल प्रदूषण से बचने के लिए आवश्यक उपाय करने चाहिए।
- जल संरक्षण: जल संरक्षण भी जल प्रदूषण को रोकने का एक महत्वपूर्ण उपाय है। जल संरक्षण से जल के उपयोग को कम किया जा सकता है और जल प्रदूषण को कम करने में मदद मिल सकती है।
इन उपायों के अलावा, जल प्रदूषण को रोकने के लिए निम्नलिखित उपाय भी किए जा सकते हैं:
- जल प्रदूषण के बारे में जागरूकता बढ़ाना: लोगों को जल प्रदूषण के बारे में जागरूक करना जरूरी है। लोगों को जल प्रदूषण के कारणों और प्रभावों के बारे में बताया जाना चाहिए और उन्हें जल प्रदूषण से बचने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए।
- कानून और नीतियां बनाना: जल प्रदूषण को रोकने के लिए कानून और नीतियां भी बनाना जरूरी है। इन कानूनों और नीतियों से जल प्रदूषण को रोका जा सकता है और जल प्रदूषण को कम करने में मदद मिल सकती है।
इन उपायों को अपनाकर हम जल प्रदूषण को रोक सकते हैं और पर्यावरण को बचा सकते हैं।
73. उपयोगिता के आधार पर ऊर्जा को कितने भागों में बाँटा गया है ?
⇒ उपयोगिता के आधार पर ऊर्जा को दो भागों में बाँटा गया है:
- प्राथमिक ऊर्जा: प्राथमिक ऊर्जा वह ऊर्जा है जो प्रकृति में अपने मूल रूप में पाई जाती है। उदाहरण के लिए, सूर्य का प्रकाश, पवन, जल, जीवाश्म ईंधन आदि प्राथमिक ऊर्जा के स्रोत हैं।
- द्वितीयक ऊर्जा: द्वितीयक ऊर्जा वह ऊर्जा है जो प्राथमिक ऊर्जा से प्राप्त की जाती है। उदाहरण के लिए, बिजली, गैस, पेट्रोल, डीजल आदि द्वितीयक ऊर्जा के रूप हैं।
प्राथमिक ऊर्जा का उपयोग करके द्वितीयक ऊर्जा का उत्पादन किया जाता है। उदाहरण के लिए, सूर्य के प्रकाश से बिजली, पवन से बिजली, जल से बिजली, जीवाश्म ईंधन से बिजली, गैस, पेट्रोल, डीजल आदि का उत्पादन किया जाता है।
प्राथमिक ऊर्जा के स्रोतों को दो भागों में भी बाँटा जा सकता है:
- नवीकरणीय ऊर्जा: नवीकरणीय ऊर्जा के स्रोत वे हैं जो कभी समाप्त नहीं होते हैं। उदाहरण के लिए, सूर्य का प्रकाश, पवन, जल, भूतापीय ऊर्जा, जैवमास आदि नवीकरणीय ऊर्जा के स्रोत हैं।
- अनवीकरणीय ऊर्जा: अनवीकरणीय ऊर्जा के स्रोत वे हैं जो एक बार समाप्त हो जाने के बाद फिर से प्राप्त नहीं किए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए, जीवाश्म ईंधन अनवीकरणीय ऊर्जा के स्रोत हैं।
नवीकरणीय ऊर्जा के स्रोत पर्यावरण के लिए अधिक अनुकूल होते हैं, जबकि अनवीकरणीय ऊर्जा के स्रोत पर्यावरण के लिए कम अनुकूल होते हैं।
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